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राजकुमार श्रेणित
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श्री प्रियदर्शन
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राजकुमार
श्रेणिक
किशोरों के लिए रसप्रद
लम्बी कहानी
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विवेचनकार आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज
[श्री प्रियदर्शन]
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पुनः संपादन ज्ञानतीर्थ-कोबा
द्वितीय आवृत्ति वि.सं.२०६६, भाद्रपद शुक्ल ११, दि. १८-०९-२०१०
उपलक्ष श्रुतोद्धारक आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी ७७वाँ जन्मवर्ष हीरक समारोह पूर्णाहुति
भवानीपुर, कोलकाता
मूल्य पक्की जिल्द : रू.८० कच्ची जिल्द : रू. ३७
आर्थिक सौजन्य शेठ श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ ह, शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार
प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, ता. जि. गांधीनगर - ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३१७६१०४, २३२७६९७२ email: gyanmandir@kobatirth.org
website : www.kobatirth.org
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टर्स, अहमदाबाद - ९८२५५९८८५५ टाईटल डीजाइन : बिजल ग्राफीक्स - ९३७६१२५७५७
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पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी श्रावण शुक्ला १२, वि.सं. १९८९ के दिन पुदगाम महेसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रूप में जन्मे मूलचन्दभाई, जुहीं की कली की भांति खिलतीखुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि.सं. २००७, महावद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र) में आचार्य श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करमकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भुवनभानुसूरीश्वरजी के शिष्य बने. मुनि श्री भद्रगुप्तविजयजी की दीक्षाजीवन के प्रारंभ काल से ही अध्ययन अध्यापन की सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी.४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मिलस्टोन' पार करती हुई वह यात्रा सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई. 'महापंथनो यात्री' से २० साल की उम्र में शुरु हुई लेखनयात्रा अंत समय तक अथक एवं अनवरत चली. तरह-तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान, विवेचना, दीर्घ कथाएँ, लघु कथाएँ, काव्यगीत, पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन परक साहित्य सर्जन द्वारा उनका जीवन सफर दिन-ब-दिन भरापूरा बना रहता था. प्रेमभरा हँसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाह्य व्यक्तित्व एवं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय प्रवृत्तियाँ उनके जीवन के महत्त्व चपूर्ण अंगरूप थी. संघ-शासन विशेष करके युवा पीढ़ी. तरुण पीढी एवं शिश-संसार के जीवन निर्माण की प्रकिया में उन्हें रूचि थी... और इसी से उन्हें संतुष्टि मिलती थी. प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार शिबिर, जाप-ध्यान, अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्णु व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्ज्वल बना रहा. पूज्यश्री जानने योग्य व्यक्तित्व व महसूस करने योग्य अस्तित्व से सराबोर थे. कोल्हापुर में ता.४-५-१९८७ के दिन गुरुदेव ने उन्हें आचार्य पद से विभूषित किया.जीवन के अंत समय में लम्बे अरसे तक वे अनेक व्याधियों का सामना करते हुए और ऐसे में भी सतत साहित्य सर्जन करते हुए दिनांक १९-११-१९९९ को श्यामल, अहमदाबाद में कालधर्म को प्राप्त हुए.
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प्रकाशकीय
पूज्य आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज (श्री प्रियदर्शन) द्वारा लिखित और विश्वकल्याण प्रकाशन, महेसाणा से प्रकाशित साहित्य, जैन समाज में ही नहीं अपितु जैनेतर समाज में भी बड़ी उत्सुकता और मनोयोग से पढ़ा जाने वाला लोकप्रिय साहित्य है.
पूज्यश्री ने १९ नवम्बर, १९९९ के दिन अहमदाबाद में कालधर्म प्राप्त किया. इसके बाद विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट को विसर्जित कर उनके प्रकाशनों का पुनः प्रकाशन बन्द करने के निर्णय की बात सुनकर हमारे ट्रस्टियों की भावना हुई कि पूज्य आचार्यश्री का उत्कृष्ट साहित्य जनसमुदाय को हमेशा प्राप्त होता रहे, इसके लिये कुछ करना चाहिए. पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज को विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्टमंडल | के सदस्यों के निर्णय से अवगत कराया गया. दोनों पूज्य आचार्यश्रीयों की घनिष्ठ मित्रता थी. अन्तिम दिनों में दिवंगत आचार्यश्री ने राष्ट्रसंत आचार्यश्री से मिलने की हार्दिक इच्छा भी व्यक्त की थी. पूज्य आचार्यश्री ने इस कार्य हेतु व्यक्ति, व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के आधार पर सहर्ष अपनी सहमती प्रदान की. उनका आशीर्वाद प्राप्त कर कोबातीर्थ के ट्रस्टियों ने इस कार्य को आगे चालू रखने हेतु विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के सामने प्रस्ताव रखा.
विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने भी कोबातीर्थ के ट्रस्टियों की दिवंगत आचार्यश्री प्रियदर्शन के साहित्य के प्रचार-प्रसार की उत्कृष्ट | भावना को ध्यान में लेकर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ को अपने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित साहित्य के पुनः प्रकाशन का सर्वाधिकार सहर्ष सौंप दिया.
इसके बाद श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा ने संस्था द्वारा संचालित श्रुतसरिता (जैन बुक स्टॉल) के माध्यम से श्री प्रियदर्शनजी के लोकप्रिय साहित्य के वितरण का कार्य समाज के हित में प्रारम्भ कर दिया.
श्री प्रियदर्शन के अनुपलब्ध साहित्य के पुनः प्रकाशन करने की शृंखला में किशोरों के लिए रोचक शैली में लिखे गए "राजकुमार श्रेणिक" ग्रंथ की तृतीय आवृत्ति को प्रकाशित कर आपके कर कमलों में प्रस्तुत किया जा रहा है.
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शेठ श्री संवेगभाई लालभाई के सौजन्य से इस प्रकाशन के लिये श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ, हस्ते शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार की ओर से उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, इसलिये हम शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार के ऋणी हैं तथा उनका हार्दिक आभार मानते हैं. आशा है कि भविष्य में भी उनकी ओर से सदैव उदारता पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहेगा. __ इस आवृत्ति का प्रूफरिडिंग करने वाले डॉ. हेमन्त कुमार तथा अंतिम प्रूफ करने हेतु पंडितवर्य श्री मनोजभाई जैन का हम हृदय से आभार मानते हैं. संस्था के कम्प्यूटर विभाग में कार्यरत श्री केतनभाई शाह, श्री संजयभाई गुर्जर व श्री बालसंग ठाकोर के हम हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक का सुंदर कम्पोजिंग किया. ___ आपसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि आप अपने मित्रों व स्वजनों में इस प्रेरणादायक सत्साहित्य को वितरित करें. श्रुतज्ञान के प्रचार-प्रसार में आपका लघु योगदान भी आपके लिये लाभदायक सिद्ध होगा. __पुनः प्रकाशन के समय ग्रंथकारश्री के आशय व जिनाज्ञा के विरुद्ध कोई बात रह गयी हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्. विद्वान पाठकों से निवेदन है कि वे इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करें.
अन्त में नये आवरण तथा साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत ग्रंथ आपकी जीवनयात्रा का मार्ग प्रशस्त करने में निमित्त बने और विषमताओं में भी समरसता का लाभ कराये ऐसी शुभकामनाओं के साथ...
ट्रस्टीगण श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा
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धर्म, कला एवं श्रुत-ज्ञान का त्रिवेणी संगम श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ जैन धर्म और भारतीय संस्कृति को संजोए हुए कोबा तीर्थ गुजरात प्रान्त की राजधानी गांधीनगर-अहमदाबाद के राजमार्ग पर अवस्थित है. महान जैनाचार्य गच्छाधिपति श्रीमत् कैलाससागरसूरिजी की दिव्य कृपा व युगद्रष्टा, राष्ट्रसंत, आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी के शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की स्थापना २६ दिसम्बर १९८० के दिन की गई थी. पूज्य गच्छाधिपति आचार्यश्री की यह इच्छा थी कि यहाँ पर धर्म, आराधना और ज्ञान-साधना की कोई एकाध प्रवृत्ति ही नहीं वरन् अनेकविध ज्ञान और धर्मप्रवृत्तियों का महासंगम हो. एतदर्थ आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी ने पूज्य आचार्य श्री की महान भावना को मूर्त रूप देते हुए धर्म, कला एवं श्रुतज्ञान के त्रिवेणी संगम रूप इस तीर्थ को विकसित कर उनके सपनों को साकार किया. ___ वर्तमान में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा तीर्थ निम्नोक्त प्रवृत्तियों के द्वारा धर्मशासन की सेवा में तत्पर है.
(१) महावीरालय : हृदय में अलौकिक धर्मोल्लास जगाने वाले शिल्पकला युक्त महावीरालय में चरम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी, श्री आदीश्वर भगवान, श्री माणिभद्रवीर तथा भगवती पद्मावती आदि प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं.
इस महावीरालय की विशिष्टता यह है कि आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के अन्तिम संस्कार के समय प्रतिवर्ष २२ मई को दोपहर २ बजकर ७ मिनट पर सूर्य किरणें श्री महावीरस्वामी के ललाट को सूर्यतिलक से देदीप्यमान करती हैं.
(२) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मृति मंदिर (गुरु मंदिर) : पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरिजी के अन्तिम संस्कार स्थल पर उनकी पुण्य-स्मृति में संगमरमर का नयनरम्य कलात्मक गुरु मंदिर निर्मित किया गया है. यहां स्फटिक रत्न से निर्मित श्री गौतमस्वामीजी की मनोहर मूर्ति तथा गुरु चरण-पादुका दर्शनीय हैं.
(३) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर (ज्ञानतीर्थ) : २,००,००० से अधिक प्राचीन हस्तलिखित शास्त्र व लगभग १,३५,००० मुद्रित ग्रंथों से समृद्ध यह ज्ञानतीर्थ, विश्व में सब से विशाल जैन ज्ञानभंडार के रूप में प्रसिद्ध है.
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अत्याधुनिक संसाधनों के माध्यम से त्वरित वाचक सेवा का पूज्य साधु-साध्वीजी, संशोधक-विद्वान एवं अभ्यासु वर्ग अपने साहित्य संशोधन-संपादन कार्य में भरपूर लाभ लेते हैं. यहीं पर सम्राट संप्रति जैन म्यूजियम में श्रुतज्ञान, भारतीय शिल्प कला एवं पुरावस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है. पूज्य साधु-साध्वीजी एवं श्रावक-श्राविकाओं को पुस्तकें शीघ्र मिल सके इसलिए पालड़ी, अहमदाबाद में ज्ञानमंदिर की एक शहर शाखा भी कार्यरत है.
(४) यात्री सुविधा : दो उपाश्रय, दो यात्रीनिवास, विशाल भोजनशाला, अल्पाहर गृह आदि की सुविधाएँ भी मुमुक्षुओं व यात्रियों हेतु उपलब्ध हैं.
(७) श्रुत सरिता : उचित मूल्य पर बालक, युवा और मुमुक्षुओं के लिए उपयोगी पुस्तकें, आराधना सामग्री, धार्मिक उपकरण, भक्ति कैसेट्स, सी.डी. तथा एस.टी.डी टेलीफोन बूथ इत्यादि उपलब्ध है.
विश्वमैत्री धाम : गांधीनगर स्थित बोरीज तीर्थ में भूगर्भ से प्राप्त श्री महावीरस्वामी की प्रतिष्ठा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी के कर कमलों से हुई थी. इस तीर्थ का श्री धनलक्ष्मी महावीर स्वामी जिनमंदिर ट्रस्ट के द्वारा पुनरुद्धार परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से किया गया. नवनिर्मित १०८ फीट ऊँचे विशालतम जिनालय में ८१.२५ ईंच के पद्मासनस्थ श्री वर्धमान स्वामी प्रभु प्रतिष्ठित किये गये हैं.
