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समयसार
४९२
( रथोद्धता) वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्। निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य क: किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि।। २१३ ।।
(आचार्यदेव कहते हैं कि-) [ इह ] ऐसा होने पर भी, [ मोहितः] मोहित जीव, [ स्वभाव-चलन-आकुल: ] अपने स्वभावसे चलित होकर आकुल हता हुआ, [ किम् क्लिश्यते ] क्यों क्लेश पाता है ?
भावार्थ:-वस्तुस्वभाव तो नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तु में कोई वस्तु नहीं मिलती। ऐसा होने पर भी, मोही प्राणी, 'परज्ञेयोंके साथ अपने पारमार्थिक संबंध है' ऐसा मानकर, क्लेश पाता है, वह महा अज्ञान है। २१२।
पुनः आगेकी गाथाओंका सूचक दूसा काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ इह च ] इस लोकमें [ येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न ] एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, [ तेन खलु वस्तु तत् वस्तु] इसलिये वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है- [अयम् निश्चयः ] यह निश्चय है। [क: अपर: ] ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु [ अपरस्य बहि: लुठन् अपि हि] अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुए भी [ किं करोति ] उसका क्या कर सकती है ?
भावार्थ:-वस्तुस्वभाव तो ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं बदला सकती। यदि ऐसा न हो तो वस्तुका वस्तुत्व ही न रहे। इसप्रकार जहाँ एक वस्तु अन्यको परिणमित नहीं कर सकती वहाँ एक वस्तुने अन्यका क्या किया ? कुछ नहीं। चेतन-वस्तुके साथ पुद्गल एकक्षेत्रावगाहरूपसे रह रहे हैं तथापि वे चेतनको जड़ बनाकर अपनेरूपमें परिणमित नहीं कर सके; तब फिर पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं।
इससे यह समझना चाहिये कि-व्यवहारसे परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेयज्ञायक संबंध होने पर भी परद्रव्य ज्ञायकका कुछ भी नहीं कर सकते और ज्ञायक परद्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता। २१३।
अब, इसी अर्थको दृढ़ करनेवाला तीसरा काव्य कहते हैं:
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