Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ ५७ अनुवाद जिस कुंद (एक प्रकार का मोगरा) के पुष्प चंद्र बरफ और हार समान श्वेत है, जिसने श्वेत वस्त्र धारण किए है, जिसके बाजु उत्तम वीणा के रूप में दंड से सुशोभित है, जो श्वेत कमल के उपर बिराजमान है, जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश वगेरह द्वारा हमेशा वंदित है, जो सर्वप्रकार के अज्ञानता का हरण करनेवाली देवी सरस्वती देवी मेरा रक्षण करो. दिशाओ में पुंजीभूत हुई अपनी देहलता की आभा से क्षीर समुद्र को दास बनानेवाली, मंद मुस्कान से वसंत ऋतु के चंद्र का तिरस्कार करनेवाली हे कमलासना सुंदरी ! मैं तुझे नमस्कार करता २. वसंत ऋतु के कमल समान मुखवाली सभी (मनोकामना) प्रदान करनेवाली शारदा (देवी) सर्व संपत्ति सहित सदा हमारे मुखकमल में निवास करो। वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती जिनके अनुग्रह (उपकार) से भक्तों को देवताभव की प्राप्ति होती है, उसको मैनमन करता हु। लोक में ही) देवत्व को प्राप्त करते है। हे उदार बुद्धिवाली माता ! मोहरूपी अंधकार से पूर्ण मेरे हृदय में हमेशा निवास कर और तेरे सर्व अंगो की निर्मल कांति से मेरे मन में बसे अंधकार का शीघ्र (जल्दी से) विनाश कर। १०. हे देवी ! तेरे प्रभाव से ही ब्रह्मा जगत का सर्जन करते है। इन्दिरा (अर्थात् लक्ष्मी) पति विष्णु (जगत का) पालन करते है और शिवजी (जगत का) संहार करते है । प्रगटप्रभाववाली हे (माता) जो तेरी कृपा न हो तो कभी भी वे (ब्रह्मादि) अपने कार्य करने का सामर्थ्य न दिखा सके। __हे सरस्वती ! लक्ष्मी, मेधा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा और धृति यह आठ रूपो से तु मेरी रक्षा कर। १२. सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को बार-बार नमस्कार है, ऐसे ही वेद-वेदांत-वेदांग विद्या के स्थलो को भी (नमस्कार) है। १३. हे सरस्वती ! हे महाभाग्यवती ! हे विद्या! हे कमललोचना ! हे विद्यारुपिणी! हे विशाल नेत्रवाली ! तुझे नमस्कार, तुं मुझे विद्या प्रदान कर। १४. हे देवी ! जिस अक्षर-पद अथवा मात्रा में क्षति हुई हो उन सभी को क्षमा कर ! हे परमेश्वरी ! तुं प्रसन्न रहो। १५. । समाप्तम्। बुद्धिरूपी कंचन के लिए कसोटीरूपी पथ्थर समान सरस्वती, जो केवल शब्दो से ही बुद्धिमान और मुर्ख की परख करती है, वह हमारी रक्षा करो. श्वेत रुपवाली, ब्रह्मविचार के परम साररूप प्रथम, जगत में व्याप्त, हाथ में वीणी और पुस्तक धारण की हुई, अभयता देनेवाली अज्ञानता के अंधकार को दूर करनेवाली, हाथ में स्फटिक की माला धारण करनेवाली, पद्मासन में अच्छी स्थिरता रखे हए, परमेश्वरी भगवती बुद्धि प्रदान करनेवाली उस शारदा को मैं वंदन करता हूँ। ५८ श्रीसरस्वती गीतिः जिसने वीणा धारण की हो, अपार मांगलिकता दान करना यह जिसका स्वभाव हो, भक्तों के दुखों का जो नाश करता है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश जिसे वंदन करते है, जो यश प्राप्ति कराती है, सभी मनोकामनाएँ सिद्ध कराती है, श्रेष्ठ पूजनीय है ऐसी विद्या प्रदायिनी (देनेवाली) सरस्वती को मैं नित्य नमन करता हुँ। ७. श्वेत कमलो से पूर्ण विमल (निर्मल) आसन पर आरूढित, श्वेत वस्त्रो से ढकी हुई सुंदर देहवाली, मनोहर श्वेत पूर्ण खीलित कमल समान मंजुल मुखवाली और विद्या प्रदान करनेवाली हे सरस्वती ! तुझे मैं नित्य नमन करता हुँ। हे माता ! तेरे चरणकमल की भक्ति से युक्त जो (भक्त) अन्य सबकुछ छोडकर तेरा भजन करते है उन्हें इस पृथ्वी-अग्निवायु-आकाश और जल से बने (मनुष्य) शरीर से (अर्थात् इस एहि लसत् सितशतदलवासिनि भारति! मामकमास्यम्। देहि च मे त्वदमरनिकरार्चितपादतले निजदास्यम् ॥ध्रुवम् ॥१॥ जगदघहारिणि ! मधुरिपुजाये ! हिमगिरिजित्वरसिततमकाये। श्रुतितति संस्कृतपदकमलादृतमिह भुवि नान्यदुपास्यम् ॥ __ भारति. ॥शा जडतरजीवनमहह मदीयं श्रुतिविरहान्न हि नृषु गणनीयम् । निरवधि कृपां कुरुष्व दयामयि ! व्यपगच्छेन् मम दास्यम् ।। भारति. ॥३॥ विकसितनीलजलजतुलवासे विहितबृहस्पतिसमनिजदासे। जननि ! कृशोदरि मम रसनोपरि विरचय शाश्वतहास्यम् ।। भारति. ॥४॥ भवमुखभावितभवदवदानं रचयतुमानसमविरतगानम्। निपततु ते मयिदृगयि दयामयि ! किमपरमात्मजभाष्यम् ।। भारति.॥५॥ इति समाप्ता १४६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300