Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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“तू सदा अजेय बनेगा" बस उसी समयसे मुनिवरजीको प्रतिदिन १००० श्लोक कंठस्थ करनेकी दिव्य शक्ति प्राप्त हुई और वो सर्वशास्त्र पारंगत बनकर श्री जिनशासनके प्रभावक कार्य करनेमें माँ की कृपासे समर्थ बने और इन्हीं माँकी कृपासे कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी यशोविजयजी, कवि कालिदासजी, श्रीहर्ष-माघ-भारवि आदि पंडितवर्य श्रेष्ठ रूपसे विद्या के क्षेत्रमें प्रसिद्ध हुए है।
कहनेका मतलब एक ही है कि उन महापुरुष जैसे बहुत बड़े सत्त्वशाली-पराक्रमी या विद्यापुरुष हम न बन सकें लेकिन माँकी अमी नजर कृपा किरण जाने-अनजाने-प्रत्यक्ष या परोक्षमें मिल जाये तब भी हमारा जीवन उन्नति के पथ पर सरलतासे प्रगतिकारक बने। उन महाजनोकी तरह माँ के कृपापात्र बनने के लिये माँ के चरणकी सेवा-भक्ति उपासना दिल लगाकर करना अति आवश्यक है और जीवनमें शील-सत्य-सादगी तप-जपकरना भी उतना हि आवश्यक है।
सरस्वतीजीकासम्बन्ध कब से?
धरती पर जन्म लेने के साथ ही बच्चे जब रूदन करते हैं तब एँ एँ एँ ऐसा रूदन करते है। अपनी वेदना व्यक्त करने के लिये वाणी की सहाय लेने का प्रयास करते है, किन्तु वैसा नहीं है अपि तु वो बच्चे ऐं बीज मन्त्रके स्वरुपवाली माँ को रूदनद्वारा शायद बुलाते हैं कि हे एँ एँएँ स्वरुपा माँ! तू मेरी पीडा-वेदना-क्षुधादिमनके भावमरी साक्षात् माँ को ज्ञात कर ताकि वो मुझे शांत करने केलिए प्रयास करें और न जाने तब ऐसा ही कुछ होता है कि अपनी साक्षात् माँ अपना सब कुछ कार्य छोडकर बच्चेके पास जाकर शान्त करती है इसलिये जन्म पाकर ही मनुष्यका सर्वप्रथम सम्बन्ध सरस्वतीजी का ही होता है लेकिन बडे होते ही श्री लक्ष्मीजीके सम्बन्धमें बहुत प्रकारसे रहते रहते अपना निजी मूल्य खो देता है।
अमरिका नासा संस्थाने बाराक्षरीके प्रत्येक अक्षरका भिन्न भिन्न मौलिक अर्थघटन विद्वानोंद्वारा तन्त्र शैलीसे पेश किया है उसमें ऐं बीजका अर्थघटन ऐसा कुछ किया है वैसा परम्परासे कर्णगोचर हुआ है।
___जीवन अनेकविध चित्र-विचित्र इच्छाओ संयोगों और घटनाओसे संबंधित है सामान्यतया सर्वत्र जीवको धन-सम्पत्तिका मूल्य सर्वाधिक रहता है किंतु उसकी पूर्ति प्रसन्न देव देवीकी कृपासे ही होती है । मन्त्रजापसे कार्य सिद्धि शीघ्रतासे होती है लेकिन मन्त्रमार्गकी यथार्थ जानकारी के बिना संभवत: बहुलतया अनर्थ भी होते रहते है।
मन्त्रों की गूढ बातें.... मन्त्र निश्चित नियमसे सुस्थित होते हैं, निश्चित तरीके से उच्चारणीय पदों की सुस्थित योजना होती है, प्रत्येक बीज मन्त्र या मन्त्र पदोसे निशित प्रकार के आंदोलन उत्पन्न होते हैं, आंदोलन भी
