Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 584
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५५० नाहं कर्कशस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९५। नाहं मधुररसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९६ । नाहमाम्लरसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९७। नाहं तिक्तरसनामकर्मफलं मुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९८। नाहं कटुकरसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९९। नाहं कषायरसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १००। नाहं सुरभिगन्धनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०१। नाहमसुरभिगन्धनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०२। नाहं शुक्लवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०३। नाहं रक्तवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०४। नाहं पीतवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०५। नाहं हरितवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०६। नाहं कृष्णवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०७। नाहं नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०८। नाहं तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०९। मैं कर्कशस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९५। मैं मधुररसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९६। मैं आम्लरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९७। मैं तिक्तरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९८। मैं कटुकरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९९। मैं कषायरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १००। मैं सुरभिगंधनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०१। मैं असुरभिगंधनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०२। मैं शुक्लवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०३। मैं रक्तवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०४। मैं पीतवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०५। मैं हरितवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०६। मैं कृष्णवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०७। मैं नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०८। मैं तिर्यंचगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०९ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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