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समयसार
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(शार्दूलविक्रीडित) अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति। स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभाव भरादारूढ: परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः।। २५९ ।।
( अर्थात् परभावसे ही अपना अस्तित्व मानता है,) इसलिये [ नित्यं बहि:-वस्तुषु विश्रान्तः] सदा बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ, [ स्वभाव-महिमनि एकान्तनिश्चेतनः ] ( अपने) स्वभावकी महिमामें अत्यंत निश्चेतन (जड़) वर्तता हुआ, [ नश्यति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [ नियत-स्वभावभवन-ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्त: भवन् ] (अपने) नियत स्वभावके भवनस्वरूप ( परिणमनस्वरूप) ज्ञानके कारण सब (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ, [ सहजस्पष्टीकृत-प्रत्ययः] जिसने सहज स्वभावका प्रतीतिरूप ज्ञातृत्व स्पष्ट प्रत्यक्षअनुभवरूप किया है ऐसा होता हुआ, [नाशम् एति न] नाश को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-एकांतवादी परभावोंसे ही अपना सत्पना मानता है, इसलिये बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ आत्माका नाश करता है; और स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार होनेपर भी ज्ञानभावका स्वभावसे अस्तित्व जानता हुआ, आत्माका नाश नहीं करता।
इसप्रकार स्व-भावकी ( अपने भावकी) अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है। २५८।
( अब बारहवें भंगका कलशरूपसे काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [ सर्व-भाव-भवनं आत्मनि अध्यास्य शुद्ध-स्वभाव-च्युतः ] सर्व भावरूप भवनका आत्मामें अध्यास करके ( अर्थात् सर्व ज्ञेय पदार्थों के भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति ] किसी परभावको शेष रखे बिना सर्व परभावोंमें स्वच्छंदता पूर्वक निर्भयतासे (निःशंकतया) क्रीडा करता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [ स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः ] अपने स्वभावमें अत्यंत आरूढ़ होता हुआ, [ परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पित: ] परभावरूप भवनके अभावकी दृष्टिके कारण (अर्थात् आत्मा परद्रव्योंके भावोंरूपसे नहीं है -ऐसा जानता होनेसे ) निष्कंप वर्तता हुआ, [विशुद्धः एव लसति ] शुद्ध ही विराजित रहता है।
भावार्थ:-एकांतवादी सर्व परभावोंको निजरूप जानकर अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ सर्वत्र ( सर्व परभावोंमें) स्वेच्छाचारिता से निःशंकतया प्रवृत्त होता है; और स्याद्वादी तो, परभावोंको जानता हुआ भी, अपने शुद्ध ज्ञानस्वभावको सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ शोभित होता है।
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