Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 640
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ६०६ भवन्तोऽत्यन्तमुपायोपेयभ्रष्टा विभ्रमन्त्येव। (वसन्ततिलका) ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः। ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति।। २६६ ।। ( वसन्ततिलका) स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः। ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः।। २६७ ।। होते हुए, उपाय-उपेयभावसे अत्यंत भ्रष्ट होते हुए संसारमें परिभ्रमण ही करते हैं। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ये] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः] किसी भी प्रकारसे जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ , [ ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं] ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस–मय निश्चल भूमिकाका) [श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं, [ ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति] वे साधकत्वको प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [ तु] परंतु [ मूढाः ] जो मूढ़ ( –मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) है वे [ अमूम् अनुपलभ्य ] इस भूमिकाको न प्राप्त करके [ परिभ्रमन्ति ] संसारमें परिभ्रमण करते हैं। भावार्थ:-जो भव्य पुरुष, गुरुके उपदेशसे अथवा स्वयमेव काललब्धिको प्राप्त करके मिथ्यात्वसे रहित होकर, ज्ञानमात्र अपने स्वरूपको प्राप्त करते हैं, उसका आश्रय लेते हैं, वे साधक होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परंतु जो ज्ञानमात्र निजको प्राप्त नहीं करते, वे संसारमें परिभ्रमण करते हैं। २६६। इस भूमिका का आश्रय करनेवाला जीव कैसा होता है सो अब कहते हैं: श्लोकार्थ:- [यः] जो पुरुष [ स्याद्वाद-कौशल-सुनिश्चल-संयमाभ्यां] स्याद्- वादमें प्रवीणता तथा ( रागादिक अशुद्ध परिणतिके त्यागरूप) सुनिश्चल संयम-इन दोनोंके द्वारा [ इह उपयुक्तः] अपने में उपयुक्त रहता हुआ ( अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोगको लगाता हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है ( –निरंतर अपने आत्माकी भावना करता है), [ सः एकः] वही एक Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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