Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
View full book text
________________
___ हे विस्तृत मतिवाली ! शिक्षा, आचारशास्त्र, समग्रगणित, शब्दशास्त्र, निरूक्ति, चारवेद, पुराण, मीमांसा, इतिहास ये चौदह विद्याएँ आपमें कूट-कूटकर भरी हैं। तो क्या आप इस पृथ्वी पर विद्या की विशाल शय्या है या फिर मेधा की विराट दानशाला है ?
१० । श्री सहस्त्रावधानीमुनिसुंदरसूरि कृत
शारदास्तवाष्टकम्।
हे माता ! ताराओं में चंद्र के समान आपके हाथ में पुस्तक शोभित हो रहा है। चंद्र गोल है; सोलह कलाओंसे पूर्ण है एवं सुंदर कान्तिमान है। वह सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है; अमृतनिर्झर किरणोंवाला है एवं अंधकार दूर करनेवाला है। वैसे ही पुस्तक भी सदाचाररूप है; संपूर्ण है; सभी आशा की पूर्ति करनेवाला है; अमृतनिर्झर वाणीयुक्त है, सुंदर वर्ण (अक्षर)वाला है एवं अज्ञान को दूर करनेवाला है।
पदार्थों के समूह के दर्घट अर्थों का ज्ञान द्वारा समर्थन करने में सक्षम; उत्तमयुक्तिरूप मोती की एकमात्र सीप; मूर्तिमती प्रज्ञारूप; हाथ में प्रशस्त पुस्तकको धारणकरनेवाली; सभी शास्त्रो के पार पहँचानेवाली; सदैव सज्जनों को प्रसन्न करनेवाली, कलिन्दिका (तेजरूपा सावित्री) शारदा सदैव दानेश्वरी हैं।
मन्द्र, मध्य एवं तार - इन तीन ग्रामों में क्रमशः हृदय, कण्ठ व मस्तक में से प्रवाहित अन्योन्य से स्वतंत्र स-र-ग-म-प-ध-न ये सातों स्वरों के द्वारा स्कंध पर वीणादंड स्थापित करके अत्यन्त लालित्य से वीणावादन करती हुई हे सुवदना- सुप्रसन्ना भारती ! मुझे उदार वाणी प्रदान कीजिये।
देवी के श्रवणयुगल में दोनों कुंडल सूर्य-चन्द्र के मंडल की भांति प्रभा से चमक रहे हैं। स्वयं उसी प्रभामंडल से ही निकले हो इस तरह सूर्य और चन्द्र, देवी की वाणीरचना को सुन-सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर मानों राजहंस का नाम धारण करके देवी के चरणकमल की सेवा करते हैं।
अगणित नमन से आकृष्ट ! नम्र बुद्धिमान के निकट रहनेवाली! ज्ञानी एवं विद्वान पर शुभ दृष्टि रखनेवाली ! सम्यग् दृष्टि के लिए सुवृष्टि समान! जगत के उपकार के लिए सर्जन करनेवाली ! सजनों के लिए अभीष्टरूपा ! सब को अत्यन्त प्रिय लगनेवाली ऐसी हे माता! आपके गुणों का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ?
कला काचित् कान्ता न विषयमिता वाङ्मनसयोः, समुन्मीलत्सान्द्रानुपरम-चिदानन्दविभवा। निरूपा योगीन्दैः सुविशदधिया यात्यवहितै-, रियं रूपं यस्याः श्रुतजलधिदेवी जयति सा ॥१॥ शिखरिणी ।।
शार्दूल. चञ्चत्कुण्डलिनीविरुद्धपवनप्रोद्दीपितप्रस्फुरत्-, प्रत्यग्ज्योतिरिताशु भासितमहा हृत्पद्मकोशोदरे। शुद्धध्यानपरम्परापरिचिता रंरम्यते योगिना. या हंसीव मयि प्रसत्तिमधुरा भूयादियं भारती
॥२॥ या पूज्या जगतां गुरोरपि गुरुः सर्वार्थपावित्र्यसूः, शास्त्रादौ कविभि: समीहितकरी संस्मत्य या लिख्यते। सत्तां वाङ्मयवारिधैश्च कुरुतेऽनन्तस्य या व्यापिनीं, वाग्देवी विदधातु सा मम गिरां प्रागल्भ्यमत्यद्भुतम् ॥३॥ नाभिकन्दसमुद्रता लयवती या ब्रह्मरन्ध्रान्तरे, शक्ति: कुण्डलिनीति नाम विदता काऽपि स्तुता योगिभिः । प्रोन्मीलनिरुपाधिबन्धुरपदाऽऽनन्दामृतस्राविणी, सूते काव्यफलौत्करान् कविवरैर्नीता स्मृतेर्गोचरम् ॥४॥ या नम्या त्रिदशेश्वरैरपि नुता ब्रह्मेशनारायणैभक्तेर्गोचरचारिणी सुरगुरोः सर्वार्थसाक्षात्करी। बीजं सृष्टिसमुद्भवस्य जगतां शक्ति: परा गीयते, सा माता भुवनत्रयस्य हृदि मे भूयात् स्थिरा शारदा तादात्म्येन समस्तवस्तुनिकरान् स्याद् व्याप्य या संस्थिता निर्व्यापारतया भवेदसदिवाशेषं जगद् यां विना। वीणा-पुस्तक-भृन्मराल-ललितं धत्ते च रूपं बहिः, पूजार्ह भुवनत्रयस्य विशदज्ञानस्वरूपाऽपि या
॥६॥ साक्षेपं प्रतिपन्थिनोऽपि हि मिथ: पस्पर्द्धः कन्धोधुराः, सर्वे वादिगणा: सतत्त्वममलां यां निर्विवादं श्रिताः । विश्वव्यापितया नया अपि समे लीना यदन्तर्गता:, सार्हद्वक्त्रसुधातटाकविरला वाग्देवता पातु माम् ||७|| विश्वव्यापिमहत्त्वभागपि कवीन् हृत्पद्मकोशस्थिता, या दुष्पारसमग्रवाङ्मयसुधाऽम्भोधिं समुत्तारयेत् । भित्वा मोहकपाटसम्पुटतरं धृत्वा प्रसत्तिं परां, देयाद् बोधिमनुत्तरां भगवती श्रीभारती सा मम
॥८॥
हे चष्टके (वाणीस्वरूपा)! सद्गुणों की वृद्धि में अभिलाष रखनेवाला धर्मवर्धन (इस तरह) कष्टनाशक अष्टक के द्वारा आपकी अल्प स्तुति करता है। हे मित्र ! यदि सबुद्धि की वृद्धि एवं सिद्धि को तू चाहता है तो नमस्कार का मुख्य अवलम्बन करके तू वशकी ॐ सरस्वती का उच्चारण कर।
। सम्पूर्णम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org