Book Title: Sachitra Saraswati Prasad
Author(s): Kulchandravijay
Publisher: Suparshwanath Upashraya Jain Sangh Walkeshwar Road Mumbai
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अनुवाद
हे कंडलिनी स्वरूप माँ ! तुम्हारे शरीरके कंदमें से नीकलने वाली तंतु जैसी कांतिद्वारा आकर्षित हुए तेरे ब्रह्मरंध्र आदि शतदल कमल को जो चंद्र जैसी युतिवाले सदा चिंतन करते है उनकी कवि चक्रवर्तीकी तरह ख्याति इस भूमंडल पर एक समान छा जाती है ऐसा मैं मानता हूं।
जो साधक तुम्हारे मुखरूपचंद्रमंडल में एकत्रित होती कांतिको चोतरफ उछलते विस्तार से सर्व दिशाओंमे अनेक चंद्र प्रगट हो रहे है ऐसाध्यान करता है, उसके मुख रूपरंगमंडपमें वाणी के विलाससे चचंल पदविन्यास द्वारा सुंदरवाणी उन्मत्त नर्तकी की तरह रसभरा नृत्य करती है।
__ हे देवी ! तुमने करमें धारण किये हुए रत्नमय कमंडलमें से टपकते अमृत झरने में स्नान के आनंदसे तरंगित हो उठे, सभी साधक, उस अमृतके मेघ में उत्कंठित होकर आकंठ पान करते है एवं फिर तुम्हारे मंडलसे अलंकृत चंद्र के शक्तिकूप, जैसे खुदके मुखमे से वाणी विलासके छलकेद्वारा जैसेकी अमृत निकाल (बहा) रहें हो ऐसा लगता है।
क्षुब्ध हुए क्षीरसागरमें से जैसे शेषनाग की डोलती हई फेन ना हो ? ऐसी विशाल पंखडियों से खीले हुए श्वेतकमल के कोस, जिसमें चंद्र जैसी धवल कर्णिका है, उसकी श्वेतकांति में छायी हुइ तुम और अपने आत्मा को जो ध्यान में देखता है हे ब्राह्मी ! उस साधक की ब्रह्मरूप वाणी, प्रगल्भता के क्षीरसागर जैसी उछलती
लीलासे विलसते अमृत से आनंदित कविजन चंद्र की चकोर (चांदनी) की तरह सेवा करते है।
हे वाग्देवता ! आपका वो वेदांतरूप मस्तक, ॐकार रूप मुख, उसके कलारूप वो लोचन, चार वेद रुप वे भूजाए उनके आत्मारुप हृदय एवं गद्य-पद्य रूप चरण युगल इस रीतसे समग्र वाङ्मयरूप-आपकी काया को जो ध्यान करते है वो शब्द ब्रह्म में स्थिर होकर परब्रह्म के साथ एकरुपता प्राप्त करतें है। ८
वाग्बीजं ऐं व स्मरबीज क्ली से वेष्टित होकर उसके उपर ज्योति एवं कला, उनकी बहार ८/१२/१६/३२/ पंखडियों के वलयमें बीजाक्षर, कादिवर्ण की स्थापना तथा पंखडियों के अंतरालमे कूटाक्षर युक्त हंस: इस रीति से सारस्वत यंत्र होता है।
ॐ के बाद श्री बाद सौं बाद क्ली तत्पश्चात् वद-वद वाग्वादिनी उसके बाद ह्रीं एवं अंत मे नम: इस रीत से जो अश्रान्त होकर भक्तिशक्ति अनुसार तुम्हारा ध्यान करते है। हे देवि! वो साधक शीघ्र ही बुद्धि-ज्ञान एवं विचार शक्तिसे श्रेष्ठ होता है। १०
यह रीतसे मंत्र का स्मरण करनेवाला साधक, खुद केनाभिरूप हृदयमेसें उत्थित होते हुए सहसदल कमल को चिंतन करते है, कि श्वेत शुभ्र नाल द्वारा उपर की और उठता वो कमल, हृदयमें पूर्णतया विकसित होकर मुख द्वारसे बहार नीकले है एवं उस कमल पर खडी हुई है इस रीतिसे हे वाग्देवी ! अभय और वरदमुद्रा-पुस्तक व कमलसे अलंकृत कर कमलवाली तुमको देख तथा तुम्हारे मुखमें से नीकलती वर्णमालाको मुखमे प्रवेश करती चिंतवन करे। ११
हे वाग्देवी ! इस जगतमें बहाते सारे विकल्पमे और बातों से क्यां? यह काव्य स्तोत्ररुप स्थूलमुक्ताफल की माला जिसके कंठमें बसती है, उसकी वाणी विलास, भाषाकी भभकसे भव्य एवं मधु रससे भी मधुर हो जाती हैं।
।समाप्तम्।
___ हे भारती ! झरते हुए पीयूषरस के साथ मातृकारुपसे शोभा देती आपको, नाभिके श्वेतकमलमें से हृदयके पुंडरिक मे प्रवेश करते हुए जो प्राणवान साधक पुरुष देखता है, उसकी भारती, ऐसी प्रतिभाशाली होती है कि निर्दोष ऐसे हजारो काव्यो के सैंकडो ग्रंथ वो बून सकते है।
मोतीके आभरणसें मंडित, श्वेतवस्त्रधारिणी, श्वेत अमृत के तरंग जैसी, उज्ज्वल एवं वीणा-पुस्तक मोतीकी अक्षमाला तथा श्वेत कमलसे मंडित, चार भुजाओवाली, तुमको हृदयपंकजमे देखके कौनसा साधक उत्तम काव्यकी रचनाके चातुर्यमें चिंतामणी ना हो?
हे माँ ! जो साधक अपनी कायामें तथा चंद्रमंडल में बसी हुई तुमको, ब्रह्मांड के करंजमे जमा कीये गये अमृत फेनका पिंडसे मंडित देखते है उसको स्वच्छंद रीतिसे प्रगट होती हुई गद्य-पद्यकी
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