Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 639
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [परिशिष्टम् ] ६०५ -विमलस्वभाव-भावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति। एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया नित्यमस्खलितैकवस्तुनो निष्कम्पपरिग्रहणात् तत्क्षण एव मुमुक्षूणामासंसारादलब्धभूमिकानामपि भवति भूमिकालाभः। ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रमप्रवृत्तानेकान्तमूर्तयः साधकभावसम्भव-परमप्रकर्षकोटिसिद्धिभावभाजनं भवन्ति । ये तु नेमामन्तींतानेकान्तज्ञानमात्रैकभावरूपां भूमिमुपलभन्ते ते नित्यमज्ञानिनो भवन्तो ज्ञानमात्रभावस्य स्वरूपेणाभवनं पररूपेण भवनं पश्यन्तो जानन्तोऽनुचरन्तश्च मिथ्यादृष्टयो मिथ्याज्ञानिनो मिथ्याचारित्राश्च विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्ध रूपसे परिणमता ऐसा एक ही ज्ञान परिणमता ऐसा एक ही ज्ञानमात्र उपायउपेयभाव सिद्ध करता है। भावार्थ:-यह आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रके कारण संसारमें भ्रमण करता है। वह सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी वृद्धिकी परंपरासे क्रमश: स्वरूपका अनुभव करता है तबसे ज्ञान साधक रूपसे परिणमित होता है, क्योंकि ज्ञानमें निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद अंतर्भूत हैं। निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी प्रारम्भसे लेकर स्वरूपानुभवकी वृद्धि करते करते जबतक निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णता न हो, तबतक ज्ञानका साधक रूपसे परिणमन है। जब निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णतासे समस्त कर्मोंका नाश होता है अर्थात् साक्षात् मोक्ष होता है तब ज्ञान सिद्ध रूपसे परिणमित होता है, क्योंकि उसका अस्खलित निर्मल स्वभावभाव प्रगट दैदीप्यमान हुआ है। इसप्रकार साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे-दोनों रूपसे परिणमित होता हुआ एक ही ज्ञान आत्मवस्तुकी उपाय-उपेयताको साधित करता है।) इसप्रकार दोनों में ( –उपाय तथा उपेयमें-) ज्ञानमात्रकी अनन्यता है अर्थात् अन्यपना नहीं है; इसलिये सदाय अस्खलित एक वस्तुका ( -ज्ञानमात्र आत्मवस्तुका) निष्कंप ग्रहण करनेसे, मुमुक्षुओंको कि जिन्हें अनादि संसारसे भूमिकाकी प्राप्ति न हुई हो उन्हें भी, तत्क्षण ही भूमिकाकी प्राप्ति होती है। फिर उसी में नित्य मस्ती करते हुए (लीन रहते हुए) वे मुमुक्षु-जो कि स्वतः ही, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक अंतकी (अनेक धर्मकी) मूर्तियाँ हैं वे-साधकभावसे उत्पन्न होनेवाली परम प्रकर्षकी *कोटिरूप सिद्धिभावके भाजन होते हैं। परंतु जिसमें अनेक अंत अर्थात् धर्म गर्भित हैं ऐसे एक ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे भूमिको जो प्राप्त नहीं करते, वे सदा अज्ञानी रहते हुए, ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे अभवन और पररूपसे भवन देखते (-श्रद्धा करते) हुए, जानते हुए तथा आचरण करते हुए, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री * कोटि = अंतिमता; उत्कृष्टता; ऊँचेमें ऊँचे बिंदु; हद Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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