Book Title: Rajkumar Shrenik
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 48
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ____४० पिता की चिट्ठी आई! 'लो... ये आ गये गोपालकुमार!' सेठ ने सुमंगल से कहा। 'कहाँ से आ रहे हो, भाई?' श्रेणिक ने पूछा। 'राजगृही से!' 'ओह! अच्छा... चलो... पहले स्नान-देवपूजा वगैरह कर लो... फिर बात करेंगे।' सुमंगल को लेकर श्रेणिक हवेली पर लौटा। सुमंगल ने एकांत देखकर महाराजा का पत्र उसके हाथ में सरका दिया। श्रेणिक ने नौकर से कहा : 'मेहमान को अच्छी तरह सारी सुविधाएँ जुटा दो... वे निपट जाएं बाद में मेरे पास ले आना।' सुमंगल नौकर के साथ चला गया । श्रेणिक अपने खंड में आया। दरवाजा बंद करके पत्र खोला और पढ़ने लगा : ___ 'मिठाई भरकर बाँधकर रखे हुए छाबड़े में से खाना खाया और भाइयों को खिलाया । मुँह बँधे हुए मटकों में से पानी पिया और भाइयों को पिलाया, कुत्तों की चाटी हुई खीर की थालियाँ कुत्तों के सामने सरका कर खुद ने शुद्ध खीर खाई... वैसे हे मेरे पुत्र... तू वहाँ बेनातट नगर में धन सेठ की लड़की से शादी करके घरजमाई होकर रहा है? माता-पिता और भाइयों का त्याग करके, जो माता-पिता तेरे बगैर न तो सुख से खाते हैं... न पीते हैं... न ही चैन से सोते हैं! तू दूर-दूर परदेश में जाकर क्यों रहा है?' 'कुकर कहेता कोपे चडिये घर घर जमाई थाय हैये हइयाली को कहे, कवण भलों बिहं मांय?' [कुत्ता जैसा कहने से गुस्सा किया और उधर गृहजामाता होकर रहा... यह बात दिल में भलीभाँति सोचकर कहना कि दोनों में से कौन सा कार्य अच्छा किया?] __ पत्र पढ़ते ही श्रेणिक का दिल भर आया। वह रो पड़ा | बरसाती नदी की भाँति उसकी आँखें बहने लगी। पिता और माता के भीतरी प्रेम को वह भलीभाँति जानता था... समझता था... फिर भी बारबार पिता के द्वारा कहे गये प्रताड़नाभरे वचनों को याद करके सोचता है : 'अशक्त और मुर्दा लड़के चाहे जो सह लें... परंतु मैं तो एकाध भी कटु या गलत वचन सहन नहीं कर सकता...। अरे उस घर में मैं एक पल भी रह नहीं सकता! For Private And Personal Use Only

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