Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 633
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [परिशिष्टम्] परस्पर-व्यतिरिक्तानन्तधर्मसमुदायपरिणतैकज्ञप्तिमात्रभावरूपेण स्वयमेव भवनात्। अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावान्तःपातिन्योऽनन्ताः शक्तयः उत्प्लवन्ते। आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्र भावधारणलक्षणा जीवत्वशक्ति: १। अजडत्वात्मिका चितिशक्ति: २। अनाकारोपयोगमयी दृशिशक्ति: ३। साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्ति: ४। अनाकुलत्वलक्षणा सुखशक्ति: ५। स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः ६। अखण्डितप्रतापस्वातन्त्र्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशक्ति: ७। सर्वभावव्यापकैकभावरूपा विभुत्वशक्ति: ८। विश्वविश्वसामान्यभावपरिणतात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति: ९। विश्वविश्वविशेषभावपरिणतात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति: १०।। [उत्तर:-] परस्पर भिन्न ऐसे अनंत धर्मोंके समुदायरूपसे परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूपसे स्वयं ही है (अर्थात परस्पर भिन्न ऐसे अनंत धर्मोंके समदायरूप से परिणमित जो एक जानन क्रिया है वह जाननक्रियामात्र भावरूपसे स्वयं ही है इसलिये) आत्माके ज्ञानमात्रता है। इसीलिये उसके ज्ञानमात्र एक भावकी अंतःपातिनी (-ज्ञानमात्र एक भावके भीतर आ जानेवाली) अनंत शक्तियाँ उछलती हैं। (आत्माके जितने धर्म हैं उन सबको, लक्षणभेदसे भेद होनेपर भी, प्रदेशभेद नहीं है; आत्माके एक परिणाममें सभी धर्मोंका परिणमन रहता है। इसलिये आत्माके एक ज्ञानमात्र भावके भीतर अनंत शक्तियाँ रहती हैं। इसलिये ज्ञानमात्र भावमें-ज्ञानमात्र भावस्वरूप आत्मामें-अनंत शक्तियाँ उछलती हैं।) उनमेंसे कितनी ही शक्तियाँ निम्नप्रकार हैं: आत्मद्रव्य के कारणभूत चैतन्यमात्र भावका धारण जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप है ऐसी जीवत्वशक्ति है। (आत्मद्रव्यके कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्रभावरूपी भावप्राणका धारण करना जिसका लक्षण है ऐसी जीवत्व नामक शक्ति ज्ञानमात्र भावमें-आत्मामें-उछलती है।) १। अजड़त्वस्वरूप चितिशक्ति। (अजड़त्व अर्थात् चेतनत्व जिसका स्वरूप है ऐसी चितिशक्ति।) २। अनाकार उपयोगमयी दृशिशक्ति। (जिसमें ज्ञेयरूप आकार अर्थात् विशेष नहीं है ऐसी दर्शनोपयोगमयी-सत्तामात्र पदार्थमें उपयुक्त होनेरूप-दृशिशक्ति अर्थात् दर्शनक्रियारूप शक्ति।) ३। साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति। (जो ज्ञेय पदार्थों के विशेषरूप आकारोंमें उपयुक्त होती है ऐसी ज्ञानोपयोगमयी ज्ञानशक्ति।) ४। अनाकुलता जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप है ऐसी सुखशक्ति। ५। स्वरूपकी (-आत्मस्वरूपकी) रचनाकी सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति। ६। जिसका प्रताप अखंडित है अर्थात् किसीसे खंडित की नहीं जा सकती ऐसी स्वातंत्र्यसे (-स्वाधीनतासे) शोभायमानपना जिसका लक्षण है ऐसी प्रभुत्वशक्ति। ७। सर्व भावोंमें व्यापक ऐसे एक भावरूप विभुत्वशक्ति। (जैसे, ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोंमें व्याप्त होता है।) ८। समस्त विश्वके सामान्य भावको देखनेरूप (अर्थात् सर्व पदार्थों के समूहरूप लोकालोकको सत्तामात्र ग्रहण करने रूपसे) परिणमित ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति। ९। समस्त विश्वके विशेष भावोंको जाननेरूपसे परिणमित ऐसे आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति। १०। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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