Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai

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Page 234
________________ २८ અમોને પવિત્ર કરો. ૨૭ જે સ્વરૂપથી અજડ છે. તો પણ રસના પ્રવાહરૂપ છે અતિમહત્ હોવા છતાં પણ અતિસૂક્ષ્મ છે તે નવીન જ વાક પ્રવાહ રક્ષણ કરો. જે સ્વરૂપથી અનાદિ છે છતાંય ક્ષણેક્ષણે જે નવું બને છે, વિનાશી હોવા છતાં જે નિત્ય છે તે વાણી રૂપી મધુ અમને મદહોશ ૨૯ | સર્વ કવિરૂપી ભમરાં વડે જે નિરંતર પીવાતું રહે છે છતાં પણ સર્વ પ્રકારે વૃદ્ધિને પામે છે તે વામધુ જયવંત છે. ૩૦ જે સ્વભાવથી અભિન્ન છે છતાંય ભાષાના ભેદોથી ભિન્ન પડે છે તે ભિન્નભિન્ન સ્વરૂપમય વામય જ્યોતિ જયને પામે છે. रो. 31 3२ જે નું સ્વરૂપ અનાદિ અનંત છે ચંદ્ર-સૂર્ય અને અગ્નિથી અપ્રકાશ્ય એવું જે સ્વયં પ્રકાશિત છે તે વામય જયોતિની અમે ઉપાસના કરીએ છીએ. હે વાન્ દેવતા ! તને નમસ્કાર થાઓ. હે સરસ્વતી તને નમસ્કાર થાઓ, હે વાણી ! હે ભાષા સ્વરૂપા ! તને નમસ્કાર थाओ, हे वाली ! तने भारी पुनः पुनः नमरर थाओ. 33 જે પલકારાથી રહિત છે, સર્વદા ઉદિત છે, વિશ્વને જેને : સમાવેલું છે, કોઈપણ અવસ્થાથી અલંધ્ય છે, નિદ્રારહિત છે, પ્રકાશમાં જે સ્થિર છે, એવો સારસ્વત ચક્ષુ જયને પામે છે. ૩૪ સારસ્વત શરીર જેવો, વિશુદ્ધકાંતિવાળો જેનો યશ, ત્રણેય લોકને વ્યાપીને ચિત્તને આનંદિત કરે છે તે ભોજરાજાએ નજીકમાં રહેલી સરસ્વતી દેવીની આ અતિ સુંદર સ્તુતિ બનાવી. ૩૫ नहीं होता, और जो देवी ही यह सर्व (जगत्) है, उस वाग्देवी की हम पूर्ण उपासना करते है। सारे अर्थ शब्द के सहारे बिना निरर्थक बन जाते हैं, उन अर्थो को व्यक्त करने में जो एकमात्र हेतुभूत हैं, उस शब्द की अधिदेवता की हम स्तुति करते है। __ जो चमकती है-कभी बुझती नहीं, स्वयं प्रकाशित है और विश्व को प्रकाशित करती है, उस सारस्वत ज्योति की हम स्तवना करते है। जिस देदीप्यमाना को रात्रि या दिवस की अपेक्षा नहीं है, वह विलक्षण सारस्वत ज्योति हमारी रक्षा करे। आदि में जो परमब्रह्म के विवर्तरूप थी, जगत के बोधरुप उस भारती की हम सतत स्तुति करते है। चन्द्र के समान निर्मल कांतिवाली, परिपूर्ण आनन्द को प्रवाहित करनेवाली और मोहरूपी अंधकार के समूह में चन्द्रकला के समान सरस्वती का मैं वन्दन करता हूँ। हम उस (वाग्देवी) की स्तवना करते हैं जिसका कृपालेखा भी मानव के लिए कल्पलता के समान है और जो, कुछ (अपूर्व) वाग्मधु कर्ण-पूर से आस्वाद्य है। १०. जो लक्ष है और लक्ष्य है, वाक्यरहित है एवं वाक्यरूप है, ज्ञेय और अज्ञेय है, उस सारस्वत ज्योति की हम स्तुति करते है। ११. जिसके द्वारा यह विश्व जाना जा सकता है, और जो स्वयं दुर्लक्ष्य है उसे जानने के लिए तेज स्वरुप सारस्वत ज्योति की हम स्तवना करते है। १२. स्थूल और सूक्ष्म, बडा और छोटा, चेतन एवं जड, इस तरह जिसने विश्व को विभाजित किया है उस अमृता वाक् की हम स्तुति करते है। १३. हे वाग्देवता ! जो आपका ध्यान, स्तुति, जप या स्मरण करता है उसकी वाणी निश्चय ही अस्खलित बन जाती है। १४. जिसकी कांति श्वेत कमल के समान है, जो श्वेत कमल पर बिराजमान है, जिसके नेत्र श्वेतकमल के समान है, वह सरस्वती हमारी रक्षा करे। हिमखंड जैसी श्वेत, शंख, मुचकुंद पुष्प और चन्द्र के समान कांतिवाली, ऋग्, यजुर: और साम-तीनों वेदो के धाम समान उस सरस्वती की हम स्तुति करते है। चन्द्र के समान श्वेत कंद में से समुत्थित, श्वेत कमल पर बिराजमान, तेरे स्वरूप का मस्तक में जो ध्यान करता है, हे वाणी ! उसकी वाचा अविच्छिन्न प्रवर्तमान होती है। १७. સંપૂર્ણ ७१ अनुवाद जो एक, अक्षर एवं अज है, जिसका नाश नहीं होता, और उत्पत्ति भी नहीं होती, उस शब्द-ब्रह्म के एकमात्र सर्वस्वरुप वाग्ज्योति की मैं उपासना करता हूँ। __वाग्, वाणी, गी:, भाषा, भारती, गो, सरस्वती, ब्राह्मी, वर्णात्मिका, और एवं प्रणव माता उस देवी को वंदन करता हूँ। २. यह विश्व सत् होते हुए भी जिसकी सहायता के बिना असत् बन जाता है उस एक बिंदु से विशद सारस्वत ज्योति की हम स्तुति करते है। ३. १६. जिसके द्वारा यह विश्व व्याप्त है, जिसके बिना यह प्रकट ज्ञात १६८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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