यहाँ पर महिमापुर (पश्चिमबंगाल) में जगत्शेठ श्री माणिकचंदजी द्वारा १८वी सदी में कसौटी पथ्थर से निर्मित भव्य और ऐतिहासिक जिनालय को मुख्य मन्दिर के एक तरफ नूतन जिनप्रासाद में पुनः प्रतिष्ठित किया गया है. निस्संदेह इससे इस तीर्थ परिसर में पूर्व व पश्चिम भारत के जैन शिल्प का अभूतपूर्व संगम हुआ है. वर्तमान में इसे जैन संघ की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है. तो दूसरी तरफ दर्शनीय समवशरण जिनालय है. मुख्य मन्दिर के तलघर में प्रभु महावीर के जीवन को प्रदर्शित करती मनोरम्य झाँकियाँ बनाई गयी है. इस तीर्थ में सुविधायुक्त भोजनशाला व धर्मशाला भी है.
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बुद्धि का बादशाह
१. बुद्धि का बादशाह
ढाई हजार साल पुरानी यह बात है। बुद्धि के चमत्कारों से रची-पची यह कहानी है। 'राजगृह' नाम का भव्य, सुंदर और विशाल एक नगर था। उस नगर में सैकड़ों करोड़ाधिपति व्यापारी रहते थे। उन सबकी ऊँची-ऊँची श्वेत वर्ण की विशाल हवेलियाँ थी और उस नगर में देव-विमान से भी सुंदर जिनमंदिर थे। विशाल राजमार्ग थे।
राजगृह नगर 'मगध' साम्राज्य की राजधानी थी। [मगध यानी इन दिनों का बिहार प्रान्त] मगध साम्राज्य के सम्राट थे राजा प्रसेनजित ।
राजा प्रसेनजित अद्वितीय पराक्रमी थे। प्रजावत्सल थे और न्याय करने में निपुण थे। उनके राज्य में प्रजा बड़ी सुखी थी... समृद्ध थी और सदाचारी थी।
राजा प्रसेनजित को एक सौ रानियाँ थी। उसमें मुख्य रानी थी कलावती। कलावती रानी रूपवती और गुणवती थी। राजा प्रसेनजित को एक सौ पुत्र थे... उनमें सबसे बड़ा था श्रेणिककुमार। राजा ने सभी राजकुमारों को शस्त्रकला और शास्त्रकला में निपुण बनाया था।
जो आदमी अपने जीवन की पहली अवस्था में ज्ञानार्जन न करे, दूसरी अवस्था में धन का उपार्जन न करे... तीसरी अवस्था में धर्म का आचरण न करे... उस मनुष्य का... उस आदमी का चौथी अवस्था में भला क्या हाल होगा? इसलिए सुख से यदि जीना हो और मृत्यु के पश्चात् सद्गति को प्राप्त करना हो तो ज्ञानप्राप्ति, धनप्राप्ति और धर्मप्राप्ति करनी ही चाहिए |
एक दिन राजा प्रसेनजित ने सोचा कि 'मेरे सभी पुत्र-सभी राजकुमार ज्ञान और ताकत में एक से हैं। मेरे सौ पुत्रों में से मेरा उत्तराधिकारी-वारिस मैं किसको बनाऊँ? जो बुद्धिमान हो... विनीत हो... और प्रजाप्रिय हो... उसे ही राजा बनाया जा सकता है। इसलिए मुझे मेरे पुत्रों की परीक्षा करनी चाहिए | यदि राजा अपने जीते जी ही अपने बेटों की परीक्षा करके उनकी मर्यादा नहीं बाँध देता है, तो राजा की मौत के पश्चात् राजकुमार राज्य व सत्ता के लिए आपस में लड़ने-झगड़ने लगेंगे... युद्ध करेंगे। लड़ते-लड़ते मौत का शिकार बनेंगे | शत्रु राजा राज्य पर अधिकार जमाएंगे। इसलिए मैं मेरे राजकुमारों की परीक्षा अवश्य करूँगा।
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बुद्धि का बादशाह
राजा प्रसेनजित सूक्ष्म बुद्धि के धनी थे। उन्होंने शुद्ध घी के बढ़िया-ताजे खाजे बनवाये और उन्हें बाँस की टोकरियों में भरवाये । वे टोकरियाँ एक बड़े खंड में रख दी गई। फिर मिट्टी के नये घड़ों में पानी भरवाकर घड़ों के मुँह बंद करवा कर उसी हॉल में रखवाये। तत्पश्चात् राजा ने अपने सौ बेटों को बुलवाया। बुलाकर के बड़े प्यार से उन्हें कहा :
'मेरे प्यारे बेटों, तुम इस कमरे मे रहो। तुम्हें यहाँ पर न तो भूखा रहना है... न ही प्यासा रहना है। इन टोकरियों में खाने की चीजे हैं और मटकों में पानी है। पर एक बात का ध्यान रखना। इन टोकरियों को खोलना नहीं और मटकों का मुँह भी नहीं खोलना ।' ___ सभी पुत्रों को खंड में बिठाकर खंड के दरवाजे राजा ने बंद करवा दिये। सभी राजकुमार मुसीबत में आ गये! यह क्या मजाक है? टोकरी खोलने की नहीं और खाने का... मटके का मुँह खोलने का नहीं और पानी पीने का?
यह संभव कैसे हो सकता है? सभी राजकुमार एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे! मगर श्रेणिक के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं उभरी थी। ऐसा लगता था... जैसे उसे कोई उपाय मालूम है। सभी ने श्रेणिक की ओर नजरें उठाई। श्रेणिक की आँखों में चमक उभरी और उसने ९९ भाईयों से कहा :
'एक बात है... यदि तुम सब मेरी बात मानते हो तो मैं तुम्हें खिला भी सकता हूँ... पानी पिला भी सकता हूँ... पर मेरा कहा करना होगा।'
९९ भाईयों ने अनुनयभरी आवाज में कहा 'हम तो तुम जैसा कहो... वैसा करने के लिए तैयार हैं। हमें तो जोरों की भूख लगी है... और पानी के बिना तो गला इतना सूख रहा है... जैसे कि जान निकल जाएगी!'
श्रेणिक ने वहाँ पर रखे हुए पानी के प्रत्येक मटके पर महीन कपड़ामलमल का टुकड़ा लपेट दिया। उसने कुमारों से कहा : __ 'ये कपड़े बारीक हैं... पतले हैं... इसलिए जल्दी गीले हो जाएंगे। मटके नये हैं... इसलिए पानी भी बूंद-बूंद बनकर रिसता रहेगा...। जैसे ही कपड़ा गीला हो, तुम कपड़े को निचोरकर पानी पी लेना। तुम इस तरह पानी पीओ, इतने में मैं तुम्हें टोकरी में से खाजा कैसे निकालना यह बताता हूँ।
९९ कुमार प्रसन्न हो उठे | मटके पर कपड़े गीले होने लगे और सभी कुमार कपड़े को निचोरकर पानी पीने लगे।
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बुद्धि का बादशाह
श्रेणिक ने टोकरियों को झटकना-पटकना चालू किया। अंदर रहे हुए नरम-नरम खाजे टूटने लगे... बिखरने लगे और बाँस की बनी टोकरियों के छेद में से टुकड़े बाहर गिरने लगे। कुछ देर में तो जमीन पर ढेर हो गया। सभी राजकुमारों ने जी भरकर खाजों के टुकड़े खाये और मजे से पानी पीते रहे।
बाद में सभी राजकुमार राजा प्रसेनजित के पास पहुँचे । राजा ने पूछा : 'क्यों, तुम खा-पीकर तृप्त हुए हो ना?'
एक कुमार ने कहा : 'पिताजी, सही बताएँ तो हम लोगों को पहले पहल कुछ सूझा ही नहीं था... पर श्रेणिक की चतुराई और होशियारी के कारण ही हम सब ने पेट भरकर खाजे खाये और आराम से पानी पीया!' यों कहकर सारी बात बताई। __राजा ने श्रेणिक के सामने प्रेमभरी निगाहों से देखा परंतु प्रशंसा या तारीफ की एक भी शब्द नहीं कहा। कुछ दिनों बाद राजा ने वापस राजकुमारों की बुद्धि की परीक्षा करने का सोचा।
राजा ने बड़ा तपेला भरकर दूध की खीर बनवाई। खीर में शक्कर-बादामकेसर-इलायची वगैरह डलवाकर अत्यंत स्वादिष्ट एवं खुशबूदार बनवाई गई।
राजकुमारों को बुलवाकर, राजमहल के आँगन में बँधवाये हुए मंडपशामियाने के नीचे सबको भोजन के लिए बिठाया गया। सभी की थाली में खीर परोसी गई। राजकुमारों ने खीर का एकाध बूंट भरा ही था कि अचानक शामियाने में बीस-पच्चीस शिकारी कुत्ते आ झपटे! भौं-भौं ... की आवाज से सभी राजकुमार सहसा घबरा उठे और भोजन की थाली ज्यों की त्यों छोड़कर वहाँ से भाग निकले! जूठे मुँह... जूठे हाथ... सभी सर पर पाँव रखकर भाग गये। केवल श्रेणिक कुमार निश्चित और निर्भय होकर बैठा रहा। उसने चतुराई से इधर-उधर-आसपास पड़ी हुई अन्य राजकुमारों के भोजन की थालियाँ कुत्तों के सामने रख दी... कुत्ते पूंछ दबाते हुए उन थालियों की खीर खाने लगे... श्रेणिक अपनी थाली की पूरी खीर मजे से खाकर खड़ा हुआ। फिर हाथ मुँह धोकर वह राजा प्रसेनजित के पास गया। दूसरे सभी राजकुमार भी वहाँ पहुँच गये थे। राजा ने श्रेणिक को एकदम तृप्त और ९९ राजकुमारों को भूखा पाया। राजा ने दिखावे का गुस्सा करते हुए कहा : 'यह श्रेणिक निरा गंवार-सा है... अरे, यह तो कुत्तों के साथ बैठकर भी
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बुद्धि का बादशाह
४
खाता है... यह तुम सा समझदार या संस्कारी नहीं है! गंवई आदमी सा है... भेड़ बकरी चरानेवाले चरवाहे सा ! जो जिसके साथ बैठकर खाना खाये .... उसे वैसा ही जानना चाहिए... तुम ९९ समझदार हो... अच्छे हो... पवित्र हो!'
यह सुनकर ९९ कुमार खुश हो उठे। खुद की प्रशंसा सुनकर कौन नहीं फूलता? फिर भी श्रेणिक के दिल को तनिक भी बुरा नहीं लगा ! चूँकि राजा ने श्रेणिक के सामने प्यार की निगाह से देखा था !
