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पिता की चिट्ठी आई!
सुमंगल ने पत्र श्रेणिक को पहुँचाया।
श्रेणिक ने पत्र पढ़कर कुछ सोचा और सुमंगल से कहा :
'भाई... तू कुछ दिन यहाँ ठहर जा। मुझे जो कुछ भेजना है... वह तू साथ में लेकर ही जा ।'
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सुमंगल बेनातट में रुक गया ।
श्रेणिक ने तुरंत ही अपनी माँ के लिए सुवर्ण के और रत्न जवाहरात जड़े हुए अलंकार बनवाये। बहनों भाईयों के लिए भी सुंदर आभूषण तैयार करवाये । पिताजी के लिए श्रेष्ठ जाति के एक सौ आठ घोड़े खरीदे... और यह सब सुमंगल के साथ राजगृही की ओर रवाना कर दिया ।
महाराजा प्रसेनजित बड़े प्रसन्न हुए। श्रेणिक के भेजे हुए घोड़े और अलंकार स्वीकार कर लिए, और उसी सुमंगल के साथ 'भंभा' नाम का वाजित्र भेजा और पत्र लिखकर दिया |
'प्रिय पुत्र श्रेणिक,
तुम्हारे भेजे हुए अश्व मिले। सुंदर अलंकार भी मिले । तेरे यहाँ पर आने के बाद ही वे अलंकार तेरी माँ को, बहनों को और भाइयों को देने के हैं।
बेटा, जिस जंगल में तूने भीलकन्या को स्वीकार नहीं किया था उस जंगल के भील लोग तेरे ऊपर लाल-पीले हुए हैं...। अच्छा किया... तूने उस भीलकन्या के साथ शादी नहीं की...। अपने कुल की गरिमा को बनाए रखा। परंतु यहाँ आते वक्त सावधान रहना । जंगल के भील तेरे ऊपर धावा बोलेंगे.... हालाँकि तेरे पराक्रम के आगे वे लोग आखिर झुक ही जाएँगे ।
- तेरा पिता
पत्र और साथ में ‘भंभा' वादित्र लेकर सुमंगल बेनातट नगर पहुँचा । पत्र पढ़कर श्रेणिक ने मन ही मन तुरंत राजगृह जाने का निर्णय किया । सुमंगल से उसने कहा :
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‘तू राजगृह जा, अब मैं बहुत जल्दी... कुछ ही दिनों में यहाँ से निकलूंगा और शक्य इतना जल्दी राजगृही पहुँचूँगा ।'
सुमंगल को सुंदर वस्त्र - अलंकार भेंट देकर उसे बिदा दी ।