Book Title: Rajkumar Shrenik
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 65
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७ मिलना पिता से पुत्र का! बरसों बाद सुनंदा को देखते ही राजा खुशी से विभोर हो उठा। सुनंदा भी श्रेणिक को महाराजा के रूप में देखकर प्रसन्न हो उठी। श्रेणिक ने सुनंदा से कहा : 'देवी, अपना पुत्र कहाँ है?' 'यह तो रहा!' कहकर सुनंदा ने अभय को राजा के सामने किया। 'अरे, यही अभय है क्या?' राजा तो अभय के सामने देखता ही रहगया। उसने कहा : 'बेटा, तब फिर तू अभी तक सच क्यों नहीं बोला?' । 'सच ही तो बोला, पिताजी! मैं माँ के दिल में, उसके पास ही रहता हूँ!' 'अरे वाह!' राजा की खुशी समुंदर की तरह उछलने लगी। पत्नी मिली... पुत्र मिला! बेटा ही महामंत्री बनेगा। इस बात का राजा श्रेणिक को गर्व होने लगा। राजा ने वहाँ पर खड़े अपने राजपुरुषों को आज्ञा की : 'जाओ, नगर में जाकर मेरा पट्टहस्ती ले आओ... अच्छी तरह सजाकर लाना!' राजपुरुष दौड़े हुये गये हस्तिशाला की ओर! श्रेणिक राजा ने सुनंदा से पूछा : 'देवी, तुम दोनों यहाँ पर आये किस तरह?' 'आप चित्रशाला की दीवार पर जो लिखकर गये थे... वह अपने पुत्र ने पढ़ा और मुझे वह यहाँ साथ ले आया।' श्रेणिक ने अभयकुमार के सामने देखा। 'पिताजी, मैं तो अब यहीं रहनेवाला हूँ! परंतु आप मेरी माँ को वापस बेनातट मत भेज देना!' 'नहीं, वत्स... तेरी यह माँ यहीं पर रहेगी।' 'पिताजी, आपने जो घोषणा की थी... उस मुताबिक मुझे आधा राज्य और महामंत्री का पद मिलेगा ना?' 'वह तो दूंगा ही! तू चाहता हो तो आज ही तेरा राज्याभिषेक कर दूं... और मैं और तेरी माँ दोनों दीक्षा ले लें!' For Private And Personal Use Only

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