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बुद्धि का बादशाह ___ 'इस श्रेणिक ने कुत्तों के साथ खाना खाया, खाजा जैसी मिठाई के टुकड़ेटुकड़े कर दिये... जलते हुए घर में से केवल 'भंभा' वादित्र ले आया... इसलिये फिलहाल यह राजा बनने के लिए योग्य नहीं है... और फिर यह है भी कितना कंजूस! न तो हाथी-घोड़े खरीदता है... न ही सेना को सजाता है!'
९९ कुमार खुश हुए। श्रेणिक तो अपने पिता की बात का रहस्य जानता था, इसलिए कुछ भी बोला नहीं... वह मौन रहा। गंभीर बना रहा।
दो महीने बीत गये।
श्रेणिक के मन में तरह-तरह के विचार आते थे। उसे राजा प्रसेनजित के पश्चात् राजगद्दी पर बैठना था। यह बात वह भली-भाँति समझता था, मानता था। उसने सोचा :
'अभी तो पिताजी राज्य को सुचारु ढंग से सम्हाल रहे हैं...। मेरा राजमहल में ही जमे रहना उचित नहीं है! मेरी बुद्धि ... मेरी चतुराई, मेरी ताकत इसकी परीक्षा तो परदेश में घूमने-घामने से ही हो सकती है! परदेश में नये-नये अनुभव भी होते हैं... तरह-तरह के लोगों से मिलना होता है... अतः मुझे परदेश की यात्रा पर निकलना चाहिए। ___पर पिताजी मुझे परदेश जाने की इजाजत नहीं देंगे। उन्हें पूछे बगैर ही मैं चला जाऊँ तो बात बने! मुझे डर तो किसी बात का है ही नहीं! मैं शस्त्रकला जानता हूँ... तलवार के वार में कोई माई का लाल मुझे हरा नहीं सकता! और, मेरे गुरुदेव ने तो मुझे मंत्रशास्त्र और तंत्रशास्त्र का भी ज्ञान दिया है। मैं मंत्र प्रयोग जानता हूँ। तंत्र के प्रयोग भी कर सकता हूँ। औषधशास्त्र में भी मेरी बुद्धि पहुँचती है! इन सब जानकारियों का अच्छी तरह उपयोग तो परदेश में ही हो सकता है! देश-विदेश में ही मौका मिल सकता है! यहाँ से मुझे निकल जाना चाहिए।'
आधी रात का समय था। राजमहल में नीरव शांति थी।
कुमार श्रेणिक पलंग पर से खड़ा हो गया। श्री नवकार महामंत्र का स्मरण किया । खड़े होकर दीवार पर लटकती तलवार ली और कमर में बाँध दी।
अंधेरे मे वह बड़ी सावधानी के साथ चला। राजमहल के पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकला। सभी गुप्त रास्ते वह जानता था। उसने एक जंगल का रास्ता लिया। लंबे-लंबे कदम रखता हुआ वह चलने लगा।
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