Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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४१
अनुवाद
૪૨ ॥ श्री भारती स्तोत्रम् ॥
(आर्या वृत्तम्)
॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
भक्तिभरसंभृतान्तो योजितकरकुड्मलो विनतमूर्धा । त्वच्चरणाम्बुजयुग्मे मतिदे ! श्रुतदेवि ! प्रणुवेऽहम् स्फाटिकमालां वीणां, पुस्तकमपि या दधाति निजपाणी। हंसासना भगवती, देवी सा मे वरं दद्यात् स्पर्शेण हंससममपि, यदि चक्रे क्षीरनीरभेदकृतम् । तत् किं त्वदुपास्ति रते, कृपाकटाक्षं न निक्षिपसि या क्रीडां तन्वन्ती, जिनमुखमानससरसि मरालीव। सा मे मुखैकदेशे, वासं कुर्याद् वरं तदपि किं दरे वैदष्यं, वक्तृत्वं चापि सर्वविधवित्त्वम् । तेषां येषां त्वदुपरि, भारति ! तुष्टा भवसि सद्यः ग्रीष्मर्तु तापतप्तः, क्लिश्यति जाइयेन तावदिव मर्त्यः । लभते न स यावत्त्वत्-प्रसादलवचन्दनस्पर्शम् दाडिमबुद्धया स्फाटिकमालां कर्षन् नखांशुभि भिन्नाम्। कीटो येन निषिद्ध-स्तत्ते स्मितमस्तु मम भूत्यै कुरु कुरु मत्सान्निध्यं हर हर जाड्यं ममात्यरतिजनकम् । त्वत्सान्निध्याद् भारति ! सेत्स्यन्ति हि सर्वकार्याणि श्री नेम्यमृत देव- सूरिपदाब्जालिहेमचन्द्रेण । भक्त्या स्तुता जगदिन्दु- विज्ञप्त्या गी: सदाऽस्तु मुदे
।समाप्तम्।
॥५॥
दा
शरद ऋतु, के चन्द्र के समान-मनोहर मुखवाली, जिनेश्वर परमात्मा के मुख-कमल में वास करनेवाली, बुद्धि देनेवाली, तथा । जड़ता को दर करनेवाली निर्मल सरस्वती की हम आनन्दपूर्वक
सेवा करते हैं। 1 हे श्रुतदेवी ! आश्चर्य की बात है कि जड़ बुद्धिवाला मनुष्य भी : तुम्हारी कृपा से स्फुरायमान और निर्मल बुद्धिमान वाला (होकर) श्रुतरूपी समुद्र का पार पाकर राजसभा को चकित करता है। २
विनय से झुके हुए मस्तकवाला, उत्कृष्ट प्रीति से दोनों करकमल जोड़ कर निर्मल भक्ति की तरंग के रंगवाला मैं श्रुतदायिनी
सरस्वती देवी की उपासना करता हूँ। । देवेन्द्र, दानवेन्द्र, और नरेन्द्र, हे गिरा देवी ! तुम्हारी कृपा के , अंश को पाने के लिए अपनी अपनी प्रवृत्ति को छोड़कर तुम्हारे
नामाक्षर का अत्यन्त जाप करते हैं। . चन्द्रमा, कुन्दपुष्प, और ओसकणों के समान निर्मल तथा । चारों ओर देदीप्यमान एवं श्वेतकमल पर रही हुई तुम्हारी श्रेष्ठ मूर्ति : को देखकर इस पृथ्वी पर ऐसे कौन हैं ? जो प्रसन्न न हों, अर्थात्
सभी प्रसन्न होते हैं। । जड़ बुद्धिवाला मनुष्य भी जिनकी कृपा से सारे जगत को । हाथ में रहे पानी की तरह देखता है, वे श्री सरस्वती देवी मेरी मति
की मलिनता को दूर करे। . हे वाणी देवी ! तुम्हारी सुन्दर कृपारूपी सरस नौका को प्राप्त
कर के मनुष्य शोभामय, प्रबल वचन के विभूषणवाले होकर जल्दी से जडतारूपी समुद्र को तैर जाते हैं।
समस्त प्रार्थित पदार्थों को देने में कामधेनु के समान तुम्हारी प्रसादपूर्ण दृष्टि जिस पर होती है उसके लिए इस पृथ्वी पर पांडित्य और कवित्व कभी भी असंभव नहीं है।
हे भारती देवी! तुम्हारे चरणों में मेरा निरन्तर नमन तथा स्तवन हो। और इस तरह - तुम्हें नमन और स्तवन करने से मेरी बुद्धि सदा निर्मल हो।
हे भारती देवी ! तुम्हारी भली भाँति की गई स्तुति का मैं तुमसे दसरा कोई फल नहीं माँगता, लेकिन मैं तत्र तुम्हारे आगे इतना ही कहता हूँ कि तुम कभी भी मेरा सान्निध्य न छोड़ना - अर्थात् तुम सर्वदा मेरे पास रहना।
इस तरह भक्तिपूर्ण चित्त से, गुरु महाराज श्री विजय देवसूरीश्वरजी महाराज श्री के चरण कमलों की सेवा करनेवाले हेमचन्द्र सूरि के द्वारा भावनगर में स्तुति की गयी श्री भारती देवी बुद्धि देनेवाली हो।
। सम्पूर्णम्।
॥७॥
॥८॥
॥१॥
૪૨
ભાષાન્તર
ભકિતના સમૂહથી ભરેલા અન્તઃ કરણવાળો તથા જેણે બે કરકમલ જોડ્યા છે અને માથું નમાવ્યું છે એવો હું, બુદ્ધિને આપનારી એવી હે મૃતદેવી તમારા બે ચરણકમલમાં સ્તુતિ કરૂં.
સ્ફટિકની માળા, વીણા તથા પુસ્તકને જે પોતાના હાથમાં ધારણ કરે છે એવા હંસના આસનવાળી ભગવતી દેવી મને વરદાન આપનાર થાઓ.
હંસ જેવા પક્ષીને પણ સ્પર્શમાત્રથી જો તમે દૂધ અને પાણીના વિવેક કરનારો બનાવી દીધો તો તમારી સેવામાં પરાયણ એવા મારા વિષે કેમ કૃપાકટાક્ષ ફેંકતા નથી.
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