Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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१५ अनुवाद
अनर्गल ज्ञान को संजीवित करनेवाली, जो बोध द्वारा अपने परिचारक को परम जागृत करती है, अंधकार को दूर करनेवाली जिसकी कांति मनोहर है ऐसी भारती देवी को वह श्रेष्ठतम भक्तियुक्त होकर प्रणाम करे।
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जो ब्रह्मा की आत्मजा है, अर्थगर्भित उदार काव्यों द्वारा जो स्तवित है। जिसका वृत्तांत अम्लान है जिसका अंतःकरण जागृत है। वैसे श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरुष के मुखमंडप में नृत्यकौशल्य प्रकट कर रही है।
जिसका प्रसाद प्राप्त होने पर सज्जनों की मंडली में बैठा हुआ साधक विद्या की साधना न करने पर भी सबल प्रतिपक्ष या नयों के निरूपण द्वारा दुर्जेय हो जाता है। वर्णहीन याने रूपहीन या निरक्षर भी रुपवान या विद्यावान की वाक्जाल का नाशकर्ता होता है । ३
मानों की चांदनी द्वारा धोये हुए न हो वैसे, शृंगार से जिनकी कांति मनोहर है, हंस वाहन पर जो आरुढ है, जिनके हाथ में पुस्तक है, एवं वीणावादन में जिनकी बुद्धि कुशल है ऐसी वह भारतीदेवी सर्व पापों को छेद देती है।
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भालपट्ट पर लगायें हुए बड़े चमकीले रत्न की कांति से जिनके नाखून छा गयें हैं। (अर्थात् जिन्होंने हाथ जोड़कर ललाट प्रदेश पर लगायें हैं) और जो अपने खुदके हितेच्छु है वैसे बृहस्पति आदि देवगण अधीर होकर जिनकी स्तुति करता है।
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मल्लिका पुष्प की माला के समूह में से फैलती हुई अपार श्रेष्ठ सुरभि द्वारा भ्रमर श्रेणि को प्रसन्न करती हुई, फैलते हुए यशवाली, पूर्णचन्द्र जैसे मुखवाली, भृत्यों द्वारा सम्मानित जिनकी अत्यंत दिव्य मूर्ति यहाँ वर्तमान है।
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जिस (भारती) के प्रसाद से ज्ञान मिलता है, उस ज्ञानसे तत्त्व का मार्ग मिलता है, उससे सम्यक क्रिया की प्राप्ति होती है, वह क्रिया, मोक्ष की संपदा देती है। इस तरह वह मोक्ष का निरपाय कारण है।
७
इस तरह जो स्वच्छ आकृति संपन्न, सार को देनेवाली वह सारदा, कांति-विजय स्मृति को संचित करें। प्रबल भाग्योदय की उछलती लीला को देनेवाली वह सेवक की मोहनिद्रा को झटक दे।
८
उत्तम यश रूप पुत्र को प्रसव करनेवाले, प्रसन्नचेता जो साधक उषःकालमें इस अष्टकका पाठ करते हैं, वे बोलने में सुरगुरु सम बनकर अपनी वाणीसुधासे सूरिगण को (विद्वद्गण) को संतुष्ट करते
हैं ।
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। समाप्तम् ।
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॥ श्री मलयकीर्तिमुनीश्वरविरचितं श्री शारदाष्टकम् ॥ डभोई यशो. वि. ज्ञा. भं. प्रत नं. ५१९३ तथा सुरत ने. वि. क. ज्ञा. भं. प्रतनं. ३६८२ द्रुतविलंबित छंद- सरस शांति सुधारस -
जनन मृत्यु जराक्षयकारणं सकलदुर्नय जाड्यनिवारणं । विगतपारभवाम्बुधितारणं समयसारमहं परिपूजये
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इत्युच्चार्य पुस्तकोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् श्रुतिपूजनप्रतिज्ञा । जलधिनंदन- चंदनचन्द्रमः सदृशमूर्तिरियं परमेश्वरी । निखिलजाड्यजटोग्रकुठारिका दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ||२||
विशदपक्ष-विहङ्गमगामिनी विशदपक्ष-मृगांकमहोज्वला । विशदपक्ष-विनेयजनार्चिता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥३॥
वरददक्षिणबाहुधृताक्षका विशदवामकरार्पितपुस्तिका । उभवपाणिपयोजभृताम्बुजा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥४॥
मुकुटरत्नमरीचिभिरूर्ध्वगै र्वदति या परमां गतिमात्मनि । भवसमुद्रतरी तु नृणां सदा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती परमहंस - हिमाचलनिर्गता सकलपातक- पङ्कविवर्जिता । अमृतबोधपयः परिपूरिता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती परमहंसनिवास समुज्वला कमलया कृतिपाशमनोत्तमा । वहति या वदनाम्बु' रुहंसदा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥७॥ सकलवाङ्मयमूर्तिधरापरा सकलसत्वहितैकपरायणा। सकल-नारदतुंबरुसेविता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती मलयचन्दनचंद्ररजःकण प्रकरशुभ्रदुकूलपटावृता । विशदहंसकहारविभूषिता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती मलकीर्तिकृतामपि संस्तुतिं पठति यः सततं मतिमान्नरः । विजयकीर्तिगुरोः कृतिमादरात् सुमतिकल्पलताफलमश्नुते ।। १० ।।
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ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं नमः सरस्वती भगवती बुद्धिवर्द्धिनी स्वाहा। इति मूलमंत्रम् ।
'इति श्री शारदाष्टकस्तोत्रसम्पूर्णम् ॥
टी. १. वदनाम्बुरुहं । २. विभूष्यता । ३. १७८६ महासुदना दिवसे रायपुर नगरे आ स्तोत्र बनावेलुं छे.
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