Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 631
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [परिशिष्टम्] ५९७ __ (अनुष्टुभ् ) एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम्। अलञ्चयं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः।। २६३ ।। नन्वनेकान्तमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षणप्रसिद्ध्या लक्ष्यप्रसिद्ध्यर्थम्। आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं, तदसाधारणगुणत्वात्। तेन ज्ञानप्रसिद्ध्या तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धः। ननु किमनया लक्षणप्रसिद्ध्या, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम्। नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धेः। ननु किं तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्ध्या ततो भिन्नं प्रसिध्यति ? 'पूर्वोक्त प्रकारसे वस्तुका स्वरूप अनेकांतमय होनेसे अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध हुआ' इस अर्थका काव्य अब कहा जाता है: श्लोकार्थ:- [ एवं ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकांत- [जैनम् अलङ्घयं शासनम् ] कि जो जिनदेवका अलंध्य (किसीसे तोड़ा न जाये ऐसा) शासन है वह[ तत्त्व-व्यवस्थित्वा] वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थिति ( व्यवस्था) द्वारा [ स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन् ] स्वयं अपने आपको स्थापित करता हुआ [ व्यवस्थितः ] स्थित हुआ-निश्चित हुआ-सिद्ध हुआ। भावार्थ:-अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद, वस्तुस्वरूपको यथावत् स्थापित करता हुआ, स्वतः सिद्ध हो गया। वह अनेकांत ही निर्बाध जिनमत है और यथार्थ वस्तुस्थितिको कहनेवाला है कहीं किसीके असत् कल्पनासे वचनमात्र प्रलाप नहीं किया है। इसलिये हे निपुण पुरुषो! भली भाँति विचारकरे प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाणसे अनुभव कर देखो। २६३। ( यहाँ आचार्यदेव अनेकांतके सम्बन्धमें विशेष चर्चा करते हैं:-) [प्रश्न:-] आत्मा अनेकांतमय है फिर भी यहाँ उसका ज्ञानमात्रता क्यों व्यपदेश ( कथन; नाम) किया जाता है ? ( यद्यपि आत्मा अनंत धर्मयुक्त है तथापि उसे ज्ञानमात्ररूप क्यों कहा जाता है ? ज्ञानमात्र कहनेसे तो अन्यधर्मोंका निषेध समझा जाता है।) [उत्तर:-] लक्षणकी प्रसिद्धिके द्वारा लक्ष्यकी प्रसिद्धि करने के लिये आत्माका ज्ञानमात्ररूपसे व्यपदेश किया जाता है। आत्माका ज्ञान लक्षण है, क्योंकि ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है ( -अन्य द्रव्योंमें ज्ञानगुण नहीं है)। इसलिये ज्ञानकी प्रसिद्धिके द्वारा उसके लक्ष्यकी-आत्माकी-प्रसिद्धि होती है। [प्रश्न:-] इस लक्षणकी प्रसिद्धिसे क्या प्रयोजन है ? मात्र लक्ष्य ही प्रसाध्य अर्थात् प्रसिद्ध करने योग्य है। (इसलिये लक्षणको प्रसिद्ध किये बिना मात्र लक्ष्यको ही-आत्माको ही-प्रसिद्ध क्यों नहीं करते ?] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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