Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 629
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ परिशिष्टम् ] ( शार्दूलविक्रीडित ) प्रादुर्भावविराममुद्रितवहज्ज्ञानांशनानात्मना निर्ज्ञानात्क्षणभङ्गसङ्गपतितः प्रायः पशुर्नश्यति । स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टङ्कोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति ।। २६० ।। ( शार्दूलविक्रीडित ) टङ्कोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किञ्चन। ज्ञान नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात्।। २६१ ।। इसप्रकार परभाव - अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है । २५९ । ( अब तेरहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:- ) श्लोकार्थ :- [ पशुः ] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [ प्रादुर्भाव -विराममुद्रित-वहत् - ज्ञान - अंश - नाना - आत्मना निर्ज्ञानात् ] उत्पाद - व्ययसे लक्षित ऐसे बहते (-परिणमित होते) हुए ज्ञानके अंशरूप अनेकात्मकके द्वारा ही ( आत्माका) निर्णय अर्थात् ज्ञान करता हुआ, [ क्षणभङ्ग - सङ्ग - पतितः ] * क्षणभंगके ( क्षण-क्षण होता हुआ नाश; क्षणभंगुरता; अनित्यता) संगमें पड़ा हुआ, [ प्रायः नश्यति ] बहुलतासे नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु ] और स्यादवादी तो [ चिद् - आत्मना चिद्-वस्तु नित्यउदितं परिमृशन्] चैतन्यात्मकताके द्वारा चैतन्यवस्तुको नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टङ्कोत्कीर्ण-घन - स्वभाव - महिम ज्ञानं भवन् ] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव ) जिसकी महिमा है ऐसे ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [ जीवति ] जीता है। ५९५ भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञेयोंके आकार अनुसार ज्ञानको उत्पन्न और नष्ट होता हुआ देखकर, अनित्य पर्यायोंके द्वारा आत्माको सर्वथा अनित्य मानता हुआ, अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी तो, यद्यपि ज्ञान ज्ञेयानुसार उत्पन्न- विनष्ट होता है फिर भी, चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभवकरता हुआ जीता है-नाशको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार नित्यत्वका भंग कहा है । २६० । ( अब चौदहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं: - ) श्लोकार्थ :- [ पशुः ] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [ टङ्कोत्कीर्ण-विशुद्धबोध-विसर - आकार- आत्म-तत्त्व - आशया ] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानके विस्ताररूप एक आकार (सर्वथा नित्य ) आत्मतत्त्वकी आशासे, [ उच्छलत् -अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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