कुछ दिन बीत गये।
एक बार राजा प्रसेनजित ने श्रेणिक को अपने पास बुलाया और कहा : ‘बेटे, मैंने दो बार तेरी परीक्षा ली... तू दोनों बार सफल रहा... मुझे इस बात का गर्व है... खुशी है... फिर भी मैं और परीक्षा लूँगा ।'
श्रेणिक ने राजा से कहा :
'पिताजी, बड़ी खुशी के साथ आप मेरी परीक्षा कर सकते हैं! '
राजा ने कहा :
'बेटा, सामने यह जो घर जल रहा है... तुझे उसमें जाना है और तुझे जो पसंद हो वह वस्तु लेकर सही सलामत बाहर निकल आना है।'
श्रेणिक तुरंत उस जलते हुए घर के पास गया। उसने एक गोदड़ी (रजाई) को पानी से गीला किया और ओढ़ ली । शीघ्र ही घर में घुसा और घर में पड़ा हुआ 'भंभा' नामक वाजिन्त्र लेकर शीघ्रता से बाहर निकल आया।
वह राजा के पास गया। राजा ने उससे कहा : 'तुझे घर में से हीरे, मोतीजवाहरात कुछ भी लाना नहीं सूझा ? केवल यह वादित्र ले आया! अच्छा किया! अब गली-गली और घर-घर पर यह वादित्र बजाते हुए घोषणाएँ करते रहना! तू तो है भी पेटू आदमी! तेरे ९९ भाई जो छोड़ दे... रख दे... उसे खाकर पेट भरना...! मैं कहता हूँ वैसा करेगा तो समझना कि तू समझदार है... और तेरी आज्ञा सब मानेंगे।'
राजा ने संकेतभरे गुप्त शब्दों में अपना राज्य श्रेणिक को सौंप दिया । श्रेणिक समझ तो गया... पर वह मौन रहा । राजा ने ९९ राजकुमारों को उनकी योग्यता के मुताबिक अलग-अलग गाँवों का राज्य बाँट दिया । ९९ कुमार राज्य पा कर नाच उठे। हर एक को राज्य मिला। वे तो हाथी-घोड़े खरीदने लगे... सेना इकट्ठी करने लगे । श्रेणिक ने कुछ भी नहीं किया ! इसलिए एक दिन सभी राजकुमारों के समक्ष राजा ने कहा :
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बुद्धि का बादशाह ___ 'इस श्रेणिक ने कुत्तों के साथ खाना खाया, खाजा जैसी मिठाई के टुकड़ेटुकड़े कर दिये... जलते हुए घर में से केवल 'भंभा' वादित्र ले आया... इसलिये फिलहाल यह राजा बनने के लिए योग्य नहीं है... और फिर यह है भी कितना कंजूस! न तो हाथी-घोड़े खरीदता है... न ही सेना को सजाता है!'
९९ कुमार खुश हुए। श्रेणिक तो अपने पिता की बात का रहस्य जानता था, इसलिए कुछ भी बोला नहीं... वह मौन रहा। गंभीर बना रहा।
दो महीने बीत गये।
श्रेणिक के मन में तरह-तरह के विचार आते थे। उसे राजा प्रसेनजित के पश्चात् राजगद्दी पर बैठना था। यह बात वह भली-भाँति समझता था, मानता था। उसने सोचा :
'अभी तो पिताजी राज्य को सुचारु ढंग से सम्हाल रहे हैं...। मेरा राजमहल में ही जमे रहना उचित नहीं है! मेरी बुद्धि ... मेरी चतुराई, मेरी ताकत इसकी परीक्षा तो परदेश में घूमने-घामने से ही हो सकती है! परदेश में नये-नये अनुभव भी होते हैं... तरह-तरह के लोगों से मिलना होता है... अतः मुझे परदेश की यात्रा पर निकलना चाहिए। ___पर पिताजी मुझे परदेश जाने की इजाजत नहीं देंगे। उन्हें पूछे बगैर ही मैं चला जाऊँ तो बात बने! मुझे डर तो किसी बात का है ही नहीं! मैं शस्त्रकला जानता हूँ... तलवार के वार में कोई माई का लाल मुझे हरा नहीं सकता! और, मेरे गुरुदेव ने तो मुझे मंत्रशास्त्र और तंत्रशास्त्र का भी ज्ञान दिया है। मैं मंत्र प्रयोग जानता हूँ। तंत्र के प्रयोग भी कर सकता हूँ। औषधशास्त्र में भी मेरी बुद्धि पहुँचती है! इन सब जानकारियों का अच्छी तरह उपयोग तो परदेश में ही हो सकता है! देश-विदेश में ही मौका मिल सकता है! यहाँ से मुझे निकल जाना चाहिए।'
आधी रात का समय था। राजमहल में नीरव शांति थी।
कुमार श्रेणिक पलंग पर से खड़ा हो गया। श्री नवकार महामंत्र का स्मरण किया । खड़े होकर दीवार पर लटकती तलवार ली और कमर में बाँध दी।
अंधेरे मे वह बड़ी सावधानी के साथ चला। राजमहल के पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकला। सभी गुप्त रास्ते वह जानता था। उसने एक जंगल का रास्ता लिया। लंबे-लंबे कदम रखता हुआ वह चलने लगा।
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बुद्धि का बादशाह ___ बड़ी निर्भयता के साथ चलता हुआ श्रेणिककुमार, सबेरे-सबेरे एक पर्वत की तलहटी में जा पहुँचा | जगह बड़ी सुहावनी और रम्य थी। धीरे-धीरे वह पहाड़ पर चढ़ने लगा। उसने वहाँ पर एक गुफा देखी । गुफा के भीतर जाकर देखा तो गुफा खाली थी। वहाँ न तो कोई आदमी था... न किसी पशु-पक्षी के रहने के आसार नजर आ रहे थे! उसने उसी गुफा में आराम करने का तय किया।
उस पर्वत का नाम था वज्रकर | पर्वत काफी ऊँचा था। पेड़ों के झुरमुट व हरियाली से भरापूरा था। श्रेणिक गुफा में जाकर लेटा... और गहरी नींद में सो गया!
उस पर्वत का मालिक एक देव था! गुफा के भीतर उस देव की मूर्ति थी। देवों को विशिष्ट ज्ञान रहता है... उस देव ने अपने ज्ञान से सोये हुए श्रेणिक को देखा। श्रेणिक के भूतकाल-भविष्यकाल को देखा। देव के दिल में कुमार के लिए प्यार उभरने लगा।
पुण्यशाली आदमी पर देवों की कृपा उतरती है। देव ने श्रेणिक को एक स्वप्न दिया :
'कुमार, यहाँ से ६ मील की दूरी पर दक्षिण दिशा में एक नदी है। उस नदी के किनारे पर पीपल के दो पेड़ों का जोड़ा है। जैसे कि दोनों हाथ मिलाकर गले मिल रहे हों... वैसे दो पेड़ खड़े हैं | उस पेड़ की एक डाली पर एक पत्थर है... उस पत्थर के अनेक गुण हैं! उस पत्थर में महाप्रभावशाली १८ रत्न हैं। उन रत्नों का प्रभाव मैं तुझे बताता हूँ। तू ठीक से याद रखना।
१. पहले रत्न के प्रभाव से सभी तरह के आदमी वश में होते हैं। २. दूसरे रत्न के प्रभाव से सभी तरह के जहर उतर जाते हैं। ३. तीसरे रत्न के प्रभाव से किसी भी तरह का उपद्रव नहीं होता है।
४. चौथे रत्न के प्रभाव से राजा, मंत्री और श्रेष्ठिजनों की ओर से मानसम्मान मिलता है।
५. पाँचवें रत्न के प्रभाव से पुत्र की प्राप्ति होती है। पुत्र जन्म के पश्चात् समृद्धि बढ़ती है।
६. छठे रत्न के प्रभाव से दिव्य सुख मिलते हैं। ७. सातवें रत्न के प्रभाव से पानी की बाढ़ में तैरा जा सकता है।
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बुद्धि का बादशाह
८. आठवें रत्न के प्रभाव से विवेक जाग्रत होता है।
९. नौवें रत्न के प्रभाव से शरीर पर किसी भी प्रकार के शस्त्र का प्रहार नहीं होता।
१०. दसवें रत्न के प्रभाव से गुरु के बिना भी ज्ञान प्राप्त होता है। ११. ग्यारहवें रत्न के प्रभाव से शस्त्र लगते नहीं है। १२. बारहवें रत्न के प्रभाव से जन्मान्ध व्यक्ति भी देख सकता है। १३. तेरहवें रत्न के प्रभाव से अग्नि में शरीर जलता नहीं है। १४. चौदहवें रत्न के प्रभाव से वस्तु की सत्यासत्य परीक्षा की जा सकती है। १५. पंद्रहवें रत्न के प्रभाव से भूख नहीं लगती... प्यास भी महसूस नहीं होती।
१६. सोलहवें रत्न के प्रभाव से आदमी को रास्ते से गुजरते हुए शेर-चीते वगैरह हिंसक पशुओं से सामना नहीं होता!
१७. सत्रहवें रत्न के प्रभाव से रूप-परिवर्तन किया जा सकता है |
१८. अठ्ठारहवें रत्न के प्रभाव से शरीर के सभी रोग दूर हो जाते हैं और सभी लोग चरणों में गिरते हैं।
कुमार, तू समझदार है... सयाना है। वह पाषाण देखना। अठ्ठारह रत्न लेकर, नाम लिखकर तू उन्हें अपने पास रखना । उन रत्नों की हमेशा पूजा करना । मेरा नाम हमेशा तेरे दिल में रखना।
उस नदी के किनारे पर जाकर तू उस वृक्ष की छाया में विश्राम करेगा... इतने में वह पाषाण प्रगट होगा और आकाश में चला जाएगा।
कुमार, उन रत्नों का जो प्रभाव मैंने तुझ से कहा है... उसे सच मानना । शंका मत करना । अब तेरे पुण्यकर्म प्रगट होनेवाले हैं... यह जानकर मैंने तुझ से यह बात कही है। २० साल तक इन रत्नों का प्रभाव क्रमशः बढ़ता रहेगा। इसके बाद तो इनका प्रभाव अजब-गजब का बढ़ेगा।'
सपना पूरा हो गया।
कुमार की आँखें खुली। जगकर उसने अपने इर्दगिर्द देखा। फिर उसने ३०० नवकार मंत्र का स्मरण किया। और इसके बाद वह दक्षिण दिशा की ओर चलने लगा।
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बिकना चंदन वृक्ष का
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२. बिकना चंदन वृक्ष का
८
कुमार श्रेणिक नदी के किनारे पर पहुँचा । वहाँ उसने देव के कहे मुताबिक दो पेड़ों को आपस में लिपटे हुए खड़े देखा। पेड़ की डाली पर श्वेत पाषाण भी था । श्रेणिक को देव के दिये गये स्वप्न पर पक्का भरोसा हो गया ।
उसने दोनों हाथ जोड़कर उस पाषाण को नमस्कार किया । पाषाण एकदम सीधे ही कुमार के समक्ष आकर गिरा। उसमें से एक के बाद एक रत्न बाहर निकलने लगे। कुमार ने उन रत्नों के प्रभाव को याद करके सभी रत्नों पर अलग -अलग निशान बना डाले। वह पाषाण आकाश में अदृश्य हो गया । कुमार ने उन रत्नों को अपने उत्तरीय वस्त्र में लपेट लिया और कमर पर कस कर बाँध दिया। कुमार की खुशी दुगनी - चौगुनी हुई जा रही है। वह अपने मन में सोचता है:
'राज्य, संपत्ति, श्रेष्ठ भोगसुख, उत्तम कुल में जन्म, सुन्दर रूप, विद्वता, दीर्घ आयुष्य और शरीर का आरोग्य - यह सब धर्म के ही फल होते हैं, ऐसा मैंने मेरे गुरुदेव से जो सुना है ... वह शत-प्रतिशत सही है । '
कुमार नदी के किनारे-किनारे चलने लगा। उसे अब जोरों की भूख लगी थी। उसने किनारे पर चंपक, अशोक, पुन्नाग, माकंद और रायन के पेड़ देखे । उसके मन को पेड़ भाये । वह उन पेड़ों के बारे में जानता था । किस पेड़ का फल खाया जा सकता है... और किस पेड़ का नहीं, यह वह भलीभाँति जानता था। उसने जी भरकर फल तोड़े और पेट भरकर खाये। नदी का मीठा पानी पिया... और किनारे पर अठखेलियाँ करते मृगशावकों के साथ खेलता-खेलता वह आगे बढ़ा ।
रात उतर आई जमीन पर । उसने नदी के किनारे पर ही एक सुहावन पेड़ की छाया में मुलायम पत्तों का बिछौना बनाकर आराम करने की तैयारी की । परमात्मा का स्मरण करते-करते वह लेट गया। कुछ देर में तो श्रेणिक गहरी नींद लेने लगा। निर्भय और निश्चिंत आदमी को जंगल में भी मीठी नींद आ जाती है।
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इस तरह दिन बीतने लगे। रातें गुजरने लगी। कुमार आगे ही आगे बढ़ता जाता है। पेड़ों के फल खाता है... नदी का मीठा जल पीता है... पर्वतों पर से, चट्टानों पर से गिरते और बहते हुए झरनों को देखता है... मयूरों का नृत्य देखकर उसका जी मचल उठता है । यह सुख... यह आनंद... उसे लगता है इसके आगे राजमहल का सुख तो तुच्छ है...!!!
