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समयसार
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रूप दिखाई देता है वह इस दृष्टिसे तो सत्यार्थ ही है परंतु शुद्धनयकी दृष्टिसे बद्धस्पृष्टादिता असत्यार्थ है। इस कथनमें टीकाकार आचार्यने स्याद्वाद बताया है ऐसा जानना।
यहाँ, यह समझना चाहिये कि वह नय है यह श्रुतज्ञान-प्रमाणका अंश है; श्रुतज्ञान वस्तुको परोक्ष बतलाता है; इसलिये यह नय भी परोक्ष ही बतलाता है। शुद्धद्रव्यार्थिकनयका विषयभूत, बद्धस्पृष्ट आदि पाँच भावोंसे रहित आत्मा चैतन्यशक्तिमात्र है। वह शक्ति तो आत्मामें परोक्ष है ही; और उसकी व्यक्ति कर्मसंयोग से मतिश्रुतादि ज्ञानरूप है, वह कथंचित् अनुभवगोचर होनेसे प्रत्यक्षरूप भी कहलाती है, और संपूर्णज्ञान केवलज्ञान यद्यपि छद्मस्थके प्रत्यक्ष नहीं है तथापि यह शुद्धनय आत्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष बतलाता है। जबतक जीव इस नयको नहीं जानता तबतक आत्माके पूर्ण रूपका ज्ञान–श्रद्धान नहीं होता। इसलिये श्रीगुरुने इस शुद्धनयको प्रगट करके उपदेश किया है कि बद्धस्पृष्ट आदि पाँच भावोंसे रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माको जानकर श्रद्धान करना चाहिये, पर्यायबुद्धि नहीं रहना चाहिये।
___ यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि-ऐसा आत्मा प्रत्यक्ष तो दिखाई नहीं देता और बिना देखे श्रद्धान करना असत् श्रद्धान है। उसका उत्तर यह है:-देखे हुए का ही श्रद्धान करना तो नास्तिकमत है। जैनमतमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रमाण माने गये हैं, उनमें से आगमप्रमाण परोक्ष है; उसका भेद शुद्धनय है। इस शुद्धनयकी दृष्टिसे शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना चाहिये, मात्र व्यवहार-प्रत्यक्षका ही एकांत नहीं करना चाहिये।
यहाँ, इस शुद्धनय को मुख्य करके कलशरूप काव्य कहते हैं :
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