Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai

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Page 235
________________ स्वर्ण से निर्मित अनेक आश्चर्यकारी आभूषणों से विभूषित उस चन्द्रमुखी वाणी की अधिदेवता देवी को मैं वन्दन करता हूँ । १८. जो अकल्प्य होते हुए भी कल्प्य है, अर्थात् जो प्राप्त किया जा सकता है, जो किसी से पवित्र नहीं हो सकता किन्तु स्वयंमेव पावन है वह विरुद्ध स्वरूप वाला सारस्वत तेज हमारी रक्षा करे । १९. जो अष्ट- पूर्व- ( कहीं भी देखने को मिली) है, वह ज्योति सदा जय पाती है। वह अन्य सब तेज और एवं अन्धकार का पराभव करती है। २०. - जगत का संकोच तथा प्रसार करनेवाली वह वाग्देवी मानों परमात्मा के दो रूप न कहती हो ऐसी देवी तुम्हारी रक्षा करे । २१. आत्मा को आत्मा से ही बताकर जो स्वयं तेज से नहीं चमकती बल्कि तेज को चमकाती है उस वाङ्मय ज्योति की हम स्तुति करते है । २२. विद्या तत्त्व को नाद और पद रूप बनाकर पुस्तक तथा अक्षमालारूप में दिखाती है वह श्रेय के लिए हो । २३. इस जीवन में वाणी के ये दो ही सार हैं - वक्तृत्व एवं कवित्व | हे वाणी ! तेरे प्रसाद (कृपा) से ही प्राप्त होते हैं। २४. अखिल विश्व के रंगमंच पर ललित पदो के द्वारा नाचती हुई एवं समग्र जगत को नचाती हुई वाणी आपकी रक्षा करे । २५. अक्षर आदि में से प्रवृत्त होता है और जो स्वयं अक्षरात्मक है एवं जो सर्वत्र अप्रतिहत है, उस सारस्वत प्रवाह की हम स्तुति करते है। २६. आकाश गंगा (प्रवाह) की स्पर्धा न करता हो ऐसे जो सूक्ष्म आदि चार चार प्रवाहों में बहता हुआ सारस्वत प्रवाह, हमें पवित्र करे । २७. स्वरूप से जो अजड़ है, तो भी रस के प्रवाहरूप है, अति महत् होते हुए भी अति सूक्ष्म है वह नया ही वाक् प्रवाह रक्षा करे । २८. स्वरूप से जो अनादि है, फिर भी जो क्षण-क्षण में नया बनता है, विनाशी होते हुए भी जो नित्य है वह वाणीरुपी मधु हमको मदहोश करे। २९. सभी कविरूपी भ्रमरो के द्वारा जो सतत पिया जाता है फिर भी जो सब तरह से वृद्धिंगत होता है वह वाङ्मधु विजयवान् है । ३०. जो स्वभाव से अभिन्न है, फिर भी भाषा के भेदो से भिन्न होती है, वह भिन्नाभिन्न स्वरूपमय वाङ्मय ज्योति विजय प्राप्त करती है। ३१. Jain Education International जिसका स्वरूप अनादि अनन्ता है, जो चंद्र, सूर्य और अग्नि से अप्रकाश्य है, और स्वयं प्रकाशित है उस वाङ्मय ज्योति की हम उपासना करते हैं। ३२. हे वाग्देवता तुम्हें नमस्कार हो! हे सरस्वती ! तुम्हें नमस्कार हो ! हे वाणी ! हे भाषा स्वरूपे तुम्हें नमस्कार हो हे ब्राह्मी! तुम्हें पुनः पुनः मेरा नमस्कार हो । 1 ३३. जो अनिमेष है पलकें नहीं झुकतीं जो सर्वदा उदित है, जिसने अपने में विश्व को समाया है, जो किसी भी अवस्था से अलंघ्य है, निद्रारहित है, प्रकाश में स्थिर है ऐसी सारस्वत चक्षु की जय प्राप्त होती है। ३४. सारस्वत शरीर के समान, विशुद्ध कांतिवाला जिसका यश तीनो लोकों को व्याप्त कर के चित्त को आनंदित करता है उस राजा भोजने निकट रहनेवाली सरस्वती देवी की इस अति सुन्दर स्तुति की रचना की है। ३५. | सम्पूर्णम् । १६९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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