Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai

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Page 194
________________ २२. ऊर्ध्व स्फुरायमान वाग्बीज (ऐ) तुम्हारे समान विशाल बिन्दु की चारो तरफ मायाबीज का तीन आवेष्टन करके अर्थात् मायाबीज से तीन बार आवेष्टित तुम्हारे समान चमकते ऎकार का जो (साधक) चंद्र के पूर्णबिम्ब में अमृत समान गौर अक्षर से आलेखित करके, कर्ण द्वारा न सुना जा सकें - इस तरह स्थिर जिह्वा से स्मरण करता २१. - उसका (साधक का) चित्त दीर्घकालीन जडता के कारण (यदि) विकार से भरा हुआ हो तभी वह तेरे करुणाकटाक्ष की कली मात्र के संक्रान्त होते ही शान्त हो जाता है। वैसा होते ही उस के मुखकमल में तीनों लोक को विस्मित करनेवाली सुगंध वाणी के विलास द्वारा उत्पन्न होती है। हे अम्बिके ! तेरा वर्णमय शरीर कैसा है ? अ-मस्तक, ओ-उपर का होठ, त वर्ग-बायाँ चरण, आ-मुख, औ-नीचे का होठ, प-फ-दो कुक्षि, इई-दो नेत्र, अं-जिह्वामूल, य-र-ल-वउ ऊ-दो कान, अ:-गरदन, श-ष-स-सातधातु, ए- उपरके दांत, क वर्ग-दायी भुजा, ह-वायु ऐ-नीचे के दांत, च वर्ग-बायी भुजा, क्ष-क्रोध । ट वर्ग-दाया चरण, २३,२४. हे शिवे ! इस प्रकार तीनों लोक व्यापी तेरे वर्णमय शरीर को जो (साधक) भावना द्वारा अवयवों में आरोपित अक्षरों द्वारा भजता है, उस (साधक) के मस्तक पर, सूर्यास्तकालीन निमीलित पद्मदल समान अपनी हथेलियों को धर के, प्रसाद देने के लिए उत्सुक सभी विद्याएँ प्रकट होकर उस (साधक) की सेवा करती हैं। २५. जो (साधक) इस तरह तुझे (अर्थात् तेरे वर्णमय शरीर को) जानता है, जप करता है और निरंतर पूर्ण ध्यान करता है, कोमल पदविन्यासवाली वाणी का विलास उस (साधक) की उपासना करता है, एवं-चंदन समान शीतल उसकी कीर्ति कार्तिकमास की रात्रिमें खीले हएकैरव की तरह शुभ्र, चमकती हुई वसौभाग्यशोभा के बढाती हुई तीनों लोकमें क्रीडा करती हुई विचरण करती है।२६. यहाँ तक कि श्री कर्मचक्र के कहने के मताबिक माया के रूपी जल विदर्भित करके उपर कीरीत-अनुसार दीपाम्नाय के वेत्ताएँ जाप करते है उसके चरणों की सेवा मुकुट की कीनारी पर जडित रत्नरूप अंकुरा की कांति से चमकती पृथ्वीतल की रज से जिसके अंगराग की शोभा मिश्रित हुई है, ऐसे राजा भी करते है। अर्थात् राजाएँ भी उसके चरण में साष्टांग प्रणाम करते है। २७. हे अंबे, प्रथम श्री बाद में असे स तक वर्ण है। अंत में स, बाद में श्री इस तरह से तेरे वर्णमय शरीर को जो जपते है । लक्ष्मी उसे आगे, राते उजागर करते है और मदमत्त हाथी की मदझरती गंध की लहरो में लोलुप भ्रमर की श्रेणिरूप शृंखला से बंधी न हो ऐसे कही भी खिसकती नही। २८. जो साधक पखाल का द्रव और लाल चमकती हुई बीजली जैसा रंग से खुद को वेष्टित करने के लिए तीन वलय से युक्त माया बीजरूप (ह्रीं) में तुझे ध्यान धरता है। उसके लिए वह-वह स्त्रीयाँ निश्वास चक्कर-पसीना-दाह आदि में फंसी हुई मुर्छित हो जाती है और शीतल चंद्र-चंदन कदलीवन-मोती के हार, फूलों की माला को भी निंदित करता है। अर्थात् वह कामाग्नि से ऐसी संतृप्त होती है कि कोई शीतल पदार्थ भी इतनी शांति नहीं दे सकता। २९. हे माँ, भगमालिनी ऐसे नामसे दिव्य आगमो (तंत्र) में प्रख्यात तेरा जो स्वरूप ध्यान धरता है, सचमुच (कामपीडित) वामाक्षीयाँ बाजुओं को अदब से, स्तनतट दबाकर दीन चाटूक्ति, प्रगाढ़ रोमांच और अर्ध खुली आँखो से उसका ध्यान धरती है। ३०. हे माँ, राग सागरमें तरती सिंदरवर्णी नौकामें स्वछंदतया से चमकते पद्मरागमणी और कमल के फूल जैसे आसन पर आरुढीत तेरा जो साधकध्यान धरता है। बाल रवि जैसे लाल रत्नो से परिमंडित अंग-अंग की विभूषा तेजरेखा से संमिश्रित उसकी अंगराग की रचना का (शोभाका) अंगनाएँ स्मरण करती ही रहती है। और स्मर और अपस्मार के महावेग से पीड़ित (अत्यंत कामपखश) स्त्रीयाँ कपूर, कुमुद का वन, कमलिनी के पत्ते और कला कुतूहल में भी प्रलय काल से शंका करती है । कॉपती है, गिर जाती है, बोल भी नही सकती, बिचारी अत्यंत शोक विचलित हो जाती है। ३१-३२. हे मृत्युजंय नामधेया, हे ईश्वर के चैतन्य कीचंद्रिके, हे हीकारि! हे आद्येय ! (हमारा) तमस का दलन कर ! हे रस संजीवनी तु मेरे जीव को प्राण से खुलती हृदयग्रंथी में स्थिर कर । स्वाहा की भूजावाली हे ईश्वरी आत्म बोध के लाभ में उत्सुक मैं तेरी सेवा करता हुँ। इसी तरह हे अमृतेश्वरी ! तुझे अहर्निश चंद्रमंडल में निरंतर चमकती कायावाली तुझे साक्षात् पुजते है। वो साधक तीनो भुवन का भक्षण करती मृत्यु उपर पग देकर भोगके महासागर में निरवधिकाल तक वह सुखो से खेलते है। ३४. जागृत बोध के अमृत किरणो के पुंज से सभी दिशाओं को आप्लावित करती जिसकी कोई ऐसी निष्कलंक कला (कुंडलिनी शक्ति) षट्चक्र को भेदती है, और दैन्य का अंधकार का नाश करने में एकमात्र कुशल ऐसी परावाणी का विस्तार करती है। यह सनातन भुवनेश्वरी शक्ति मेरे मानस में हंसली की तरह रहे। १३२ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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