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बिकना चंदन वृक्ष का
एक ओर उछलती-कूदती नदी बह रही है... तो दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वतों की श्रेणियाँ सिमटी सी खड़ी हैं। बीच में कुमार चला जा रहा है...। कभी गुनगुनाता है... कभी मुस्कराता है...। कभी खामोशी की चादर में लिपट जाता है!
एक बार सबेरे-सबेरे वह चल रहा था कि अनायास उसकी निगाहें एक पहाड़ी के शिखर पर जा गिरी! वह देखता ही रह गया! शिखर पर एक युवती-भील कन्या खड़ी थी। उसने शरीर पर मयूरपंख का शृंगार रचाया था। उसके पैरों में घुघरूवाली पैजनियाँ छनक रही थी। उसने भी कुमार को देखा... वह वेग से नीचे उतरने लगी। पैजनियों की खनखनाहट से पूरा जंगल मुखरित हो उठा।
वह सुंदर रूपसी भीलकन्या कुमार के समक्ष आकर खड़ी हो गई। दोनों एक दूजे को जी भरकर निहारने लगे। श्रेणिककुमार का लुभावना रूप देखकर भीलकन्या खुश-खुश हो उठी। वह आँखें नचाती हुई बोली : ___'कुमार, आज तुम्हारे जैसे खुबसूरत और सलोने युवक को पाकर मैं धन्य हो उठी हूँ। इस प्रदेश का आधिपत्य मेरे पिता के हाथों में है। मैं उनकी इकलौती बेटी हूँ। तुम्हें देखते ही मेरा मन तुम पर मोहित हो उठा है। मैं तुम्हारे साथ शादी करना चाहूँगी। अरे... मन से तो मैं तुम्हारे साथ शादी कर ही चुकी हूँ। इसलिए कुमार, तुम मेरे साथ प्यार की बातें करो... चलो, मेरे साथ चलो!'
कुमार मौन रहा। उसने भीलकन्या के सामने देखा सही... पर स्मित तक नहीं किया। चुपचाप वह भीलकन्या की बहकी-बहकी बातें सुनता रहा। भीलकन्या कुमार की चुप्पी से अकुला उठी। उसकी आवाज में नाराजगी रिसने लगी। __ 'कुमार, यदि तुम मेरे साथ शादी करोगे तो मेरे पिता तुम्हें इस इलाके का राजा बना देंगे। और यदि मेरी बात से इन्कार किया तो बुरी मौत तुम्हें मरना होगा। याद रखना... मैं तरह-तरह के मंत्र-तंत्र जानती हूँ | ढेर सारी औषधियों का मुझे ज्ञान है! मेरे पास एक ऐसी औषधि है कि मै चाहूँ तो आदमी को जानवर बना दूं और जानवर को आदमी का रूप दे दूँ! एक दवाई खिलाकर आदमी को बंदर बना दूं तो वह उछलता... कूदता हुआ मेरे पीछे ही चलता रहेगा। तीसरी दवाई से मैं बंदर को मनुष्य भी बना सकती हूँ|
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बिकना चंदन वृक्ष का
१०
मैं बाघ-सिंह से भी डरती नहीं हूँ। मैं अकेली जंगलों में निर्भय होकर घूमती रहती हूँ। भूत-प्रेत या पिशाच का मुझे भय नहीं है! चोर लुटेरे या साँप - सँपेरे भी मुझे डरा नहीं सकते! नदी में कितना ही पानी चढ़ा हो, मैं आराम से तैर सकती हूँ। बड़े से बड़े हाथी को भी उसका कान खींच कर खड़ा रख सकती हूँ... हाँ... बस एक अग्नि ही ऐसी चीज है ... जिससे मैं दूर रहती हूँ !
तुम जिस इलाके में खड़े हो, वह इलाका सौ कोस की लंबाई का है । तुम भागकर भी कहीं नहीं जा सकते ! इसलिए मेरा कहना मानो और मेरे साथ शादी रचा लो। तुम चाहो या मत चाहो ... मेरे साथ शादी किये बगैर तुम बच नहीं सकते!'
कुमार शांति से स्त्री की बातें सुनता रहा । उसने अपने चेहरे पर जरा भी घबराहट या बेचैनी की रेखाएँ उभरने न दी। उसने अपने मन में सोचा :
‘यह स्त्री तो डायन सी है! इससे मैं शादी कैसे कर सकता हूँ? यह नीच जाति की है... ताकतवाली है... और धूर्त भी है। इसके साथ यदि शादी करूँ तो यह मुझे पूरा ही फँसा डाले ! और फिर इसके साथ शादी करने से मेरे उच्च कुल पर कलंक चढ़ेगा, मेरी उच्च जाति पर कलंक लगेगा । मेरा क्षत्रिय कुल भील कुल की बराबरी पर उतर जाएगा ।
इससे शादी करूँ तो मुझे इसके हाथ का खाना खाना पड़ेगा, इसके भील पिता को झुकना पड़ेगा, इससे तो मेरे महान् पिता का अपमान ही होगा ! नहीं, किसी भी हालत में मैं इसके साथ शादी नहीं कर सकता। उत्तम - अच्छे कुल में पैदा होकर जो लोग अधम के साथ दोस्ती रचाते हैं- रिश्ता बनाते हैं... वे भी अधम हो जाते हैं ।
मुझे एक बार मेरे गुरु ने कहा था कि विधाता ने इस संसार में दुष्ट औरत के रूप में एक फाँसी ही बनाई है... उसमें भले भोले लोग, जाने-अनजाने में फँस जाते हैं। दुष्ट औरतें झूठ, साहस, माया, मूर्खता, अतिलोभ, निःस्नेह और निर्दयता-इन सात दोषों से भरी होती हैं। यह स्त्री तो है भी राक्षसी ही! इससे तो दूर रहना ही अच्छा ! किसी भी कीमत पर इस औरत के फंदे से बचना होगा ।
कुमार उस भील कन्या की ओर निगाह किये बगैर ही सीधा चलता रहा । धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा। उसने अपनी कमर में बंधे हुए रत्नों को याद किया। उनके प्रभावों को याद किये । वह भील कन्या उसके पीछे-पीछे चलने लगी।
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बिकना चंदन वृक्ष का
११ ___ आगे बढ़ते-बढ़ते श्रेणिक ने दूर से जंगल में दावानल सुलगता हुआ देखा... देखते ही उसने तेरहवें रत्न का स्मरण किया और दौड़ता हुआ जाकर उस दावानल में कूद गया। __ वह भीलकन्या तो अग्नि से घबराती थी! वह दूर ही खड़ी रही! कुमार ने उसे आवाज लगाई... 'ओ कन्या, यदि तुझे मेरे साथ शादी करनी है... तो यहाँ पर चली आ ।'
भीलकन्या का चेहरा श्याम हो गया। वह अपने मन में सोचती है : 'मुझे पता नहीं था कि इस युवक के पास भी मंत्रशक्ति होगी...। यह तो बड़ा जादूगर है... आग में गिरकर भी जलता नहीं है! मैंने बड़ी जल्दबाजी की। उसने मुझे ठग डाला | पर अब मैं वैसी गलती नहीं दोहराऊँगी। अब मुझे मेरे योग्य युवक मिलेगा तब मैं उसका विनय करूँगी। उसे डर लगे वैसी बात नहीं करूँगी। यदि मैं इस युवक के समक्ष मीठी जबान में चिकनी-चुपड़ी बातें करके इसकी दासी बन गई होती तो? यह जरूर मेरे मोहपाश में बंध जाता! मैंने खुद अपने मुँह अपनी बड़ाई हॉककर सारा खेल बिगाड़ दिया। वह मंत्रतंत्र का जानकार था। खैर, मैं खुद ही अभागिनी हूँ| अभागिनी के हाथ में रत्न टिकेगा भी कैसे? मैंने मूर्खता की... मेरा सारा ज्ञान उसे बता दिया... अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?' वह रोने-कलपने लगी। उसे अब मैं रोक भी नहीं सकती!' यों समझकर वह पर्वत के शिखर पर जाकर वापस खड़ी हो गई।
श्रेणिक दावानल में से निकलकर सर पर पाँव रखकर भागा, कलकल बहती हुई गंगानदी के किनारे पर पहुँचा | नदी के किनारे पर एक बहुत बड़ा चंदन का सूखा हुआ पेड़ उसने देखा। श्रेणिक फटाफट उस पेड़ पर चढ़ गया... जैसे ही श्रेणिक पेड़ पर चढ़ा कि वह बड़ा भारी वृक्ष टूटा और सीधा ही गंगा के प्रवाह में गिरा।
कुमार ने उसी वक्त सातवें 'जलतारक' रत्न को याद किया। पेड़ पर बैठा हुआ कुमार नदी में बहने लगा। जैसे किसी जहाज में बैठा हो... वैसी निश्चितता के साथ कुमार पेड़ पर जमा रहा।
एक के बाद एक यों दिन बीतने लगे। उसने पंद्रहवें रत्न का स्मरण किया। न तो भूख सताती है... न प्यास याद आती है! इस तरह पूरे २० दिन बीत गये, तब उस चंदनवृक्ष के साथ कुमार बेनातट नगर के किनारे पर जा पहुँचा।
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बिकना चंदन वृक्ष का
१२
चंदनवृक्ष किनारे पर अटक गया । वृक्ष की सुवास पूरे नगर में फैलने लगी । लोग सोचने लगे :
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'इतनी मदमस्त चंदन की खुशबू कहाँ से आती है ?' सभी लोग नदी के किनारे की ओर जाने लगे। देखते ही देखते हजारों स्त्री-पुरुष चंदनवृक्ष के पास एकत्र हो गये ।
एक धनाढ्य नागरिक ने कुमार से पूछा :
'ओ व्यापारी, इस चंदनवृक्ष की कीमत क्या है ? '
कुमार ने कहा : ‘यह पेड़ मैं तो सोने के बराबर तोलकर दूँगा । इतना बड़ा और भारी चंदनवृक्ष तो किसी राजा के खजाने में भी देखने को नहीं मिलता है!'
लोग काफी एकत्र हो गये थे। नगरसेठ ने सोचा : 'लोभ-लालच से प्रेरित होकर ये सारे लोग चंदनवृक्ष को लूटने न लग जाएं !' इसलिए नगरसेठ ने ऊँची आवाज में घोषणा की :
‘ओ नगरवासी भाइयों, अब तुम यहाँ से दूर खिसको! यह जवान व्यापारी अकेला है। और अपने तो बहुत लोग हैं! इसका जरा सा भी चंदन यदि चोरी हुआ तो वह अपनी चोरी कही जाएगी। यह व्यापारी है... अपन भी व्यापारी हैं। इसलिए यह परदेशी व्यापारी अपना साधर्मिक ही माना जाएगा। कोई भी इस चंदनवृक्ष को हाथ नहीं लगाएगा। यदि किसी ने इसे छुआ तो वह चोर माना जाएगा। राजा उसे सजा करेगा ।'
नगरसेठ की घोषणा सुनकर सभी लोग अपने-अपने घरों की ओर चल दिये । जिन्हें चंदन खरीदना था - वे व्यापारी ही वहाँ पर खड़े रहे। उन्होंने कुमार से कहा :
'नौजवान व्यापारी, हम लकड़ी काटने के लिए आरी, कुल्हाड़ी वगैरह साधन ले आते हैं... बड़ा तराजू भी साथ-साथ ले आएंगे... एक पल्ले में चंदन व दूसरे में सोना रखकर हम तेरी इच्छानुसार चंदन खरीदेंगे।'
कुमार श्रेणिक प्रसन्न हो उठा ।
पूरा चंदनवृक्ष गिनती की पलों में बिक गया ।
उसे काफी सोना मिला। उसने सोने के बदले में कीमती रत्न खरीद लिये । व्यापारी लोग चंदन ले लेकर अपने-अपने घर को चल दिये।
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बिकना चंदन वृक्ष का
श्रेणिककुमार ने सोचा : ___ मैं यहाँ आया हूँ... तो इस नगर को घूमघाम कर देख भी लूँ! पर अब मेरे पास लाखों की कीमत के रत्न हैं... और लोग मुझे जान भी गये हैं। मैं अकेला हूँ। शायद कभी कोई धूर्त लोग लोभ के कारण मुझे लूटने का प्रयास भी करें! इसलिए बेहतर होगा कि मैं रत्न के प्रभाव से अपना रूप बदल डालूँ!' उसने सत्रहवें रत्न की स्मृति की... उसका रूप बदल गया। उसने दर्पण में देखा... अपना बदला हुआ रूप देखकर वह हँस पड़ा!
