Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 622
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५८८ (शार्दूलविक्रीडित) बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लसज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुट्यन्पशुर्नश्यति। एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित्।। २५० ।। [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने तत्त्वका स्पर्श –अनुभव करता है। भावार्थ:-एकांतवादी यह मानता है कि-विश्व (-समस्त वस्तुएँ ) ज्ञानरूप अर्थात् निजरूप है। इसप्रकार निजको और विश्वको अभिन्न मानकर, अपनेको विश्वमय मानकर, एकांतवादी, पशु की भाँति हेय-उपादेयके विवेक बिना सर्वत्र स्वच्छंदतया प्रवृत्ति करता है। स्याद्वादी तो यह मानता है कि-जो वस्तु अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, वही वस्तु परके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है; इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, परंतु पर ज्ञेयोंके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकाररूप होने पर भी उनसे भिन्न है। इसप्रकार पररूपसे अतत्पनेका भंग कहा है। २४९ । ( अब तीसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-) श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ बाह्य-अर्थग्रहण-स्वभाव-भरत:] बाह्य पदार्थों को ग्रहण करके (ज्ञानके) स्वभावकी अतिशयता के कारण, [ विष्वग-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्ति: ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण (छिन्न-भिन्न) हो गई है ऐसा होकर ( अर्थात् अनेक ज्ञेयोंके आकारों के ज्ञान में ज्ञात होनेपर ज्ञानकी शक्तिको छिन्नभिन्न-खंड-खंडरूप हो गई मानकर) [ अभितः त्रट्यन] सम्पर्णतया खंड-खंड होता हुआ ( अर्थात् खंडखंडरूप-अनेकरूप होता हुआ) [ नश्यति] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित् ] और अनेकांतका जानकर तो, [ सदा अपि उदितया एक-द्रव्यतया ] सदा उदित ( –प्रकाशमान) एक द्रव्यत्वके कारण [ भेदभ्रमं ध्वंसन् ] भेदके भ्रमको नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें सर्वथा भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [ एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक है ( - सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञानको [ पश्यति] देखता है-अनुभव करता है। भावार्थ:-ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है, इसलिये सर्वथा एकांतवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक-खंडखंडरूप-देखता हुआ ज्ञानमय ऐसा निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होनेपर भी, सदा उदयमान द्रव्यतत्वके द्वारा एक देखता है। इसप्रकार एकत्वका भंग कहा है । २५० । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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