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समयसार
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इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः।
एवमयमनादिमोहसन्ताननिरूपितात्मशरीरैकत्वसंस्कारतयात्यन्तमप्रतिबुद्धोऽपि प्रसभोज्जृम्भिततत्त्वज्ञानज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः ? साक्षात् द्रष्टारं स्वं स्वयमेव हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितुकामः स्वात्मारामस्यास्यान्यद्रव्याणां प्रत्याख्यानं किं स्यादिति पृच्छन्नित्थं वाच्यः
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ।। ३४ ।। सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा। तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम्।।३४ ।।
भावार्थ:-निश्चय-व्यवहारनयके विभागसे आत्माका और परका अत्यंत भेद बताया है; उसे जानकर, ऐसा कौन पुरुष है कि जिसे भेदज्ञान न हो ? होता ही है; क्योंकि जब ज्ञान अपने स्वरससे स्वयं अपने स्वरूपको जानता है, तब अवश्य ही वह ज्ञान अपने आत्माको परसे भिन्न ही बतलाता है। कोई दीर्घसंसारी ही हो तो उसकी यहाँ कोई बात नहीं है।। २८ ।।
इसप्रकार, अप्रतिबुद्धने जो यह कहा था कि -" हमारा तो यह निश्चय है कि शरीर ही आत्मा है", उसका निराकरण किया।
इसप्रकार यह अज्ञानी जीव अनादिकालीन मोहके संतानसे निरूपित आत्मा और शरीरके एकत्वके संस्कारपसे अत्यंत अप्रतिबुद्ध था वह अब तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिके प्रगट उदय होनेसे नेत्रके विकारकी भाँति (जैसे किसी पुरुषकी आँखोंमें विकार था तब उसे वर्णादिक अन्यथा दीखते थे और जब नेत्र विकार दूर हो गया तब वे ज्योंके त्यों-दिखाई देने लगे, इसीप्रकार) पटल समान आवरणकर्मोंके भली भाँति उघड़ जानेसे प्रतिबुद्ध हो गया और साक्षात् द्रष्टा आपको अपनेसे ही जानकर तथा श्रद्धान करके उसीका आचरण करनेका इच्छुक होता हुआ पूछता है कि 'इस आत्मारामको अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान (त्यागना) क्या है ?' उसको आचार्य इस प्रकार कहते हैं :--
सब भाव पर ही जान , प्रत्याख्यान भावोंका करे। इससे नियमसे जानना कि, ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।।
गाथार्थ:- [यस्मात् ] जिससे [ सर्वान् भावान् ] ‘अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थोंको [परान् ] पर हैं' [ इति ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [ प्रत्याख्याति] प्रत्याख्यान करता है, [तस्मात् ] उससे, [ प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [ज्ञानं] ज्ञान ही है [ नियमात् ] ऐसा नियमसे [ ज्ञातव्यम् ] जानना। अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ नहीं।
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