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संसार में लक्ष्मी-स्त्री-पुत्रादि के साथ के सर्व व्यवहार पूर्ववत् रहने के बावजूद भी आत्मज्ञान में रहकर, आत्मा के अस्पष्टवेदन में से स्पष्टवेदन की ओर जाने का पुरुषार्थ 'प्रत्येक स्वरूपज्ञानी' के लिए इच्छा करने योग्य है! और इस 'अक्रमविज्ञान' द्वारा, वह महान सिद्धि साध्य हो सके, ऐसा है। ऐसा यह सीधा-सादा और सरल अक्रम मार्ग जिसे महा-महा पुण्योदय से प्राप्त हुआ हो, उसे तो यह एक जन्म पूर्णाहुति करने में ही बिता देना चाहिए, अन्यथा अस्सी हज़ार वर्षों तक मोक्षमार्ग तो क्या लेकिन जहाँ 'रिलेटिव' धर्म भी रूंध जानेवाला है, वहाँ मोक्ष की कितनी आशा रखी जा सकती है?!
स्त्री परिग्रह और स्त्री परिषह होने के बावजूद भी उससे अपरिग्रही और परिषह मुक्त हुआ जा सके, उसके लिए परम पूज्य दादाश्री ने सीधी, सरल और सर्वसाध्य दिशा दिखाई है। उस 'दिशा' को 'फॉलो' करनेवालों के लिए उस दिशा के प्रत्येक 'माइल स्टोन' को प्रस्तुत ग्रंथ में स्पष्ट करके बताया गया है, ताकि मोक्षपथिक कहीं भी गुमराह नहीं हो!
प्रकट 'ज्ञानीपुरुष' का 'अक्रमविज्ञान' ऐसा नहीं कहता कि विषय को छोड़ दो, लेकिन निर्विकार-अनासक्त स्वभावी आत्मस्वरूप की ओर की दृष्टि प्राप्त होने के परिणामस्वरूप 'खुद' को विषय से विरक्त बनाकर स्वभाव दशा में रमणता करवानेवाला बनता है! छोटा और सरल, आसान
और अति, अति, अति सरल मार्ग ऐसे दूषमकाल के जीवों के लिए अंतिम तारक 'लिफ्ट' इस काल में 'ज्ञानीपुरुष' के सानिध्य में उदय में आई है।
अनंत बार अल्पसुख के लालच में विषय के कीचड़ में सना, लथपथ हुआ, गर्क हो गया फिर भी उसमें से बाहर निकलने को मन नहीं होता, यह भी एक आश्चर्य (!) है न! जो वास्तव में इस कीचड़ में से बाहर निकलना चाहते हैं, लेकिन मार्ग नहीं मिलने के कारण जबरन फँस गए हैं! ऐसे लोग कि जिन्हें सिर्फ छटने की ही तीव्र इच्छा है, उन्हें तो 'ज्ञानीपुरुष' का यह 'दर्शन' नई ही दृष्टि देकर सारे फँसाव में से मुक्ति दिलानेवाला बन जाता है!
मन-वचन-काया की तमाम संगी क्रियाओं में सर्वथा असंगता के