उसने सभी रत्न ठीक से सम्हालकर अपने पास रखे थे।
उसने नगर में प्रवेश किया। नगर के राजमार्ग पर चलते-चलते उसने एक बड़ी दुकान देखी... पर दुकान पर ग्राहकों की आवाजाही खास थी नहीं। उसने सोचा : 'चलो... थोड़ी देर इस दुकान पर सुस्ता लूँ।' वह दुकान धनसेठ की थी। कुमार दुकान पर जाकर बैठ गया।
अभी तो पाँच मिनट ही हुए थे कि इतने में धनसेठ की दुकान पर ग्राहकों का टोला इकट्ठा हो गया । धनसेठ को उस दिन काफी कमाई हुई। धनसेठ चकोर थे... उन्होंने कुमार को दुकान के भीतर बैठा हुआ देखा | उन्होंने सोचा :
'यह युवक भाग्यशाली लगता है! इसके पुनित आगमन से ही मुझे आज इतनी कमाई हुई है। वरना एक दिन में इतने रुपये मैंने कब कमाये थे! देव के द्वारा दिये गये स्वप्न के मुताबिक ही यह युवान आया लगता है।' धनसेठ ने कुमार से कहा : __'परदेशी जवान! देख... इधर एक बर्तन में मींढल के फल हैं, दूसरे में रोहिणी वृक्ष की छाल है... तीसरे बर्तन में यव है... यह सब मैं कल ही खरीद कर लाया हूँ। इधर यह गलोसत्व... कचूरा वगैरह भी चौथी छाबड़ी में है। त्रिफला, सुंठ, सिंधव वगैरह पाँचवें बर्तन में है। कुमार, इसमें से तुझे जो भी चाहिए, बिना झिझक या संकोच के तू ले ले।'
कुमार जरा हंस दिया। उसने कहा : 'सेठ, तुम तो बड़े उदार नजर आते हो... पर मुझ पर इतना प्यार बरसाने का कुछ कारण? हालाँकी, लगता है... उदारता तुम्हारा स्वभाव ही होगा।'
धनसेठ भी मुस्करा उठे। उन्होंने कहा : 'परदेशीकुमार, इस दुनिया में सभी को स्वार्थ ही प्रिय है... परमार्थ तों किसी बिरले को ही प्रिय होता है!'
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सुनन्दा
१४ ‘पर सेठ, तुम्हें मुझ से क्या स्वार्थ है? मैं एक अनजान परदेशी ठहरा!' कुमार ने पूछा।
सेठ ने कहा : 'कुमार, कल रात में किसी देव ने आकर स्वप्न में मुझ से कहा : 'ओ धनसेठ, सबेरे सूर्योदय के बाद ढाई घंटे बीतने पर पूर्व दिशा की ओर से कोई बीस साल की उम्र का सुंदर युवान तेरी दुकान पर आएगा। उसने सफेद कपड़े पहन रखे होंगे। वह युवान तेरी सभी आपत्तियों को दूर करेगा।' ऐसा स्वप्न देकर देव तो बरसाती बिजली की भाँति अदृश्य हो गया।
सुबह में उठकर मैंने सोचा कि 'यह स्वप्न उत्तम है। स्वप्नशास्त्र के मुताबिक देव, ब्राह्मण, गाय, माता, पिता, साधु और राजा इतने लोग स्वप्न में जो कुछ कहें, वह सही समझना। सच मानना।' कुमार ने पूछा : 'सेठ, तुम स्वप्नशास्त्र जानते हो क्या?' सेठ ने कहा :
हाँ भाई! एक ज्ञानी महात्मा ने मुझे स्वप्नशास्त्र सिखलाया है। तुझे सुनना है...? स्वप्न में गाय, घोड़ा, हाथी और देव काले रंग के दिखाई दे तो अच्छा... इसके अलावा यदि कुछ काला दिखाई दे तो वह नुकसान करनेवाला होता है। कपास, छाछ, नमक यदि सफेद दिखाई दे तो बुरी... इसके अलावा जो सफेद दिखाई दे वह अच्छा होता है! सपने में जो गीत गाता है... सबेरे उठकर उसे रोने के समाचार मिलते हैं! स्वप्न में जो नाचता है... सबेरे उठने पर उसके हाथ पैरों में बेड़ियाँ लगती हैं | स्वप्न में जो हँसता है... वह जगकर रोता है। जो स्वप्न में पढ़ाई करता है... उसके जाग्रत होने पर आपत्ति घेर लेती है।'
कुमार ने सोचा : 'ये सेठ भोले हैं... जो जानते हैं... वह सब कह देते हैं... कुछ भी छुपाते नहीं हैं!'
कुमार ने दुकान के पिछवाड़े हिस्से में एक वस्तु का ढेर देखा और चौंकते हुए सेठ से पूछा :
'सेठ, यह क्या है? किसकी है यह?'
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सुनन्दा
१५
३. सुनन्दा
धनसेठ ने कहा : 'परदेशी कुमार, यह तो एक जहाज है। कुछ दिन पहले हुई एक दर्दनाक एवं बड़ी शर्मनाक कहानी इसके पीछे जुड़ी हुई है! __यह जहाज समुद्र में जा रहा था। चोरों ने उस जहाज को पकड़ लिया। जहाज के कुछ आदमी तो जान बचाने को समुद्र में कूद पड़े, जबकि कुछ चोरों के हाथ पकड़े गये | चोर लोग जहाज को इस नगर के किनारे पर खींच लाये ।
चोरों का सरदार मेरे पास आया और ढेर सारी कीमती वस्तुओं से लदे इस जहाज का मेरे साथ सौदा किया। मुझे तब मालूम नहीं था कि यह चोरी का-लूट का जहाज है! मैंने तो कीमत देकर जहाज खरीद लिया।
उस जहाज के जो कुछ आदमी समुद्र में कूद पड़े थे... उसमें से दो-पाँच व्यक्ति बच गये । तैरते हुए हमारे नगर के किनारे पर आ पहुँचे। उन्होंने राजा से जाकर अपनी जहाज की लूट के बारे में शिकायत की। राजा ने जहाज की तलाश करवाई। जहाज तो मेरे पास था। राजा मुझ पर बड़े नाराज हुए... मुझे कड़ी सजा दी। मेरा नगरसेठ का पद छीन लिया। मेरी सारी धनसंपत्ति ले ली। सोना-चांदी... जवाहरात, गहने सब ले लिये | अरे, जहाज में जो संपत्ति थी वह भी राजा ने अपनी तिजोरी में भर ली। केवल उस जहाज में जो धूल थी... रेत थी... वह ज्यों की त्यों पड़ी रहने दी! मेरी भयंकर तौहीन हुई। सबके सामने मेरा अपमान हुआ | मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई। मैं उस जहाज को यहाँ पर ले आया हूँ... और दुकान के पीछे के भाग में रख छोड़ा है! और तो क्या करूँ? जहाज में रेती के बोरे भरे थे... उसमें से कुछ रेत निकालकर मैंने इस दुकान के आगे डलवा दी... ताकि बारिश के दिनों में कीचड़ नहीं हो! बाकी के सब बोरे दुकान के कोने में ढेर करके रख दिये हैं!'
'फिर इस जहाज का क्या करोगे?' कुमार ने पूछा। ___ 'पाँच-सात दिन में जहाज को नदी में बहा दूँगा... उसे रखकर करूँ भी क्या? कुमार, वास्तव में मेरा नाम 'धन' है... फिर भी आज मैं निर्धन हो गया हूँ। लोग मेरी मजाक करते हैं। ___ 'यह धन सेठ चोरों का जोड़ीदार है' वैसा इल्जाम मढ़ते हैं। यह सुनकर कुमार, शायद तुम भी मुझ पर हँसोगे... पर मैं क्या करूँ? मुझे कुछ सूझता
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सुनन्दा ही नहीं! मेरी तो अक्ल ही काम नहीं करती! और तो और, राजा अब मेरी दुकान... मेरा घर लेने का भी इरादा करता है! क्या करूँ? मुझे गाँव छोड़कर चले जाना होगा! जिस नगर में मैंने हवेली बनवाई... धंधा-धापा करके लाखों रुपये कमाये... नगरसेठ की पदवी प्राप्त की... उसी नगर में आज मुझे रुखासूखा खाकर ठंढ़ा पानी पीना पड़ता है... फटे हुए कपड़े सी-सी कर पहनने पड़ते हैं | मन ऐसा होता है कि आत्महत्या करके जिन्दगी को समाप्त कर दूँ!
कुमार, इस दुनिया में बगैर पैसे के आदमी शोभा नहीं देता! नीतिशास्त्र में कहा है कि 'वीरान जंगल में रहना बेहतर है, बजाए निर्धन स्थिति में स्वजनों के बीच रहने के! ___ बात करते-करते तो धनसेठ की आँखें आँसुओं से गीली हो उठी। यह देखकर श्रेणिककुमार का कोमल हृदय दुःखी-दुःखी हो उठा! उसके मन में धनसेठ के लिए सहानुभूति पैदा हुई। उसका मन बड़ा ही कोमल था।
ज्ञानी पुरुषों ने कहा है :
कोमल चित्त, मधुर वचन, प्रसन्न दृष्टि, क्षमायुक्त शक्ति, निष्पाप बुद्धि, परोपकार करनेवाली संपत्ति... शीलयुक्त रूप, अभिमान रहित विद्वत्ता और नम्रता पूर्ण बड़प्पन-ये नौ बातें अमृत के कुंड जैसी होती हैं।
कुमार ने धनसेठ से कहा : 'सेठ, तुम्हारे पास ढेर सारी संपत्ति होने पर भी तुम मौत क्यों माँग रहे हो? मेरी समझ में नहीं आता!'
'कुमार, तुम धन की बात परे रहने दो... मेरे घर में तो खाने के लिए अनाज भी पूरा नहीं है!
कुमार ने कहा : 'सेठ, मेरी एक बात मानो, इस जहाज में जो रेत है... वह वास्तव में धन ही है। तुम इसको सम्हाल कर रखो। तुमने ये दुकान के आगे जो रेत बिछा रखी है... वह भी कीमती है... रात में उसे एकत्र करके दुकान के कोने में बोरा भर कर रख देना। आगे जाकर यह रेत धन होनेवाली है!
और.. यह लो, मैं तुम्हें रत्न देता हूँ...। तुम इससे धंधा करना-व्यापार करना । तनिक भी चिंता मत करना। राजा खुद खुश होकर तुम्हारे घर पर आएगा! और तुम्हारे स्नेही-स्वजन भी दौड़े-दौड़े आएंगे। ___ मैं दूसरे गाँव-नगर में घूमकर वापस आऊँ... तब तक ये रत्न तुम्हारे पास ही रखना।'
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सुनन्दा
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सेठ ने चिंतित स्वर में कहा :
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'कुमार, यह तुम क्या बोल रहे हो? तुमने जाने की बात कही ? मेरा दिल तो दहल उठा है तुम्हारी बात सुनकर ! नहीं, तुम कहीं पर भी जाने की बात मत करो। तुम्हारी मीठी और सहानुभूतिभरी वाणी से तो मुझे कितनी शांति मिली है, कितना बल मिला है। मुझे लगता है कि मैंने आपत्तियों का दरिया पार कर लिया है! अब तुम मुझे क्या वापस दुःख के सागर में फेंक देना चाहते हो? नहीं...नहीं...अच्छे - गुणी लोग ऐसा कभी नहीं करते! तुम तो वास्तव में कल्पवृक्ष की भाँति हो! तुम यदि चले जाओगे तो यह धूल, धूल ही रह जाएगी, वह कभी धन नहीं हो सकती !
