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पूर्वरंग
यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तव्यपदेशेन व्यपदेशः, कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात; तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य स्तवनात्।
कथं शरीरस्तवनेन तदधिष्ठातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यत इति चेत्
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।।३० ।।
नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति।
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवन्ति।।३० ।। तथा हि
टीका:- जैसे चांदीका गुण जो सफेदपना, उसका सुवर्णमें अभाव है इसलिये निश्चयसे सफेदीके नामसे सोनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुण जो पीलापन आदि हैं उनके नामसे ही सुवर्णका नाम होता है; इसीप्रकार शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं, उनका तीर्थंकरकेवलीपुरुषमें अभाव है इसलिये निश्चयसे शरीरके शुक्लरक्तता आदि गुणोंका स्तवन करनेसे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता है, तीर्थंकर-केवलीपुरुषके गुणोंका स्तवन करनेसे ही तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन होता है।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि आत्मा तो शरीरका अधिष्ठाता है इसलिये शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन निश्चयसे क्यों युक्त नहीं है ? उसके उत्तररूप दृष्टांत सहित गाथा कहते हैं :---
रे ग्राम वर्णन करनेसे, भूपाल वर्णन हो न ज्यों। त्यों देह गुणके स्तवन से , नहि केवलीगुण स्तवन हो।।३०।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ नगरे ] नगरका [ वर्णिते अपि] वर्णन करने पर भी [ राज्ञः वर्णना] राजाका वर्णन [न कृता भवति] नहीं किया जाता, इसीप्रकार [ देहगुणे स्तूयमाने ] शरीरके गुणका स्तवन करनेपर [ केवलिगुणाः ] केवलीके गुणोंका [ स्तुताः न भवन्ति ] स्तवन नहीं होता।
टीका:- उपरोक्त अर्थका काव्य कहते हैं :--
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