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समयसार
( शार्दूभविक्रीडित )
कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये। दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।। २४ ।। -इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यमिति ममैकान्तिकी प्रतिपत्तिः । नैवं, नयविभागानभिज्ञोऽसि---
ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ।। २७ ।।
व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः ।
न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः ।। २७ ।।
श्लोकार्थ:- [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः ] वे तीर्थंकर और आचार्य वंदनीय हैं। कैसे हैं वे ? [ये कान्त्या एव दशदिश: स्नपयन्ति ] अपने शरीरकी कान्तिसे दसों दिशाओंको धोते हैं-निर्मल करते हैं, [ ये धाम्ना उद्दाम - महस्विनां धाम निरुन्धन्ति ] अपने तेजसे उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिके तेजको ढक देते हैं, [ ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति ] अपने रूपसे लोगोंके मनको हर लते हैं, [ दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः] दिव्यध्वनिसे ( भव्योंके ) कानोंमें साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [ अष्टसहस्रलक्षणधरा: ] एक हजार आठ लक्षणोंके धारक है ।। २४।।
- ईत्यादिरूपसे तीर्थंकरों - आचार्योंकी जो स्तुति है वह सबही मिथ्या सिद्ध होती है। इसलिये हमारा तो यही एकांत निश्चय है कि जो आत्मा है वही शरीर है, पुद्गलद्रव्य है। इस प्रकार अप्रतिबुद्धने कहा ।
आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है; तू नयविभागको नहीं जानता। जो नयविभाग इस प्रकार है उसे गाथा द्वारा कहते हैं:--
जीव-देह दोनों एक हैं, यह वचन है व्यवहार का । निश्चयविषै तो जीव देह, कदापि एक पदार्थ ना ।। २७ ।।
गाथार्थ:- [ व्यवहारनयः ] व्यवहारनय तो [ भाषते ] यह कहता है कि [ जीवः देह: च ] जीव और शरीर [ एकः खलु ] एक ही [ भवति ] है; [तु] किन्तु [निश्चयस्य ] निश्चयनय अभिप्रायसे [ जीव: देह: च ] जीव और शरीर [ कदा अपि ] कभी भी [ एकार्थः] एक पदार्थ [ न ] नहीं हैं।
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