१७
और कुमार, यह धूल-रेत बेचने से जो भी लाभ होगा उसमें तुम्हारा आधा हिस्सा रहेगा । यदि तुम यहाँ नहीं रहना चाहते तब फिर मैं भी जीकर क्या करूँगा? मुझे तुम्हारे रत्न नहीं चाहिए। मैं तो इस नदी में कूदकर आत्महत्या कर लूँगा ! तुम्हे जाना है तो खुशी से चले जाओ!'
सेठ की दर्दभरी विनती सुनकर कुमार का दिल भर आया। उसने कहा : 'सेठ, एक शर्त पर मैं यहाँ रहना पसंद करूँगा !'
'अरे, एक क्या... अनेक शर्त मेरे सर आँखों पर... यदि तुम कबूल करते हो तो!’
यहाँ रहना
कुमार ने कहा : 'तुम कभी भी मुझसे नहीं पूछोगे कि मेरे माता-पिता कौन हैं ? मेरा गाँव कौन सा है... और मेरा कुल कौन सा है ? बोलो, हैं ये सारी शर्तें कबूल ? हाँ... तुम मुझे गोपाल कहकर बुलाना... समझना यही मेरा नाम है!'
सेठ ने कहा : 'बिल्कुल कबूल है तुम्हारी शर्तें ! मैं तुम्हें कुछ भी नहीं पूछूंगा। मुझे क्या मतलब है ... तुम्हारे माता-पिता या तुम्हारे गाँव के नाम से? मुझे तो तुम्हारी बुद्धि की जरुरत है...! तुमने इस रेत में सोना देखा है.... तुम ही इसे बेचना । जो भी हम कमाएंगे, आधा-आधा बाँट लेंगे!'
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अभी तक न कुमार ने, न सेठ ने दातुन भी किया था ! दातुन करने का समय कभी का हो चुका था ।
सेठ की लड़की जो कि युवानी की दहलीज पर पाँव रख रही थी, वह एक दातुन व पानी का लोटा लेकर दुकान में आई । वहाँ उसने कुमार को देखा : 'यह कोई मेहमान लगते हैं,' सोचकर लड़की ने दातुन को चीरकर दो
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सुनन्दा
१८ टुकड़े किये व सेठ और कुमार को दिये। दोनों ने दातुन-कुल्ला वगैरह किया। दातुन करते हुए कुमार की निगाहें सेठ की लड़की की निगाहों से मिली। पहली ही नजर में दोनों के दिल में स्नेह के अंकुर फूट निकले! लड़की तो घर में चली गई। दातुन-पानी करके सेठ व कुमार ने दुकान पर ही थोड़ा थोड़ा दूध पी लिया।
सेठ ने कहा : 'कुमार, तुम यहीं बैठो, मैं घर पर जाकर वापस आता हूँ।' कुमार दुकान पर बैठा। सेठ घर में गये, इतने में सेठ की बेटी ने सेठ को एक कोने में ले जाकर कहा : 'पिताजी, मुझे आप से एक बात कहनी है। हालाँकि मुझे ऐसी बात करते हुए शरम आती है... परंतु मन मानता ही नहीं है बात किये बगैर ।' ___ 'बेटी, तेरे मन में जो भी है... वह मुझे बता दे... इसमें तनिक भी संकोच रखने की जरुरत नहीं है! बोल, तुझे क्या कहना है?' ___ 'पिताजी, अपनी दुकान पर जो परदेशी युवक आया है... उसे पहली नजर देखते ही मेरे मन में न जाने क्या हो रहा है! समझ में नहीं आता... मैं क्या कहूँ? मुझे वह मन ही मन अच्छा लगने लगा है...। मैंने तो मन ही मन निश्चय कर लिया है कि यदि मैं शादी करूँगी तो इस युवक के साथ ही... यदि आप इस युवक के साथ मेरी शादी मंजूर नहीं करेंगे तो फिर मैं संसार का त्याग करके साध्वी हो जाऊँगी!'
सेठ ने कहा : 'पगली, क्या बक रही है तू? कुछ तुझे अता-पता भी है? यह युवक तो दूर देश से आया हुआ है!... अभी तो यह अनजान परदेशी है! मैंने इससे ज्यादा बातचीत भी नहीं की है! अभी तो तू जा... और घर में जाकर इस मेहमान के लिए भोजन का प्रबंध करने के लिए तेरी माँ से बोल!'
सुनंदा दौड़ती हुई... घर में अपनी माँ के पास गई! एक ही सांस में माँ से कहने लगी :
'माँ, अपनी दुकान पर दूर देश से एक परदेशी मेहमान आया है... उसके लिए आज बढ़िया से बढ़िया खाना बनाने का है!'
माँ ने कहा : 'बेटी, बढ़िया खाना बनाने के लिए बढ़िया चीजें चाहिए! घी चाहिए... शक्कर चाहिए... बादाम और इलायची चाहिए... बेटी, अपने पास पैसे कहाँ है?'
सुनंदा ने कहा :
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सुनन्दा
१९ 'माँ... मेरी एक बात सुन! तू मुझे कभी-कभी मिठाई खाने के लिए पैसे देती थी ना? मैंने वह पैसे बचाए रखे हैं... वे सारे के सारे पैसे मैं तुझे दे देती हूँ...| तू उसमें से बढ़िया-बढ़िया चीजें ले आ और मेहमान के लिए अच्छामजेदार खाना तैयार कर दे!' ___ 'अरे... वाह रे... मेरी लाड़ली! क्या बात है? आज इतनी उदार हो चली है! वैसे तो कभी मैं खुद पैसे माँगती हूँ तो मुझे ठेंगा बताती है... नाक भौं सिकोड़ती है... और आज खुद सामने चलकर मुझे पैसे दे रही है...! क्या हो गया जो उस परदेशी के लिये तेरे मन में इतना स्नेह उभर आया है?' 'माँ, सच कहूँ?' 'हाँ, बोल ना!'
'माँ... मैं उस परदेशी युवक का मन से वरण कर चुकी हूँ! शादी करूँगी तो उसी के साथ! वरना मैं संसार का त्याग करके साध्वी बन जाऊँगी!'
सुनंदा की बहकी-बहकी बात सुनकर उसकी माँ गुस्से से बौखला उठी। चीखती हुई बोलीः ___ 'मरी... तुझे कुछ लाज-शरम है भी या नहीं?
तू दुकान में गई ही क्यों? वहाँ तेरा काम क्या था? तू हर किसी सुंदर युवक को देखेगी और शादी करने को तैयार हो जाएगी!
हाय... हाय! तू मुई! हाथ से ही गई! पर याद रखना... इस तरह बेशरम होकर जो लड़कियाँ बकवास करती हैं... अंत में वे दुःखी होती हैं! तू तो अपने ऊँचे कुल में पैदा हुई है... फिर भी तू बेहया होकर बकवास कर रही है... कहाँ गई तेरी लाज शरम?'
सुनंदा ने कहा : 'ओह माँ! तू शांत हो...! पहले कभी मैंने तुझे इतना भयंकर गुस्सा करते हुए नहीं देखी! आज क्या हो गया तुझे? तू ऐसी बुरी बात मत कर! मैं तेरी पुत्री हूँ। मैंने कुछ भी गलत कार्य नहीं किया है! तू और मेरे पिताजी मुझे इजाजत दोगे तो ही मैं उस युवक के साथ शादी करूँगी-अन्यथा दीक्षा ले लूँगी... यह मेरा पक्का निर्णय है।'
माँ-बेटी की बात चल रही थी कि धनसेठ आ पहुंचे।
श्रेणिककुमार भी घर के आँगन में आ पहुँचा। धनसेठ ने माँ-बेटी का वार्तालाप सुना था। अपने मन में तनिक सोचकर उन्होंने सेठानी से कहा :
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२०
सुनन्दा
'सुनंदा की माँ, यह श्रेष्ठ वर [श्रेणिककुमार की ओर उंगली कर के अपने घर पर आया है। इधर अपनी बेटी भी विवाह लायक हो गई है। इन दोनों की शादी रचा दी जाए तो कितना अच्छा! मुझे तो यह जोड़ी पसंद है। जैसे कि चन्द्र और रोहिणी! जैसे रति और कामदेव! जैसे कृष्ण और रुक्मणी, जैसे इन्द्र और इन्द्राणी!
सुनंदा की माँ! योग बड़ा दुर्लभ प्राप्त हुआ है। शुभ कार्य में तो सैकड़ों विघ्न आते रहते हैं... पर सज्जनों को साहस करना चाहिए! हाँ... एक बात है... इस परदेशी का गाँव-गोत्र या माता-पिता कौन हैं-यह मैं जानता नहीं हूँ... उसे मैं पूछनेवाला भी नहीं। चूंकि इसी शर्त पर वह अपने घर पर आया है!'
सेठानी तो चुप रही... पर सुनंदा बोली : 'पिताजी, छोटे मुँह बड़ी बात लगे तो मुझे माफ करना। पर मैं भी न तो उनके गाँव का नाम जानना चाहती हूँ... न मुझे इनके माता-पिता का नाम जानना है... उनके कुल-गोत्र से मुझे कुछ वास्ता नहीं है! यदि वे मुझे स्वीकार करें, मुझे उनके साथ शादी करनी है, अन्यथा पिताजी, मुझे साध्वी हो जाने दो! मुझे दीक्षा दिलवा दीजिए।'
सेठानी ने कहा : 'बेटी, तेरे पिताजी और मेहमान पहले स्नान कर लें, देवपूजा कर लें... भोजन कर लें... इसके बाद आराम से बैठ कर सारी बात करेंगे।'
सेठानी ने मेहमान को एड़ी से चोटी तक सरसरी निगाहों से देख लिया। उसके मन को भी कुमार अच्छा लगने लगा था।
सेठ और कुमार ने स्नान करके देवपूजा की और फिर साथ में भोजन करने के लिए बैठे । सेठानी ने बड़े स्नेह के साथ दोनों को अच्छा-बढ़िया खाना बनाकर खिलाया। दोनों ने शांति से भोजन किया। भोजनोपरांत दोनों चित्रशाला में जाकर बैठे।
सेठ ने कुमार से कहा : 'कुमार, तुमने मेरे यहाँ पर आकर बहुत बड़ा उपकार किया है... फिर भी अभी एक और उपकार तुम्हें मुझ पर करना होगा।'
कुमार बोला :
'सेठ... मैंने कोई उपकार नहीं किया है! इसमें उपकार काहे का? मैंने तो मेरा कर्तव्य निभाया है! मेरे लायक कुछ भी कार्य हो तो खुशी के साथ कहें... मैं पूरी कोशिश करूँगा आपका हर कार्य करने की!'
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सुनन्दा
२१
सेठ ने कहा : ___ 'मेरी बेटी सुनंदा को स्वीकार करें| वह तुम्हें दिल से चाहती है! अरे! मन ही मन तो वह तुम्हारा वरण कर ही चुकी है। अब यदि तुम उसके साथ शादी करने का इन्कार करोगे तो वह संसार का त्याग करके साध्वी बन जाना पसंद करेगी... पर और किसी के साथ शादी का विचार भी नहीं करेगी!'
