Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 626
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार (शार्दूलविक्रीडित) पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छ: पशुः। अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुन: पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि।। २५६ ।। पदार्थों के निमित्तसे चैतन्यमें जो आकार होता है उनको भी छोड़ता हुआ) [ तुच्छीभूय ] तुच्छ होकर [ प्रणश्यति] नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन् ] स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, [ परक्षेत्रे नास्तितां विदन् ] परक्षेत्रमें अपना नास्तित्व जानता हुआ, [त्यक्त-अर्थ: अपि] ( परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंको छोड़कर भी [ परान् आकारकर्षी ] वह पर पदार्थों में से चैतन्यके आकारोंको खींचता है ( अर्थात् ज्ञेय पदार्थों के निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता) [ तुच्छताम्-अनुभवति न ] इसलिये तुच्छताको प्राप्त नहीं होता। भावार्थ:- परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थों के आकाररूप चैतन्यके आकार होते हैं उन्हें यदि मैं अपना बनाऊँगा तो स्वक्षेत्रमें ही रहने के स्थानपर परक्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाऊँगा' ऐसा मानकर अज्ञानी एकांतवादी परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थों के साथ ही साथ चैतन्यके आकारोंको भी छोड़ देता है; इसप्रकार स्वयं चैतन्यके आकारोंसे रहित तुच्छ होता है, नाशको प्राप्त होता है। और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, परक्षेत्रमें अपना नास्तित्व को जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको छोड़कर भी चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता; इसलिये वह तुच्छ नहीं होता, नष्ट नहीं होता। इसप्रकार परक्षेत्रकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है। २५५।। ( अब नवमे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-) श्लोकार्थ:-[पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ पूर्वआलम्बित-बोध्य- नाश-समये ज्ञानस्य नाशं विदन् ] पूर्वालंबित ज्ञेय पदार्थों के नाशके समय ज्ञानका भी नाश जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन् ] और इसप्रकार ज्ञानको कुछ भी ( वस्तु) न जानता हुआ (अर्थात् ज्ञानवस्तुका अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्त-तुच्छ: ] अत्यंत तुच्छ होत हुआ [ सीदति एव ] नाशको प्राप्त होता है ; [ स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [अस्य निज-कालतः अस्तित्वं कलयन् ] आत्माका निज कालसे अस्तित्व जानता हुआ, [ बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि] बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाश को प्राप्त होती है, फिर भी [ पूर्णः तिष्ठति ] स्वयं पूर्ण रहता है। भावार्थ:-पहले जिन ज्ञेय पदार्थों को जाने थे वे उत्तर कालमें नष्ट हो गये; उन्हें देखकर एकांतवादी अपने ज्ञानका भी नाश मानकर अज्ञानी होता हुआ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664