Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 8
________________ सर्वोह पंचासिया पहुँच कर वह मुनि को मारने का प्रयत्न करने लगा। मुनिराज सुदर्शनमेरु के समान निश्चल खड़े थे और उनके हृदयस्थान पर श्रीवत्स का चिह्न बना हुआ था। उस सुन्दर चिह्न को देखते ही हाथी को जातिस्मरण हो गया । अर्थात् पूर्व भव की सारी बातें उसे ठीक-ठीक याद आने लगी । तत्काल ही वह गजराज पूर्ण शान्त हो गया और उसने मुनिराज के श्रीचरणों में अपना सिर रख दिया। तब मुनिराज अति मधुर शब्दों में उससे कहने लगे कि हे गजराज ! तूने यह क्या किया ? हिंसा के कान भारी पाप के कारण हैं, हिंसा दुर्गतियों के दुःख देती है। हिंसा के कारण संसार में घूमना पड़ता है। यह अपने को और दूसरों को दोनों को ही दुःख देने वाली है। तूने आकर इन सब जीवों को मार डाला | हे गजराज ! तुझे पाप से जरा भी डर न लगा। देख! जरा विचार तो कर कि कौन से पाप के फलस्वरूप तूने ब्राह्मण से हाथी का शरीर पाया ? तू पूर्व जन्म · मेरा मरुमूर्ति नाम का मंत्री था और मैं अरविंद नामक राजा था। तू क्यों नहीं पहिचानता है ? धर्म से विमुख होकर आर्तध्यान से मरने के कारण ही तूने यह दुःखपूर्ण पशुपर्याय पाई है। हे गजराज ! अब इस आर्तध्यान को छोड़कर अपने मन में धर्मभावना को धारण करो। जबतक तेरे प्राण इस शरीर में हैं तबतक सम्यग्दर्शनपूर्वक अणुव्रतों का पालन करो। मुनिराज का ऐसा उपदेश सुनने से हाथी का हृदय कोमल हो गया और वह अपने किये हुए पापों की निंदा करने लगा । फिर उस हाथी ने हृदय में धर्मग्रहण की इच्छा से मुनिराज के चरणों में अपना सिर रख दिया। मुनिराज भी शान्तचित्त होकर उसे सत्यार्थ धर्म का स्वरूप कहने लगे । फिर अरविन्द मुनिराज ने उसे सम्यक्त्व व व्रतों के स्वरूप से सम्बन्धित उपदेश दिया। तब हाथी ने व्रतों को ग्रहण किया। इसप्रकार अनेकानेक कथानक प्रथमानुयोग शास्त्र में पाये जाते हैं. जिनसे यह सिद्ध होता है कि सम्बोधन ने भव्यों का मोक्षमार्ग प्रशस्त किया । इस ग्रन्थ का नाम ही संबोह पंचासिया है। यह ग्रन्थ संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होने वाले संबोधक वचनों से भरा हुआ है । ग्रन्थकर्ता व ग्रन्थकाल इस ग्रन्थकार ने अपनी निर्लोभ प्रवृत्ति के कारण अपना नाम इस H

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