कुमार सोच में डूब गया! 'लड़की विवेकी है... धर्म की रुचिवाली है... और शीलवती है!' उसके दिल में सुनंदा के प्रति स्नेह तो पैदा हो ही गया था! फिर भी लड़की के दिल की बात जानने के लिए... उसने अपने मनोभावों को छुपाते हुए सेठ से कहा : __'महानुभाव, यह तुम्हारी लड़की तो कुछ पागल सी लगती है...। अरे, मेरा नाम-ठाम जाने बिना, कुल और गोत्र जाने बिना मेरे साथ शादी करने की बात कर रही है... यह क्या उसका पागलपन नहीं है? यह तो पूरी जिन्दगी का सवाल है... इसलिए पूरी संजीदगी से सोचना चाहिए।'
इतने में सुनंदा और उसकी माँ भी आकर समीप में नम्रतापूर्वक बैठ गये। कुमार की बात सुनकर सुनंदा नीची निगाहें रखती हुई बोली :
'पिताजी, ठीक है... उन्हें जो कहना हो सो कहें... मुझे पागल कहें या कम अक्ल की मानें... पर मेरा भी एक सवाल है... क्या राजहंस का भी कोई कुल पूछने जाता है? पिताजी, उनकी भाषा... उनकी आकृति ही उनकी उत्तमता की सूचक है!'
कुमार मन में सोचता है : 'सचमुच यह लड़की तो राजहंसी जैसी ही है! राजहंसी को जैसे मानसरोवर ही भाता है... वैसे ही यह लड़की मुझे पसंद कर रही है। उसे मुझसे भीतर का सच्चा प्रेम हो गया है! फिर भी... मैं इससे पूर्वी तो सही कि मेरे साथ ही शादी करने की जिद का कारण आखिर क्या है?'
कुमार ने सुनंदा से कहा :
'कुमारी... मैं तो अनजान परदेशी हूँ... आज यहाँ तो कल कहाँ? मेरा मिलना तो बादलों की छाँव सा है! मेरे साथ शादी रचाने में फायदा क्या होगा?'
सुनंदा का चेहरा चमक उठा... उसने कहा : 'आपकी बात सही है... बादलों के आधार पर ही तो सूरज और चाँद हैं।
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तेजमतूरी का कमाल
२२
बादलों के आधार पर ही बारिश निभती है... बादलों के सहारे ही आकाश के सारे तारे हैं! वैसे मैं भी आपके आधार पर ही हूँ... इसलिए मुझे स्वीकार करो... और आपके अपने परिवार का निर्माण करो!'
श्रेणिक ने कहा :
'सुनंदा... मेरे साथ तेरी शादी एक रुलानेवाला सपना बनकर रह जाएगी ! शादी हुई कि चार छह दिन में तो मैं यहाँ से परदेश की ओर प्रयाण कर जाऊँगा... रमते योगी और परदेशी का क्या भरोसा? मैं चला गया तब फिर तेरा क्या होगा ?'
सुनंदा ने उतनी मजबूती के साथ कहा :
'कुमार... मैं तो संसार को छोड़कर दीक्षा लेने का ही सोच रही थी .... बचपन में! यह तो अचानक... तुम्हारा मिलना हुआ... तुम्हें देखा... तो लगा, तुम से जनम-जनम का कोई नाता बाकी है ... पुरानी प्रीत के गीत फिर झनझना उठे और मैं मन ही मन तुम्हें वरण करने का संकल्प कर बैठी .... शायद शादी के बाद यहाँ से दूर कहीं चले भी जाओगे... तो मैं तुम्हारी यादों में अपनी जिन्दगी गुजारुँगी....! शीलव्रत का पालन करूँगी! मैं तुम्हारी राह में पत्थर नहीं बनूँगी! निश्चिंत होकर तुम परदेश चले जाना!'
सुनंदा का अडिग निर्णय व संकल्प देखकर कुमार मन ही मन प्रसन्न हो उठा । उसने सेठ से कहा :
'श्रेष्ठिवर्य, अभी जो समय है... वह श्रेष्ठ है... मैं इसी वक्त तुम्हारी बेटी के साथ शादी रचाऊँगा!'
धनश्रेष्ठि ने तुरंत आननफानन में शादी का उत्सव रचाया।
सुनंदा और श्रेणिक शादी के बंधन में बंध गये ।
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____ २३
तेजमतूरी का कमाल
४. तेजमतूरी का कमाल
सुनंदा और श्रेणिक के दिन आराम से कटते हैं। सुनंदा स्वयं को भाग्यशाली मानती हैं। श्रेणिक अपने आपको पुण्यशाली मानता है।
एक दिन की बात है। किस्मत करवट लेने लगी है।
धन सेठ और श्रेणिक दुकान पर ही बैठे थे। इधर-उधर की गपशप में लगे थे। इतने में बाजार में राजा की ओर से पीटे जा रहे ढिंढोरे के शब्द उन्होंने सुने।
श्रेणिक ने धन सेठ से पूछा : 'क्या बात है! यह ढिंढोरा किस बात का है?' धन सेठ ने कहा : 'कुमार, सवा लाख पोट में तरह-तरह का कीमती किराना माल भरकर 'देवनंदि' नाम का एक बहुत बड़ा व्यापारी आया है। उस देवनंदि के पास एक तोता है। वह तोता छह-छह महीने के अंतर से बोलता है। उसे जो भी सवाल पूछो... वह उसका सही जवाब देता है।
एक दिन देवनंदि ने तोते से पूछा :
'ओ तोते! तेजमतूरी अभी कहाँ पर उपलब्ध होगी?' तोते ने कहा : 'तेजमतूरी फिलहाल बेनातट नगर में मिलेगी।'
देवनंदि को तोते की बात पर पूरा भरोसा था। वह सवा लाख पोट पर माल सामान लादकर यहाँ आया है। कल ही वह राजदरबार में गया था और राजा को कीमती नजराना पेश किया।
राजा ने खुश होकर उससे पूछा : 'कहिए, सौदागर! हमारे नगर में कैसे आना हुआ?'
देवनंदि ने कहा : 'महाराजा, 'तेजमतूरी' चाहिए। वह लेने के लिए आपके नगर में आया हूँ।'
राजा ने अपने मंत्री से पूछा : ‘मंत्रीजी, इस सौदागर को तेजमतूरी कहाँ से प्राप्त होगी?' मंत्री को तो कुछ मालूम था नहीं! उसने कहा :
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तेजमतूरी का कमाल
२४ 'महाराजा, अपने नगर में तो कहीं भी तेजमतूरी मिले ऐसा हमें तो प्रतीत नहीं होता!'
राजा ने उदास होते हुए कहा : 'जहाँ पर सभी चीज-वस्तुएँ मिलती हों... जहाँ पर बड़े-बड़े श्रीमंत व्यापारी धंधा करने के हेतु आवाजाही करते हों, वही नगर कहलाता है! जहाँ सब वस्तुएँ उपलब्ध न हों... जहाँ बड़े व्यापारी आते-जाते न हों... उसे नगर कैसे कहा जा सकता है? वह तो खेड़ा-गाँव कहलाता है!'
महामंत्री ने कहा :
'महाराजा, निराश होने की जरूरत नहीं है... अपना नगर काफी बड़ा है... हो सकता है किसी के घर में तेजमतूरी मिल भी जाए! हम तलाश करवाने के लिए ढिंढोरा पिटवा दें... शायद तेजमतूरी हाथ लग जाए!'
'कुमार, राजा की आज्ञा से महामंत्री ने यह ढिंढोरा पिटवाया है!' श्रेणिक ने तुरंत धन सेठ से कहा : 'आज जरूर आपका पुण्योदय होनेवाला है। गई हुई सारी संपत्ति वापस आ मिलेगी। नगरसेठ का पद वापस मिलेगा। सारी इज्जत, शान-शौकत घर ढूंढ़ते हुए स्वयं चली आएगी! आप एक काम करें... जाकर इस ढिंढोरे की चुनौती स्वीकार कर लें!'
सेठ दुकान से खड़े हुए। श्री नवकार मंत्र का स्मरण किया और वे चौराहे पर आये | जाकर उस ढिंढोरे को स्पर्श करके स्वीकार कर लिया। ढिंढोरा पीटनेवाले आदमियों ने जाकर राजा से निवेदन किया कि 'महाराजा, धन सेठ ने ढिंढोरा स्वीकार कर लिया है।'
'अरे! वाह! धन सेठ ने ढिंढोरा स्वीकार किया है।' पर उस मुफलिस के पास है क्या? उसकी सारी संपत्ति तो मैंने जप्त कर ली है... उसके पास तो पत्थर भी नहीं होंगे! होगी तो मिट्टी होगी इसके पास! लगता है... उसकी संपत्ति जाने से या तो वह होश में नहीं है! या फिर नींद में से उठकर सोचे समझे बगैर ढिंढोरे को स्वीकार कर लिया लगता है! ठीक है... पहले उसे मेरे पास बुला लाओ... मैं उनकी तेजमतूरी देखूगा। बाद में उस परदेशी व्यापारी देवनंदि के साथ परिचय करवाऊँगा!'
राजसेवक धन सेठ की दुकान पर गये।
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तेजमतूरी का कमाल
२५
राजसेवकों को दुकान की ओर आते हुए देखकर धन सेठ ने कुमार से
पूछा :
'कुमार, राजसेवक मुझे बुलाने के लिए आ रहे लगते हैं; बोलो... अब क्या किया जाए ?'
कुमार ने अपने पास से एक रत्न निकालकर सेठ को दिया और कहा : 'इस रत्न को उत्तरीय वस्त्र के छोर से बाँध कर आप जाओ... यह 'राजवशीकरण' रत्न है। रास्ते में इस रत्न का स्मरण करते हुए जाना । इस रत्न के प्रभाव से राजा तुम पर प्रसन्न हो उठेगा । और ये अन्य रत्न जो मैं दे रहा हूँ... वे राजा को नजराना रख देना । राजा जरूर देवनंदि के साथ व्यापार करने का हक तुम्हें प्रदान करेगा।' श्रेणिककुमार ने दूसरे कीमती रत्नों से भरा थाल सेठ को दिया ।
राजसेवक आये सेठ की दुकान पर और सेठ से बोले
;
'सेठजी, चलिए ... राजसभा में ! राजा आपको याद कर रहे हैं!'
सेठ तुरंत खड़े हुए और थाल लेकर राजसेवकों के साथ चल दिये।
राजसभा में जाकर सेठ ने राजा को प्रणाम किया । और रत्नों से भरा हुआ थाल राजा को भेंट किया । 'राजवशीकरण' रत्न के प्रभाव से सेठ को देखते ही राजा प्रसन्न हो उठा । राजा यह पूछना भी भूल गया कि 'सेठ, तुम ये रत्न लाये कहाँ से? मैंने तो तुम्हारी सारी संपत्ति जप्त कर ली थी!'
राजा ने महामंत्री को आज्ञा की :
'महामंत्री, देवनंदि को जो भी व्यापार करना हो... वह धन सेठ के साथ ही करे । और कोई व्यापारी यदि ज्यादा धन दे भी सही... तब भी व्यापार करने का हक धन सेठ के पास ही रखना ।'
फिर राजा ने धन सेठ से कहा :
'सेठ, तुम इस परदेशी व्यापारी देवनंदि को जो भी माल चाहिए वह दिलाना ।'
धन सेठ ने कहा :
‘महाराजा, इस व्यापारी से पूछिए... इन्हें जो तेजमतूरी चाहिए वह नई चाहिए या पुरानी ही चाहिए ?' राजा तो धन सेठ की बात सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। 'इस धन सेठ ने तो मेरे राज्य की शान रखी।' राजा ने धन सेठ से कहा :
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२६
तेजमतूरी का कमाल
'धन सेठ, तुम्हें तुम्हारा नगरसेठ का पद मैं वापस करता हूँ।' यों कहकर सेठ के सिर पर सुंदर पगड़ी बंधवाई और कीमती वस्त्र भेंट किये।
देवनंदि को साथ लेकर धन सेठ अपनी दुकान पर आये। देवनंदि बड़ा ही चतुर व्यापारी था। उसने धन सेठ के सामने देखा और सुवर्ण का बिजोरा निकाल कर सेठ के सामने भेंट कर दिया। धन सेठ ने कहा :
'महानुभाव, यह भेंट इस कुमार के सामने रखो... मेरा सारा कारोबार ये ही देखते हैं। तेजमतूरी के जानकार भी ये ही हैं!' ।
देवनंदि ने दूसरा सुवर्ण बिजोरा निकाल कर कुमार को भेंट किया। देवनंदि सोचता है : 'सचमुच, धनसेठ कितने विनम्र और विवेकी हैं! साथ ही चतुर भी हैं। अपने से छोटे आदमी की भी कद्र करते हैं! जिस नगर में ऐसे श्रेष्ठि रहते हों वह नगर और देश धन्य बनता है!'
