Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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विधान (क्रिया) से पुष्ट, गुरु के दिये हुए मंत्र के ध्यान के मौके पर तुम्हारी अनुपम स्तुति के प्रभाव की और देव समूह का मैंने अनेक बार अनुभव किया है।
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जो मनुष्य मन में तुम्हारा स्मरण करते हैं, वे पुण्यशालियों में धन्य है । वे विशाल कीर्तिवाले, प्रताप से सत्त्व को धारण करनेवाले और कल्याण की कांतिवाले है ।
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जो आपके अनुग्रह के पात्र हैं, उनकी विपुल बुद्धि मंगलों की परंपरा, सदा महान् आनन्दवाली (और) उसकी लक्ष्मी पवित्र होते हैं।
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१९९३ के वर्ष में श्री गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्राप्ति के (नूतन वर्ष के ) शुभ दिन को श्री जिनशासन - रसिक जैनों की नगरी - उत्तम राजनगर ( अहमदाबाद) में यह रचना किया है।
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विशिष्ट ज्ञान समूह के लाभ से युक्त, विशाल अर्थमयी प्रणव ( ॐ कार ) आदि मंत्र बीजोंवाली, ज्ञान के अर्थी भव्य जीवों के अंगस्वरूपी श्रुतदेवी की विंशिका (बीस श्लोकों के परिमाणवाली स्तुति) का पाठ करना चाहिए।
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पूज्य श्री नेमिसूरि ( म. सा.) के शिष्य श्री पद्मसूरि म.सा. द्वारा मुनि मोक्षानन्द विजय के पठन हेतु सरल रहस्यवाली यह रचना की गयी है।
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। समाप्तम् ।
श्री विजय सुशीलसूरिविरचितं श्री सरस्वतीद्वयस्तोत्रम् ।
वंशस्थ - वृत्तम्...
शुभप्रियश्वेतमरालवाहिनी, मृणालतन्तूपम वस्त्रशालिनी । तुषार- कुन्देन्दुसमानशोभना, स्तुत्या सदा तुष्यतु भव्यभारती ॥ १ ॥ स्वभक्तवृक्षामृतसिञ्चनोत्सुका, स्वदेहशोभाद्युतिबुद्धिनिर्भरा । स्वकीयवाणी- जितविश्वशर्करा, सुधामयी तुष्यतु भव्यभारती ॥२॥
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सुधारसपूर्ण - सुपात्रहारिणी, शुभकरे पुस्तकपत्रधारिणी । तथैव वीणावरवाद्यवादिनी, सरस्वती तुष्यतु मत् प्रणामतः ॥३॥ जिनेन्द्रदेवोदित शास्त्रवाङ्मयी, गणाधिपस्यास्यगुहे सुनतंकी । गुरो मुखाब्जे मुदमेति हंसिका, पुनातु नेत्रे मम सा सरस्वती ॥४॥
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शरद्धिमांशूपमशोभनास्यतो विराजमाना श्रुतदेवतैच सा । प्रफुल्लिता सत्केतकीपत्रलोचना, प्रणम्यते शीलधना सरस्वती ॥५॥
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विनाशजाड्यं सुमतिप्रदायिनी, विराजसे त्वं धवलैव वेशतः । त्वदीयदृष्ट्या कृपयाऽवलोकितः, सभासु वक्ता गिरमीचितीं बुधः ॥ ६॥ धन हीना अपि पण्डिता जनाः, किञ्चित्कृपाकोमलवाक्यसम्पदः । भवन्ति मान्या विलसन्ति सर्वथा, हरन्ति चेतांसि नृणां प्रतिक्षणम् ॥ ७॥ कराब्जपत्राङ्गुलिमध्यचारिणी, विभाति ते स्फाटिकमालिका शुभा । समस्तशास्त्रोदधिवीचिरज्जुषु, चतुष्करान् संदधतीव मोदसे ॥८॥ गजेन्द्रपञ्चास्यभुजङ्गवद्घने, पिशाचभूताद्युपसर्गिते वने । न तस्कराद् दुष्टजनाच्च लुण्टकात्, भयंत्वदीयाङ्घ्रियुगे प्रणामतः ॥ ९ ॥ समस्तदेवासुरमानवाचिंता समे, सुसीम्याननतो यया जिताः। जगत्त्रयीलोककृतातिमानिनी, विराजतां मे हृदि हंसवाहिनी ।। १० ।। ॐ उक्त्वा तत् परमिह सखे ह्रीं वदेत् क्लीं ततस्तु, ब्लीं श्री पश्चाद हसकल पदं ही मधो में नमोऽन्ते । एवं रीत्या जपति मनुजो लक्षमेकं तदन्ते,
स्वाहां कुर्यादयुतमनले तस्य सिद्धिः समस्ता मन्दाक्रान्ता. ।।११।।
हं हो मानव ! चेत् पटुत्वमधिकं प्राप्तुं श्रुते वाञ्छसि काव्ये दर्शनशास्त्रकेऽथ निखिले ग्रन्थे स्वकीये परे । तन्मन्त्र जप सुन्दरं प्रतिदिनं संस्तभ्य चित्तं गिरः, तस्मादाशु कृती भविष्यसि परं पूज्यो महिमण्डले शार्दूल. ||१२|| गुणबला सरला कमलाऽसना, धवल कुन्दरदा सुखदा विदा । मलयजद्रवलेपवती सती, विजयते महतीह सरस्वती
द्रुतविलम्बित ।।१३।। सदा कराब्जोपरिखेलनोत्सुका, मनोहरा ते जपमालिका वरा । श्रुताब्धिमध्योद्भवसुखरोज्ज्वला, कलामहादानप्रदानसाग्रहा ||१४|| स्तोत्रं सुशीलविजयेन हि सूरिणेदं, दृब्धं शुभं पठति भक्तिभृतस्तु योऽत्र । तस्मै प्रसन्नवरदा वरदायिनी स्यात् सिद्धिप्रदा द्रुततरं श्रुतदेवतेयम् ।। १५ ।। गुण गुणाभ करान्वित वैक्रमे, मरुधरस्य सिरोहि पुरे समे । भृगुदिने विजयादशमी तिथी, मम कृता स्तुति राश्चिनमासि वै ।। १६ ।। यावच्चन्द्रदिवाकरौ प्रभवतः यावच्चमेडिक नक्षत्राणि नवग्रहाश्च वसवः यावत् महासागराः । तावत्स्तोत्रमिदं शुभाय पठतां भूयादितिप्रार्थये, वाग्देवी वरदायिनी गुणवर्ती कल्याणदात्रीमहम्
। इति श्री सरस्वतीस्तोत्रं समाप्तम् ।
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शार्दूल ।।१७।।
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