Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 619
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ परिशिष्टम् ] ५८५ यदा परक्षेत्रगतज्ञेयार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वक्षेत्रेणास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ७। यदा तु स्वक्षेत्रे भवनाय परक्षेत्रगतज्ञेयाकारत्यागेन ज्ञानं तुच्छीकुर्वन्नात्मानं नाशयति, तदा स्वक्षेत्र एव ज्ञानस्य परक्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावत्वात्परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ८ । यदा पूर्वालम्बितार्थविनाशकाले ज्ञानस्यासत्त्वं प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वकालेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ९ । यदा त्वर्थालम्बनकाल एव ज्ञानस्य सत्त्वं प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परकालेनासत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १० । यदा ज्ञायमानपरभावपरिणमनात् ज्ञायकभावं परभावत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति तदा स्वभावेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति १९ । यदा तु सर्वे भावा अहमेवेति परभावं ज्ञायकभावत्वेन जब यह ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत ( - परक्षेत्रमें रहे हुए ) ज्ञेय पदार्थोंके परिणमनके कारण परक्षेत्रसे ज्ञानको सत् मानकर - अंगीकार करके नाश को प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) स्व- क्षेत्रसे अस्तित्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है- नष्ट नहीं होने देता । ७। और जब वह ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रमें होनेके लिये ( - रहने के लिये, परिणमनेके लिये ) परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकारोंके त्याग द्वारा (अर्थात् ज्ञानमें जो परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंका आकार आता है उनका त्याग करके) ज्ञानको तुच्छ करता हुआ अपना नाश करता है, तब स्वक्षेत्रमें रहकर ही परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकाररूपसे परिणमन करने का ज्ञानका स्वभाव होनेसे ( उस ज्ञानमात्र भावका ) परक्षेत्रसे नास्तित्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे नाश नहीं करने देता । ८ । जब यह ज्ञानमात्र भाव पूर्वालंबित पदार्थोंके विनाशकालमें ( - पूर्व में जिनका आलंबन किया था ऐसे ज्ञेय पदार्थोंके विनाश के समय ) ज्ञानका असत्पना मानकरअंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) स्वकालसे (ज्ञानके कालसे) सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है - न - नष्ट नहीं होने देता। ९। और जब वह ज्ञानमात्र भाव पदार्थोंके आलंबनकालमें ही ( - मात्र ज्ञेय पदार्थों को जानते समय ही ) ज्ञानका सत्पना मानकर - अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका ) परकालसे ( - ज्ञेयके कालसे) असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता । १० । और जब वह ज्ञानमात्र भाव, जानने में आते हुए परभावोंके परिणमनके कारण ज्ञायकस्वभावको परभावरूपसे मानकर - अंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका ) स्व-भावसे सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है - नष्ट नहीं होने देता । ११ । और जब वह ज्ञानमात्र भाव ' सर्व भाव मैं ही हूँ' इसप्रकार परभावको ज्ञायकभावरूपसे मानकर - अंगीकार Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664