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मिलना पिता से पुत्र का!
५४ __ 'भाइयों, सुनो मेरी बात! तुम में से यदि कोई इस अंगूठी को पहनना चाहते हो तो खुशी से पहन लो । वरना मैं इस अंगूठी को पहनना चाहता हूँ! बाद में कोई शेखी बघारना मत कि 'ओह, इसमें क्या? यह तो हम भी कर सकते थे! इसमें कहाँ अक्लमंदी है?' ___ अभय की मीठी आवाज में चुनौती सुनकर सभी लोग विस्मित हो उठे। उन्होंने अभय से कहा :
'अरे, लड़के! हमारी तो अक्ल पर बक्कल लग गया है। हमें तो समझ में ही नहीं आता कि बिना कुएँ में उतरे हुए अंगूठी को बाहर निकालना कैसे? यह कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि 'चल री अंगूठी, ऊपर आ...' बोलें और अंगूठी ऊपर आकर अपनी उंगली में समा जाए।'
'ठीक है, तो मैं मेरी बुद्धि आजमाता हूँ।' 'अच्छा है भाई... तू कोई बुद्धि के बादशाह का बच्चा लगता है, जो अंगूठी को पहनने की इतनी जल्दबाजी कर रहा है। ठीक है... कर तू तेरी कोशिश! हम भी जरा देखें तो सही... तू क्या तीर मारता है!' ___ अभयकुमार टोले से अलग हुआ। पास की गली में गया । वहाँ पर गायभैंसे बंधी हुई थी चौपाल में! गाय का गोबर अपने हाथ में वह उठा लाया। उसने बराबर अंगूठी का निशान ताक कर वह गोबर उस पर फेंका | गोबर बराबर अंगूठी पर गिरा | अंगूठी उसमें चिपक गयी। फिर अभयकुमार वापस उसी गली में गया । एक अच्छे से घर में जाकर मालकिन से उसने कुछ अग्नि के अंगारे माँगे। मालकिन बुढ़िया थी... पर भली थी। उसने अभयकुमार को मिट्टी के कुंडे में भरकर अंगारे ला दिये | अभय वह कुंडा लेकर आया कुएँ के पास, और बराबर निशाना लगा कर अंगारे... उस कुएँ में पड़े गोबर पर डालने लगा! अंगारों की गर्मी से गोबर सूखने लगा।
एक-डेढ़ घंटे में तो गोबर सूखकर कंडा हो गया! फिर उसने उस खाली कुएँ में पानी भरने की योजना बनाई।
वह आस-पास-इधर-उधर घूमा तो पास में ही एक दूसरा कुआँ था... वह पानी से भरा हुआ था। उसने सोचा : 'इस कुएँ का पानी यदि उस अंगूठीवाले कुएँ में डाला जाए तो मेरा काम बन जाये।'
कुएँ पर रहट चल रहा था। कुएँ के पास छोटा हौज था... उसमें पानी भरा जा रहा था। अभय ने रहट चलानेवाले को प्यार भरी जबान में कहा :
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