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समयसार
(पृथ्वी) अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहिमहः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।। १४ ।।
(अनुष्टुभ् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः। साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम्।। १५ ।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- आचार्य कहते हैं कि [ परमम् महः नः अस्तु ] हमें वह उत्कृष्ट तेज-प्रकाश प्राप्त हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं] कि जो तेज सदाकाल चैतन्यके परिणमनसे परिपूर्ण है, [ उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम् ] जैसे नमककी डली एक क्षाररसकी लीलाका आलंबन करती है; उसीप्रकार जो तेज [ एक-रसम् आलम्बते] एक ज्ञानरस-स्वरूपका आलंबन करता है; [ अखण्डितम् ] जो तेज अखंडित है-जो ज्ञेयोंके आकाररूप खंडित नहीं होता, [ अनाकुलं] जो अनाकुल है-जिसमें कर्मों के निमित्तसे होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है, [अनन्तम् अन्तः बहि: ज्वलत् ] जो अविनाशीरूपसे अंतरङ्गमें और बाहरमें प्रगट देदीप्यमान हैजाननेमें आता है, [ सहजम् ] जो स्वभावसे हुआ है-जिसे किसी ने नहीं रचा और [ सदा उद्विलासं] सदा जिसका विलास उदयरूप है-जो एकरूप प्रतिभासमान है।
भावार्थ:- आचार्यदेवने प्रार्थना की है कि यह ज्ञानानंदमय एकाकार स्वरूपज्योति हमें सदा प्राप्त रहो।। १४ ।।
अब, आगेकी गाथाका सूचनारूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ एषः ज्ञानघनः आत्मा] यह (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा, [ सिद्धिम् अभीप्सुभिः] स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको [ साध्यसाधकभावेन ] साध्यसाधकभावके भेदसे [ द्विधा] दो प्रकारसे, [एक:] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम् ] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका सेवन करो।
भावार्थ:- आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ही है परंतु उसका पूर्णरूप साध्यभाव है और अपूर्णरूप साधकभाव है; ऐसे भावभेदसे दो प्रकारसे एकका ही सेवन करना चाहिये।। १५।।
अब, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभाव है यह इस गाथामें कहते हैं:
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