Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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दैत्यराजों के द्वारा ध्यान किया जाता है ऐसी हे शारदा देवी ! तुम सर्वदा मेरे मन में रहो।
देहकान्ति से अत्यन्त मनोहर, नम्र ऐसे दैत्य, देव, यक्ष एवं सिद्धों के द्वारा 'मैं पहले प्रणाम करूंगा' इस प्रकार की मति से प्रतिदिन सुबह, मध्याह्न एवं शाम को भक्तिपूर्वक जिसके चरणकमल में नमस्कार किया जाता है ऐसी; आँ इँ ॐ - स्वरूप स्पष्ट कांतियुक्त अक्षरों से उत्तम और मृदु स्वर से असुर के द्वारा जिसका उच्च कोटि का गान किया जाता है ऐसी हे शारदादेवी ! तुम सर्वदा मेरे मन में रहो।
जिसकी स्तुति की जाती है ऐसी वह सरस्वती देवी सर्वदा मुझे निर्मल ज्ञानरूपी रत्न एवं दिव्य कल्याण प्रदान करे।
सूक्ष्म-मतिवाले कवि जिसकी कृपा से समस्त भुवनतल को हाथमें स्थित बैरफल की तरह (स्पष्टतासे) देखते हैं वह सरस्वती देवी जय प्राप्त करती है।
।समाप्तम्।
अज्ञातकर्तृकम् श्रीशारदाष्टकम् ।
पाटण ह. लि. ज्ञा, भं प्रत नं. १४१४०
(शार्दूल - स्नातस्या.....)
क्षाँ क्षी यूँ क्ष: - मंत्रो के स्वरूपवाली, तुम्हारा चरणयुगल संसार में परिभ्रमण करनेवाले मानवों के स्थावर एवं जंगम (अचल
और चल) ऐसे विषम विष का नाश करनेवाला हो । अव्यक्तरूपा ! स्फुटरूपा ! उत्तम मनुष्यों के द्वारा जिसको प्रणाम किया गया है ऐसी ब्रह्मस्वरूपा! अपने आपमें निमग्न रहनेवाली ! एँएँ ब्लूँ - मंत्रों से योगिजनों के द्वारा गम्यस्वरूपा ! हे शारदादेवी ! तुम सर्वदा मेरे मन में रहो।
प्राग् वाग्देवी जगजनोपकृतये वर्णान् द्विपञ्चाशतं, यावाप्सीनिजभक्तदारकमुखे केदारके बीजवत् । तेभ्यो ग्रन्थगुलुञ्छुका: शुभफला भूताः प्रभूतास्तकान्, सैवाद्यापि पर: शतान् गणयसे सक् स्फोटणच्छद्मतः।।शा शार्दूल.
यैातेति प्रात: प्रातर्मा तुर्मात ग् मातविद्याव्रातः स श्रीसातस्तेषां जात: प्रख्यातः । ऐतां भ्रातर्भक्त्या घ्रात: स्नेहस्नात: स्वाख्यातः, सेवस्वातश्चित्तृष्णात: शास्वेषु स्तानिष्णातः ॥२॥ कामक्रीडा.
श्राँ श्री यूँ - मन्त्ररूपा ! परिपूर्ण अत्यन्त शोभायुक्त, चन्द्र समान धवल, रस-लावण्यमय, रम्य, स्वच्छ, मनोहर, चांदनीसदृश प्रभायुक्त ऐसे अपने हाथों के समूह से निरन्तर हमारे संसारजनित पाप का प्रतिदिन प्रक्षालन करनेवाली हे शारदादेवी! तुम सर्वदा मेरे मन में रहो।
हे देदीप्यमान सिंहासन पर विराजित देवी; तीर्थंकरों के मुख में से प्रवाहित होनेवाली; कमल के समान हाथोंवाली; प्रशस्त प्राँ प्रौँ — प्र: - मंत्रो से पवित्र ! दुष्टों के द्वारा उत्पन्न दुष्ट चेष्टावाले पाप को दूर कर । तू दूर कर । प्रतिदिन आत्मशक्ति अनुसार वाणी के लाभ के लिए स्वर्गकी स्त्रियों के द्वारा भक्तिपूर्वक पूजित चरणोंवाली ! उग्रस्वरूपा; क्रोध से भयंकरस्वरूपा; हे शारदादेवी! तुम सर्वदा मेरे मन में रहो।
नमस्कार करनेवाले राजाओं के देदीप्यमान मणियुक्त मुकुटों से स्पर्शित चरणकमलवाली; कमल समान मुखवाली; कमल समान नेत्रवाली; हाथी की गति से गमन करनेवाली; हंस के वाहनवाली; विशिष्ट प्रमाणवाली; कीर्ति-लक्ष्मी-बुद्धि के समूहवाली; जयविजय से विजयशील; गौरी एवं गांधारीयुक्त; ध्यान द्वारा गम्य, अगम्य स्वरूपवाली; हे शारदादेवी ! तुम सर्वदा मेरे मन में रहो।७.
विद्युत (बिजली) की ज्वाला के किरणों के समान उज्ज्वल एवं सर्वोत्तम मणियों से निर्मित सुन्दर स्वरूपवाली जपमाला को एवं सारस्वतमंत्र को सदैव धारण करनेवाली; मनोहर चिन्तनवाली; नागेन्द्र, इन्द्र एवं चन्द्रों तथा मनुष्यों व मुनियों के समूह के द्वारा
शिक्षाच्छंदश्च कल्प: सुकलितगणितं शब्दशास्त्रनिरुक्तिर्वेदाश्चत्वार इष्टा भुवि विततमते धर्मशास्त्रं पुराणम्। मीमांसान्वक्षिकीति त्वयि निचितिभृतास्ता: षडष्टापि विद्यास्तत्त्वं विद्या निषद्या किमु किमसि धियां सत्रशाला विशाला।।३।।
स्रग्धरा. सुवृतरूपसकल: सुवर्ण: प्रीणन् समाशा अमृतप्रसूगीः । तमःप्रहर्ता शुभेषु तारके हस्ते विधुः किं किमु पुस्तकस्ते ॥४॥
उपजाति. पदार्थसार्थ-दुर्घटार्थ-चित्समर्थनक्षमा, सुयुक्तिमौक्तिकैकशुक्तिरत्र मूर्तिमत्प्रमा। प्रशस्तहस्तपुस्तका समस्तशास्त्रपारदा, सतां सका कलिन्दिका सदा ददातु शारदा ॥५।। पंचचामर,
मन्दैमध्यैश्च तारैः क्रमततिभिरुहः कण्ठमूर्ध्वप्रवाहै:,, सप्ता-स्वर्याप्रयुक्तैः सरगमपधनेत्याख्ययान्योन्यमुक्तः । स्कंधे न्यस्य प्रबालं कलललितकलं कच्छपी वादयन्ती, रम्यास्या सुप्रसन्ना वितरतु वितते भारति ! भारती मे।।६।। स्त्रग्धरा.
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