Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 585
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५५१ नाहं मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११०। नाहं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १११। नाहं निर्माणनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११२। नाहमगुरुलघुनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११३ । नाहमुपघातनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११४। नाहं परघातनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११५ । नाहमातपनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११६ । नाहमुद्योतनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११७। नाहमुच्छ्रासनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११८। नाहं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं भुञ्चे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११९ । नाहमप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२० । नाहं साधारणशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२१। नाहं प्रत्येकशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२२। नाहं स्थावरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२३ । नाहं त्रसनामकर्मफलं भुञ्ज , चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२४।। मैं मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११०। मैं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १११। मैं निर्माणनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११२। मैं अगुरुलघुनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११३। मैं उपघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११४। मैं परघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११५। मैं आतपनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११६। मैं उद्योतनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११७। मैं उच्छवासनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११८। मैं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११९। मैं अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ मैं साधारणशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२१। मैं प्रत्येकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२२। मैं स्थावरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२३। मैं त्रसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२४। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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