तत् तत् निश्चित प्रकारके वर्ण-आकृति-गंधवाले होते है और देहमें वे आंदोलन निश्चित स्थानमें से ही उत्पन्न होते हैं जो उस जगह पर अपना स्वामित्व धारण करते हैं। मन्त्रो के स्वर हस्व-दीर्घ-प्लुत जैसे भी उच्चारण करने का बताया गया है वैसे करनेसें देह शुद्धि हृदय शुद्धि-नाडीशुद्धि एवं तत्त्व शुद्धि क्रमश: होने लगती है, आगे बढ़कर प्राणकी गतिको नियमित करके मनको स्थिर बनाता है, उसी मनसे ही वो शक्ति दृढ बनकर साधक को एकाग्र लयलीन अवस्थामें अधिक स्थिर करता है, तत्पश्चात् शुद्ध मन्त्रके रूप-गंधआकारोमें मन्त्रदेवता पधारकर भक्तकी मनोवांछा पूर्ण करता है।
पुन: पुन: मन्त्रके रटनसे मतलब याने गुह्य कथन कहकर अपने स्थूल स्वरूप को छोडकर निःसीम स्वरूपका दर्शन कराते है, एवं दर्शन श्रद्धा दृढतर बनते बनते साधक को संकल्प-विकल्पोमें से मुक्त बनाकर निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति कराने में समर्थ बनते है इसलिये मन्त्र सिद्धि करनेमें अनुभूत गुरु, शारीरिक-मानसिक बल धैर्य और श्रद्धाकी अति आवश्यकता रहती है।
मन्त्रदेवता प्रत्यक्ष कब बनें ?
कैवल्यके द्वार कैसे मिलें?
मन्त्र सिद्धिमें आम्नाय (गुरु परम्परा) और विश्वास बाहुल्प ये दोनो महत्त्व के सहकारी हेतु है। उसमें भी गुरु-मन्त्र-देवता प्राण
और आत्मा ये सब एकी-भावमें स्थित रहते है तब मन्त्र देवता शीघ्रतासे प्रत्यक्ष होता है उसके आलंबन मातृकाक्षर (असे ह तक) है। उनका ज्ञानशक्तिके साथ गहरा सम्बन्ध है। मातृका वाणी चार प्रकारकी है। १) वैखरी २) मध्यमा ३) पश्यन्ती ४) परा १) मुखसे उच्चारण की जाती वाणी सो वैखरी, २) हृदयगत वाणी सोते वर्णो वे मध्यमा, ३) नाभिगत सूक्ष्मस्वरूपा वाणी सो पश्यन्ती और ४) जहां केवलज्ञानका जाज्वल्यमान सूर्य के प्रकाश जैसा आत्मतेज है वह परा।
परावाणीका उपादान पश्यन्ती, पश्यन्तीके कारण दूसरी मध्यमावाणी और वैखरीवाणीसे ही मध्यमा तक साधक पहुँच सकता है, वैखरी की प्रदाता श्री सरस्वती देवी है। अत: सरस्वती माँ क्रमश: साधक को कैवल्यके द्वार तक पहुंचाती है।
आजके विषमकालमें जिसका देह-मनोबल सामर्थ्यपूर्ण न हो, विशिष्ट सत्त्व न हो उसको अधिक आगे बढना ठीक नहीं है, पूर्व के पुण्योदय से ही देव-देवताओका दर्शन साधकको साधने मिलता है, प्रारब्ध और पुरुषार्थसे मन्त्रदेव सिद्ध होता है। हाँ कभी किसी जगह पर मन्त्र सिद्ध नहीं होता हो ऐसा लगे तब दो-तीन बार विशेष शुद्धि से साधना करना, फिर भी सिद्ध न हो तो वे सब मन्त्र साधन छोड देना चाहिये। इस विषयमें एक बात मैं पूरी स्पष्टतासें निवेदन करना चाहता हूँ कि जिसको अध्यात्म उन्नति या परमश्रेयः
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