Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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आपके सान्निध्य से संस्कारित मनुष्यो के कान ही हितकारी और अक्षय हैं, किन्तु उसे छोड़कर दूसरा नहीं होता अर्थात् आपके संस्कार से रहित कान हितकारी या अक्षय नहीं होते, एवं वे संस्कारित कान ही विवेक के लिए होते हैं, लेकिन ऐसा नहीं तो स्वयं विषय की ओर विशेषत: मूढता करता है।
हे माता! मनुष्यो के तालु और दोनो ओंठो से (द्रव्यश्रुत स्वरूप में) तुम प्रकट हुई तो भी आदि और अन्त से रहित (भावश्रुत) स्थितिवाली हो। फलत: तुम्हारे द्वारा इस तरह के धर्मसे युक्त हुई - तुमने सर्वथा एकान्त मार्ग का नाश किया (ऐसा मालूम होता) है।
१८ हे माता ! कामधेनु चिंतामणि तथा कल्पवृक्ष एक जन्म में ही वश किये हुए भी फल देते हैं लेकिन तुम तो इस लोक एवं परलोक में भी सचमुच (इष्ट) फल देती हो, तू तो तुमको पंडितो के द्वारा कैसे (कामधेनु, चिंतामणि और कल्पवृक्ष) तीनो के साथ उपमा दी जाती है ? अर्थात् उनके साथ उपमा नहीं की जा सकती क्योंकि तुम तो उन से भी अधिक फल दोनो भवो में देती हो। १९
हे वाणी की अधिदेवी सरस्वती ! मनुष्य के चित्त में जो (अज्ञानरूपी) अंधकार विद्यमान है सो सूर्य तथा चंद्रमा के लिए अगोचर विषयरूप (देखा न जा सकनेवाला) जो तुम से ही नष्ट होता है, इस तरह तुम श्रेष्ठ ज्योतिस्वरूप हो, ऐसे गुणगान किया जाता है।
हे माता ! जिनेश्वर रूपी स्वच्छ सरोवर की आप कमलिनी हैं। और (ग्यारहा अंग) (चौदह) पूर्वरूपी कमलो से आप शोभायमान हैं, तथा गणधर-रूपी हंसो के समूह द्वारा सेवित हमेशा इस संसार में कौन से पुरुषो को तुम उत्तम हर्ष नहीं करती? २१
हे सरस्वती! माता! जहाँ आपकी कृपा होने से परम आत्मत्व के ज्ञानपूर्वक परमपद (मोक्ष पद)की सिद्धि होती है। वहाँ आप के देदीप्यमान प्रभाव से राजत्व, सौभाग्य तथा श्रेष्ठ स्त्री आदि की (प्राप्तिकी) क्या कीमत ?
२२ हेवाणी कीस्वामिनी (सरस्वती)! आपके दोनो चरण कमलो की भक्ति तथा सेवा करनेवाले का तीसरा (सम्यग्) ज्ञानरूपी नेत्र खुल जाता है, जो मानो केवल ज्ञान के साथ स्पर्धा करता हो ऐसे सम्पूर्ण (पदार्थ) को देखता है। भली भाँति आश्रय करता हो ऐसे (मनुष्य) देखता है।
हे माता! आप ही सम्यग्ज्ञान रूपी जल से भरा और समस्ततीनो लोक की शुद्धि कारण रूप तीर्थ हैं एवं परमार्थ को देखनेवाले मानवो के आनन्द रूपी समुद्र को बढाने में चंद्रमा के समान आप ही
हे भगवती ! सचमुच तुम्हारे द्वारा प्रथम बोध (मतिज्ञान) अच्छी तरह किया जाता है जो दूसरे सभी (श्रुत-अविध-मनःपर्यव आदि) ज्ञानो का हेतु बनता है। मनुष्यो के अतिदुर का देखने के लिए तुम्ही आँख हो। और तुम्हीं संसाररूपी वृक्ष को काटने में कुल्हाडी हो।
२५ हे शुभे सरस्वती! गुरुका यह उपदेश है कि शास्त्रानुसार अकार वर्ण के भेद से तुम बार-बार स्मरण की जाने पर तुम मनुष्य को न दो ऐसी कोई लक्ष्मी नहीं है, ऐसे कोई गुण नहीं हैं, या ऐसा कोई स्थान नहीं है।
२६ हे माता! अनेक भवो में उपार्जित किये गये पापरूपी पर्वत को विवेक रूपी वज्र से भेद हो जाता है वह विवेकरूपी वन (श्रेष्ठ अर्थ) तथा वाक्यरूपी अमृत (जल) के भार से भरा हुआ, आपके शरीररूपी शास्त्र के बादलमें से निकलता है।
हे सरस्वती माता ! अंधकार और अन्य तेजो को विशेषत: जीतकर जो परम, सर्वोत्कृष्ट तेज के रूप में वाङ्मय (वाणी) को प्रकाशित करता है, वह अंधकारों से कभी नष्ट नहीं होता, और वह अन्य तेजो से कभी प्रकाशित नही होता, किन्तु स्वत: अपने आप ही प्रकाशात्मक है ! उसकी जय हो।
२८ हे सरस्वती माता! तुम्हारी कृपा ही कविता बनाती (कराती) है। उसमें मुझ (ग्रन्थकर्ता) जैसा मूर्ख कविता कैसे कर सकता है ? इसलिए तूं मुझ पर प्रसन्न हो क्योंकि कभी भी निर्गुणी (पुत्र) पर भी माता निष्ठुर नहीं होती।
जो पुरुष श्रुतदेवता की यह मुनि पद्मनंदी रचित स्तुतिरूप कृति पढता है वह पुरुष कविता आदि सद्गुणो के प्रबन्धरूपी समुद्र का एवं क्रमश: भव का पार पाता है। __ हे देवी ! सरस्वती ! आपकी स्तुति करने में बडे बडे विद्वान बृहस्पति आदि भी निस्संदेह मंदबुद्धिवाले (कुंठित) हो जाते हैं, तो आपकी स्तुति करने में मुझ जैसे मंद बुद्धिवाले की तो बात ही क्या? (आप की स्तुतिकरने वाले हम कौन?) परन्तु हमारे समान अल्पज्ञानी की वाणी की यह चपलता है, अतः हे माता ! वाणी की इस मुखरता को आप क्षमा करे क्योंकि यह आपके प्रति अत्यन्त भक्तिका आग्रह है।
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। समाप्तम्।
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