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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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_ ( शार्दूलविक्रीडित) माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः। ऊर्ध्वम् तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम्।। २०५ ।।
की विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको यथार्थ मानना है। आत्माके कर्तृत्वअकर्तृत्वके सम्बन्धमें सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण इसप्रकार है:
आत्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है; परंतु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते समय, अनादि कालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानके अभावके कारण, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको आत्माके रूप में जानता है, इसलिये इसप्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे कर्ता है; और जब भेदविज्ञान होनेसे आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता है तब विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणाममें ही परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे साक्षात् अकर्ता है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ अमी आर्हताः अपि यह आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी [पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव] सांख्यमतियोंकी भाँति, [ अकर्तारम् मा स्पृशन्तु] ( सर्वथा) अकता मत मानो; | भेद-अवबोधात् अधः | भेदज्ञान होनेसे पर्व | तं किल | उसे [ सदा] निरन्तर [ कर्तारम् कलयन्तु] कर्ता मानो, [ तु] और [ ऊर्ध्वम् ] भेदज्ञान होनेके बाद [ उद्धत-बोध-धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत ज्ञानधाम में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको [च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम् ] कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही [ पश्यन्तु] देखो।
भावार्थ:-सांख्यमतावलम्बी पुरुषको सर्वथा एकांतसे अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र मानते हैं। ऐसा माननेसे पुरुषको संसारके अभावका प्रसंग आता है; और यदि प्रकृतिको संसार माना जाये तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है, उसे सुखदुःख आदिका संवेदन नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकांत मान्यतामें आते हैं। सर्वथा एकांत वस्तुका स्वरूप ही नहीं है। इसलिये सांख्यमती मिथ्यादृष्टि है; और यदि जैन भी ऐसा मानें तो वे भी मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि-सांख्यमतियोंकी भाँति जैन आत्माको सर्वथा अकर्ता न मानें; जबतक स्वपरका भेदविज्ञान न हो तबतक तो उसे रागादिका-अपने चेतनरूप भावकर्मोंका-कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होनेके बाद शुद्ध विज्ञानघन ,
* ज्ञानधाम = ज्ञानमंदिर; ज्ञानप्रकाश।
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