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समयसार
१२४
( वसंततिलका) जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम्। अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोऽयं
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति।।४३ ।। नानट्यतां तथापि
(वसन्ततिलका) अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः। रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।। ४४ ।।
श्लोकार्थ:- [इति लक्षणतः ] यों पूर्वोक्त भिन्न लक्षणके कारण [ जीवात् अजीवम् विभिन्नं] जीवसे अजीव भिन्न है [ स्वयम् उल्लसन्तम् ] उसे (अजीवको) अपने आप ही ( -स्वतंत्रपने, जीवसे भिन्नपने) विलसित होता हुआ-परिणमित होता हुआ [ ज्ञानी जनः] ज्ञानीजन [अनुभवति] अनुभव करते हैं, [ तत् ] तथापि [अज्ञानिनः ] अज्ञानीको [ निरवधि-प्रविजृम्भित: अयं मोह: तु] अमर्यादरूपसे फैला हुआ यह मोह (अर्थात् स्वपरके एकत्वकी भ्रान्ति) [ कथम् नानटीति] क्यों नाचता है - [अहो बत] यह हमें महा आश्चर्य और खेद है!। ४३।
अब पुनः मोहका प्रतिषेध करते हुए कहते हैं कि यदि मोह नाचता है तो नाचो ? तथापि ऐसा ही है ':
श्लोकार्थ:- [अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक-नाटये] इस अनादि कालीन महा अविवेकके नाटकमें अथवा नाचमें [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति] वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, [न अन्यः ] अन्य कोई नहीं; ( अभेद ज्ञानमें पुद्गल ही अनेक प्रकारका दिखाई देता है, जीव अनेक प्रकारका नहीं है; [च] और [अयं जीवः ] यह जीव तो [ रागादि-पुद्गल-विकार-विरुद्ध-शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः] रागादिक पुद्गल-विकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है।
भावार्थ:-रागादि चिद्विकारको (-चैतन्यविकारोंको) देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही है, क्योंकि चैतन्यकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त हों तो चैतन्यके कहलायें। रागादि विकार सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त नहीं होते-मोक्षअवस्थामेंउनका अभाव है। और उनका अनभव भी आकलतामय दःखरूप है। इसलिये वे चेतन नहीं, जड़ हैं। चैतन्यका अनुभव निराकुल है, वही जीवका स्वभाव है ऐसा जानना ।४४।
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