Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 594
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५६० न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना ब्रुवन्ति।। ३९५ ।। स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्श जिना ब्रुवन्ति।। ३९६ ।। कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९७ ।। धर्मो ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९८ ।। ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९९ ।। [ रसः तु ज्ञानं न भवति] रस ज्ञान नहीं है [ यस्मात् तु] क्योंकि [ रसः किञ्चित् न जानाति ] रस कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है [ रसं च अन्यं ] और रस अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [स्पर्श: ज्ञानं न भवति] स्पर्श ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ स्पर्श: किञ्चित् न जानाति ] स्पर्श कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ स्पर्श अन्यं ] स्पर्श अन्य है- [ जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [ कर्म ज्ञानं न भवति ] कर्म ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ कर्म किञ्चित् न जानाति] कर्म कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ कर्म अन्यत् ] कर्म अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [धर्म: ज्ञानं न भवति] धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [धर्म: किञ्चित् न जानाति ] धर्म कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [धर्म अन्यं] धर्म अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं[ अधर्मः ज्ञानं न भवति] अधर्म ( अर्थात् अधर्मास्तिकाय) ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ अधर्म: किञ्चित् न जानाति ] अधर्म कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ अधर्म अन्यम् ] अधर्म अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664