Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 586
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५५२ नाहं सुभगनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२५। नाहं दुर्भगनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२६। नाहं सुस्वरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२७। नाहं दुःस्वरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२८ । नाहं शुभनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२९। नाहमशुभनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३०। नाहं सूक्ष्मशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३१। नाहं बादरशरीरनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३२। नाहं पर्याप्तनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३३। नाहमपर्याप्तनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३४। नाहं स्थिरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३५। नाहमस्थिरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३६। नाहमादेयनामकर्मफलं चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३७। नाहमनादेयनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३८। नाहं यशःकीर्तिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३९। नाहमयश:कीर्तिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४०। नाहं तीर्थकरत्वनामकर्मफलं भुजे, भुजे, मैं सुभगनामकर्मके । १२५। मैं दुर्भगनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२६। मैं सुस्वरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२७। मैं दुःस्वरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२८। मैं शुभनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२९ । मैं अशुभनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३०। मैं सूक्ष्मशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३१। मैं बादरशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३२। मैं पर्याप्तनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३३। मैं अपर्याप्तनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३४। मैं स्थिरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३५। मैं अस्थिरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३६। मैं आदेयनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३७। मैं अनादेयनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३८ । मैह यश:कीर्तिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३९। मैं अयशःकीर्तिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४०। मैं तीर्थंकरनामकर्मके फलको नहीं Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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