Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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હે સરસ્વતી ! તું અનન્ય અને બ્રહ્મજ્ઞાનના કારણરૂપ શ્રેષ્ઠવિદ્યા છો. હે બુદ્ધિને સચેતન કરનારી ! પોતાના ભકતના. હૃદયમાં સાક્ષાપણે રહેનારી પ્રસન્ન થા.
જેના પર નરસિંહસરસ્વતીએ કૃપા કરી તે વાસુદેવ સરસ્વતીએ આ સરસ્વતી સ્તુતિની રચના કરી.
-: संपूर्ण :
जो वेसठ वर्णरूप वायुयुक्त परावाणी, बाद में पश्यंती, और उसके बाद मध्यमा में होकर मुख में (उच्चारण) स्थान और प्रयत्न वगेरह के वशित जो वैखरी ऐसी (स्वरूप धारण करती है) उस वाणीको मैं नमन करता हूँ।
हे सरस्वती! तु अनन्य और ब्रह्मज्ञान की कारणरुप श्रेष्ठ विधा हो, हे बुद्धि को सचेत करनेवाली अपने भक्तो के हृदय में साक्षात् बसनेवाली प्रसन्न हो।
यह सरस्वती स्तुति वासुदेव सरस्वती रचित है, जिन पर नरसिंह सरस्वती की कृपा थी।
।समाप्तम्।
६१ अनुवाद
६२ श्री सरस्वती स्तोत्रम् (वासुदेवानंद सरस्वती)
अनुष्टुप.
॥१॥
॥२॥
||३||
॥४॥
जो (अपना) मनोहर वक्ष: स्थल (छाती) पर धारण किया हुआ विद्रुममणि (लाल परवाल) के अधिक मद से, त्रिदेव को स्फूर्ति देनेवाली, माला, पुस्तक और कमल धारण करनेवाली, वरदान प्रदान करनेवाली, और जो सभी भाषाओ का आधार स्तंभ है, जो शंख, स्फटिक और शशि समान उज्ज्वल है वह सबकुछ देनेवाली, प्रसन्नित वसंत ऋतु समान निर्मल, सुंदर मनवांछित (वर) देनेवाली, अज्ञानता को दुर करनेवाली, वाणी (देवी) मेरे मुख में सदा निवास करो।
जिनके तीनों पद गुफा में (शरीर के आंतिरक विवर स्थानो में) छुपे हुए है और एक पद अनेक लोको द्वारा पूजित है, और वेदो द्वारा पूजित ऐसी जिसका स्तवन करने में पंडितो का समूह भी खूब शर्मिदां होता है, जिसकी परम लीला को ब्रह्मा आदि देव भी नही जान सकते । इस विषय में (तेरी स्तुति के विषय में) जैसे मृगला द्वारा सिंह का पराक्रम करने के चेष्टा करने में आती है इस तरह से मेरे द्वारा तेरी स्तुति का प्रारंभ हुआ है। .
हे सभी हृदयगुफा की निवासी ! हे अपराजिता ! हे पूजित ! तेरे कटाक्षदृष्टि मुझ पर पडे। हे वाणी की अधीश्वरी ! हे अतिउत्तम देवी ! तेरे बिना कोई भी व्यवहार (शक्य) नही है। ३.
हे समयोचित वाणी प्रदान करनेवाली ! हे आनंदरूपा ! हे विद्वानो की सभा में प्रतिस्पर्धी के वाद को खंडित करनेवाली, हे ब्रह्म की प्रिया, हे माता, मेरे मन में रही सभी भावनाएँ सदैव तारण करनेवाली हो।
जिसके हाथ में कमल है जिसमें लक्ष्मी की लीला के साथ विहार करनेवाले विष्णु है। उसके (देवी के) पास उसके (विष्णु का) लोक का (कारणरूप) मलरूप नाभिकमल में ब्रह्मा (उत्पन्न) होते है। भेद और अभेद को विमाजित करके ब्रह्माने सुख के विषय पर ही स्वयंप्रमाण (वेद) है, लोगो को उसके (वेद) लिए यज्ञविधि होती है। उससे (यज्ञविधि से) देवसमूह जीते है। वह वाणी रक्षा करती है।
हे महासरस्वती ! हे जगत् माता! हे तेजस्वी ! प्रसन्न हो, तुझे नमस्कार करु, हे परमेश्वरी ! वाग्वादिनी, देदीप्यमान यशस्वी ! प्रकाशक ! देवी, तुझे नमस्कार करु.
जुषस्व बालवाक्यवत्सकं ममाम्ब ! भारति! अतत्सदप्यदस्त्वयि भ्रमाद्विभाति केवले क्षराक्षरात्परं हि यत्त्वमेव तत्पदं ध्रुवम् । जले यथोमिबुदबुदास्तथा त्वयीश जीवहक् व्यधीश ओंकृतेऽखिलं त्वमेव चास्य मंगलम् । यदर्धमात्रमूर्जितं क्रियाविकारवर्जितम् त्रिसत्प्रयोगसाधिके सुभुक्तिमुक्तिदायिके। स्वरा-र्णकारणस्तव: स्वयं नु कैः कृतस्तवः प्रकाशकप्रकाशिके श्रुतिश्रुतादिधारिके। त्वमेव सर्वकारणं त्वमेव सर्वधारणम् सुशक्तभक्तभावितं हि येन सर्वथा हि ते। तदेव धाम ते वरं यदीक्ष्यते बुध: परम् स्थिराश्चराश्च गोचरा: परत्र चात्र वाऽम्ब ये। स एव सत्समागमः प्रमाणपत्र चागम: नमोऽस्तु ते सरस्वति ! ध्यवित्रि ! वाजिनीवति !। प्रसीद बुद्धिचेतने ! स्वभक्तहनिकेतने ! स्तुतेयं विष्णुजिह्वा सा प्रसन्ना सूनृतैरका। प्राहाविष्कृत्य चात्मानं तुष्टाऽस्मि वरदेप्सितम् सकंबलस्य कुरु मे सहायं शंभुगायने । सुस्वरत्वादि यच्छेति ययाचे हि सरस्वतीम् वागीशाहोभयोरस्तु दिव्यनादरहस्यमुत् । स्तोत्रं चास्तु स्खलद्गीष्ट्वं धीजाड्यादिहरं त्विदम्
। सम्पूर्णम्।
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