Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai

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Page 123
________________ तुम्हारी बाहुरूपी जो लता है, उस पर कर-कमल, लीला पुष्प की तरह शोभायमान है, एवं आप को नमन करनेवाले लोगों को अभीष्ट फल दे रही न हो? ऐसी है। हे माँ ! तुम्हारे चरणों मे झुके हुए तुम्हारा करतल है वो मेरे मस्तकपर मुकुट की भाँति समान शोभता हुआ, तुम्हारे प्रसाद (कृपा) का पात्र बने। हे माता! तुम्हारी काया जो मुखमें से अति सुन्दर वाणी बरसाती है, वह रणन झणन करती हुई वीणा ही है। तुम्हारे उदर पर की जो रोमराजि है सो वीणा का दंड है तुम्हारे दो बहुत बडे (पुष्ट) और गोल जो स्तन हैं वे दो तूंबे है, एवं गले में जो तीन रेखाएं है सो तीन तार हैं। ३०. वाली तुम्हारी नासिका बनाई है। तीन बाण तीनों विश्वो का व्यामोह करने में विजयी हैं। सम्मुख एवं विमुख ऐसी वायु जिस तरह श्रुति का याग करती है उस तरह वे दो कान बनाये हैं। ३६. हे धन्ये ! मैं मानता हूँ कि तेरे होठो की अमृतधारा के सरोवर के किनारे इधर उधर पकडती चंचल पलको की लीला-विलास करनेवाले नयन युगलवाला चक्रवाक-युगल मुखरुपी चन्द्र के द्वारा वियोग के दुःख का अतिशय करता है। तुम्हारे नेत्रो की कांति ने, विवाद में नीलकमल को चारो ओर से तुरन्त ही पराजित करके काले मुखवाला कर दिया। शोभा से सुन्दर मुखवाली हे माता! जिन्होंने कटाक्ष करने के द्वारा हरिणी को हरा दिया है, वे तुम्हारे उन युगलनेत्रों को शोभामयी लक्ष्मी के द्वारा सुखी करो। चन्द्रमा के कलंक की छाया के बहाने मुख पर सलाई से अंजन की हुई आँख को आकृतिबनानेवाली तू, तेरी उपमा धारण करनेवाले दर्पण के समान चन्द्रका तूने बताया है। चंद्र को वैणांक (वीणा का चिह्न) बनाया एवं तीनो भुवनो में प्रसिद्ध महिमावाला जा हिमांश (चंद्र) है, उसने विधाता वृद्धि और हानिवाला बनाया है। ३९. समस्त एवं व्यस्त-तीनों जगत, जिसकी शोभा से अभिभूत हैं, ऐसे चारो ओर फैलनेवाले तुम्हारे मुख के तेज से जगत् प्रकाशक ज्वालाओं से अतिसुन्दर, सूर्य का तेज एवं माता अमृत-पुंजसे न बना हो? ऐसा चंद्र का तेज-उसके साथ कैसे तुलना की जा सकती ३२. कौन कवि तुम्हारे हाथ और तुम्हारी बाँह की एकता कमल के फूल एवं कमल की नाल के साथ बताता है ? क्योंकि जल एवं जल में से जो उत्पन्न होता है एवं जल में ही रहता है, जब कि तुम्हारा हाथ पंचावयवी अर्थात् चैतन्यस्वरूप है, ऐसा शशधर वागीश (पंडित) का कथन हैं। हे सुकंठी! सत्-असत् एवं सदसत् इन तीनों प्रकार से जगत है। इस प्रकार के नयवाद को आक्षेप-पूर्वक विस्तार से कहने में चतुर विद्वान् पुरुषों को तुम्हारे कण्ठ में प्रकट दिखाई देनेवाली तीन रेखाएँ ब्रह्माने कहे हुए स्याद्वाद का कथन करती हो ऐसी प्रतीत होती हैं। सचमुच बिम्ब की लालिमा बिंबफल की है। कोई प्रवाल (लाल किसलय) की तुलना करे तो नहीं चल सकता। उसी तरह तुम्हारे अधरो की सुधा के भोजनरुप श्रुत के ज्ञाता, तुम्हारे होठों के साथ परस्पर तुलना करे तो उत्तम सुभाषित की रचनारुप प्रवाद के साथ सादृश्य की कल्पना करे.तो अन्योन्य विषयरुप है। ३३. हाथ की उँगली से तेरे मुख को धारण कर विधाता ने एकाग्रता के साथ स्पष्टतया देखा और सचमुच शरीर की रचना का कार्य पूरा हो चुका था, उसमें अति सौंदर्य से सुभग हडपची कब उत्पन्न हुई ? सचमुच, जो मध्यस्थ प्रयत्न होता है वह बडे लोगोका कार्य को सफल करता है। ३४. तुम्हारे स्मित (मुस्कान) के छल से मानों होठ की कांति को ग्रहण करके लघु आतपवाले बाल-सूर्य के समान अरुण अधरोवाली, दो संध्याओं की रचना विधाताने की है। इन दोनो के बीच नित्य सूर्य को घुमावे तो भी वे तुम्हारी स्मित (मुसकान) की कांति के परार्धवें भाग की कला को भी वे प्राप्त नहीं कर सकते। __३५. कामदेव ने पाँच बाणों में से तीन बाण निकालकर बाकी बचे दो बाणोंवाले अपने तूण (तरकश) से तिल पुष्प के समान नाल मधु से बढकर मधुर अरुण अधर, जब तुम्हारे मुख से निकलने वाली, प्रसन्न रस से गाढ, नयी नयी सूक्तियाँ मेरे चित्त में बरसाते हैं तब सुधांशु भी सूर्यवत् मालूम होता है, इन्द्र का अमृत कुंड व्यर्थ, बृहस्पति एवं देवताओं की धारा भी कुछ नही अर्थात् व्यर्थ लगती ___ तुम्हारी दोनो भौहे कामदेव के सुसज्जित धनुष्य-सदृश हैं, जो कटाक्ष-रूपी बाणो के द्वारा तीनों जगत को वेध का लक्ष्य बनाती हैं। उसका पहले का जो पुष्प-धनुष्य है, जिसका पराग शिवजीके तीसरे नेत्र की अग्नि की आहूति-स्वरूप है, वह आपके भव के भंग के लिए हो। ४२. बहुत सारे वर्ण जो मस्तक, कंठ आदि उत्पत्ति स्थानो को प्राप्त करके बिखरे हुए हैं वे जगत में भी नहीं समाते हैं, एवं तुम्हारे होठो के सुधा-सागर से उत्पन्न हुए वचनो के प्रवाह कान के कुएँ के भीतर कान की मेंड की शरण लेकर प्रवाहित हो रहे हैं। ४३. स्मित के खिलते हुए उल्लास से फैलते हुए दोनो कपोलो पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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