देवनंदि ने श्रेणिककुमार की ओर देखा... गौर से देखा... उसे श्रेणिक का चेहरा कुछ परिचित सा दिखाई दिया। उसने कुछ याद किया और वह बोला : 'कुमार, मैंने तुम्हें कहीं देखा है... शायद राजगृही में देखा है।' कुमार यह सुनकर चौंक पड़ा। उसने चालाकी से जवाब दिया... 'अरे बड़े सेठ! 'राजगृह' यानी राजा का घर! घर यानी बंधन! मैं तो चाहता हूँ कि राजा का बंधन मेरे दुश्मन को भी नहीं हो! पर मेरे सेठ... यदि तुम्हें ऐसी बातें ही करनी हो तो और किसी दुकान पर जाइये... वहाँ से जो माल चाहिए ले लीजिए...। मैं भला क्यों राजा के बंधन में होऊँगा?'
बेचारा देवनंदि घबरा गया । वह श्रेणिक के पैरों में गिर गया। उसने कहा :
'मुझे माफ कर दीजिए... ऐसे शब्द मुझे नहीं बोलने चाहिए थे! फिर भी मुँह से निकल गये... मैं क्षमा माँगता हूँ।'
श्रेणिक ने हँसकर कहा : 'सेठ, बुरा मत मानना... यह तो दो पल मजाक कर लिया! चलिए... अब मैं आपको तेजमतूरी बताता हूँ| पहले तेजमतूरी में से सोना बनाने की रीत समझाता हूँ :
पहले आधा तोला तेजमतूरी को आग में डालने की। उसमें बीस तोला तांबा डालने का... तेजमतूरी के संयोजन से तांबा सोने में बदल जाएगा।'
देवनंदि ने कहा : 'मुझे तेजमतूरी दिखाइये।'
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२७
तेजमतूरी का कमाल
धन सेठ ने तेजमतूरी का नमूना दिखाया। देवनंदि सोचता है :
कितना किस्मतवाला है यह सेठ! इसके घर में तेजमतूरी के बोरे भरे पड़े हैं, फिर भी इसमें नम्रता... विवेक... कितने सारे गुण हैं! उसने धन सेठ से कहा 'मैं मेरी सवा लाख पोट यहाँ ले आता हूँ!'
देवनंदि की पोटें आ गई। पोटों में रत्न थे... सोना था... चांदी थी... वस्त्र थे... चंदन... कपूर और कस्तूरी थी। कीमती किराना भरा हुआ था । धन सेठ और श्रेणिक ने देवनंदि के साथ वस्तुओं की अदला-बदली की।
व्यापार किया। बड़ा व्यापार हुआ। देवनंदि ने काफी तेजमतूरी खरीदी। धन सेठ ने देवनंदि की हजारों पोटें खरीद ली।
धन सेठ ने देवनंदि से कहा :
'आप हमारे मेहमान हो, आपको हमारे साथ ही भोजन करना है... इससे पहले हम देव पूजा कर आएं।
धन सेठ, श्रेणिक और देवनंदि स्नान करके पूजन के स्वच्छ वस्त्र पहनकर मंदिरजी में पूजा करने के लिये गये। जिनमंदिर के निकट के बगीचे में से जूही के सुंदर खुशबूदार फूल ले आये और उन्होंने श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा की। बाद में गीत, गान और नृत्य के द्वारा भावपूजा की। तीनों घर पर आये। भोजन किया। परस्पर बातचीत की। आराम किया। देवनंदि ने कहा : 'अब हमें महाराजा के पास चलना चाहिए।'
सुंदर वस्त्र धारण किये और धन सेठ व देवनंदि राजसभा में गये । राजा को प्रणाम करके देवनंदि बोला : 'महाराजा, आप धन्य हैं... आप पुण्यशाली हैं... कि ऐसे धन सेठ जैसे बड़े और गुणी व्यापारी आपके नगर में रहते हैं। वे जैन धर्म का सुंदर पालन करते हैं। मुझे तो इन धन सेठ से सात धातु, नौ निधान और चौदह रत्न प्राप्त हुए हैं। महाराजा, मैं आपसे विनम्र विनती करता हूँ कि इस धन श्रेष्ठि को आप औरों की तरह सामान्य व्यापारी मत समझना । मैं कई नगरों में घूमा हूँ... घूमता हूँ... पर ऐसा व्यापारी मैंने कहीं पर नहीं देखा है!
राजा देवनंदि की बातें सुनकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ। राजा ने देवनंदि का कीमती वस्त्र व अलंकार देकर स्वागत किया।
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तेजमतूरी का कमाल
बेनतट नगर में धन श्रेष्ठि और देवनंदि श्रेष्ठि की प्रशंसा होने लगी। लोग कहने लगे : __ 'जब से धन श्रेष्ठि के घर पर परदेशी कुमार आया है... तब से धन श्रेष्ठि की दिन ब दिन उन्नति हो रही है। धन श्रेष्ठि की पुत्री सुनंदा भी कितनी भाग्यशाली है! कितना रूपवान, गुणवान और पुण्यशाली पति उसे मिला है!'
धन श्रेष्ठि के साथ देवनंदि घर पर आया । श्रेणिककुमार ने स्वागत किया। तीनों हवेली के मुख्य खंड में एकत्र हुए।
देवनंदि ने कहा : 'महानुभाव! अब मैं यहाँ से प्रयाण करूँगा। आपने मेरा बहुत ध्यान रखा है... मुझे काफी कमाई करवाई है... मुझे जो वस्तु चाहिए थी वह मुझे दी है... मैं आप दोनों को कभी भी नहीं भुला सकता! आप भी मुझे भुला मत देना!'
देवनंदि की आँखों में आँसू आ गये। श्रेणिक ने कहा : 'श्रेष्ठिवर्य, हम तुम्हें कैसे भुला सकेंगे? तुम इस नगर में आये तो धन सेठ की किस्मत भी पलटी। तुम्हारे कारण ही उन्हें उनका नगरसेठ पद वापस मिला है। ढेर सारी संपत्ति उन्हें प्राप्त हुई है।'
धन सेठ बोले :
'महानुभाव, जो कुछ भी अच्छा हुआ है... वह इन कुमार के आने से ही हुआ है... अपना जो रिश्ता कायम हुआ है... वह हमेशा बढ़ता ही जाएगा। जब तब संदेश भिजवाते रहेंगे और पत्र भी लिखते रहेंगे। आप खुशी के साथ पधारिये।'
श्रेणिक ने कहा : 'श्रेष्ठिवर्य, आपका मार्ग निर्विघ्न हो... आपका कल्याण हो... आपके मनोरथ पूर्ण हो... कभी मौका आये तो हमें अवश्य याद करना।'
देवनंदि ने बेनातट नगर से प्रयाण किया। श्रेणिक ने धन श्रेष्ठि से कहा : 'अब हमें अपनी नई संगमरमर की हवेली बनवानी चाहिए | बेन्नातट नगर में किसी की भी न हो वैसी अद्भुत और आलीशान हवेली का निर्माण करवाना चाहिए | बाहर से कुशल कारीगरों को, शिल्पियों को बुलवाकर काम चालू करवा दें!'
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२९
तेजमतूरी का कमाल
धन सेठ ने हाँ कही। हवेली का कार्य जोरशोर से प्रारंभ हो गया।
इधर धन सेठ रोजाना राजसभा में जाने लगे। राजा का प्रेम भी बढ़ता गया।
श्रेणिक ने सदाव्रत चालू कर दिया। रोजाना सैकड़ों आदमी लोग सदाव्रत में खाना खाने लगे| धन सेठ का जयजयकार होने लगा।
जो श्रीमंत लोग पहले धन सेठ की बुराई करते थे... मजाक उड़ाते थे... अब वे आ-आ कर धन सेठ की चापलूसी करने लगे। धन सेठ से मिलने के लिए घर-दुकान के चक्कर काटने लगे!
धन सेठ की हवेली में अब नृत्यकार आते हैं, नाचगानों की महफिल जमती है। संगीतकार आते हैं... संगीत के सूरों का शामियाना तनता है... हास्यविनोद करने वाले आते हैं... और हँसी-मजाक की फूलझड़ियाँ बिखरती हैं।
धन सेठ के घर पर आया हुआ कोई न तो भूखा वापस लौटता है... न ही प्यासा वापस जाता है! कोई निराश नहीं होता! जिसे जो चाहिए वह मिलता
चारों ओर गाँव-गाँव और नगर-नगर में धन सेठ का नाम गूंजने लगा। साथ ही श्रेणिककुमार और सुनंदा के गुण भी गाये जाने लगे।
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अंधी राजकुमारी देखे लगी
५. अंधी राजकुमारी देखने लगी
राजमहल सी रमणीय हवेली में श्रेणिक और सुनंदा आराम से दिन बिताते हैं! दोनों के बीच प्रेम हमेशा बढ़ता रहता है! सुनंदा श्रेणिक की हर इच्छा को समझने की कोशिश करती है... और उस मुताबिक अपने आप को ढालती है। श्रेणिक भी सुनंदा की भावना को जानता है... उसे पूरी करने की कोशिश करता है!
दोनों के बीच कभी कोई झगड़ा नहीं होता है! दोनों के बीच कभी कुछ मनमुटाव नहीं होता है! दोनों में कभी कोई खीझता नहीं कि गुस्सैल स्वर में डांटता-डपटता नहीं!
प्यार-मनुहार और इकरार के वातावरण में शादी किये हुए दोनों के दो साल गुजर गये, जैसे सावन के आकाश में बदली गुजरती हो!
श्रेणिक ने वहाँ से आगे परदेश में जाने का विचार छोड़ दिया! उसे मनचाहा सब कुछ वहीं मिल गया था।
एक दिन सुनंदा गर्भवती हई। उसका रूप-लावण्य दिन-प्रतिदिन निखरने लगा। खूबसूरती का दरिया उसके चेहरे पर निखरने लगा। परंतु कभी-कभी वह उदास हो जाती। उसकी आँखो में बरबस नमी छा जाती। फिर भी वह श्रेणिक की उपस्थिति में हँसती... खुशहाल रहने की ही कोशिश करती। ___ एक बार सुनंदा चेहरे पर उदासी का बोझ लिये... सर पर हाथ रखे अकेली बैठी थी...। इतने में उसकी माँ वहाँ जा पहुँची! माँ ने सुनंदा को देखा...। वह कुछ बोली नहीं, वैसी ही उल्टे पाँव वापस लौट आई...। पर कुछ ही देर में श्रेणिक स्वयं सुनंदा के पास जा पहुँचा। उसकी आँखों में नमी की बदली को तैरते देखकर श्रेणिक सकपका गया। 'क्या हुआ होगा इसे? मैं पूछूगा तो यह मुझे कुछ भी बताने से कतराएगी...।' श्रेणिक ने जाकर सुनंदा की माँ से कहा : 'जाने क्यों... आपकी बेटी दिन-प्रतिदिन सूखती जा रही है...! उसके मन में क्या है, क्या पता? तुम उसे आग्रह करके मन की बात का पता लगाओ...
और मुझे कहो! शायद उसके मन में कोई इच्छा हो, जो पूरी नहीं हो रही हो! यदि तुम उससे पूछोगी नहीं... और उसकी इच्छा पूरी नहीं होगी तो उसका जीना दुश्वार हो जाएगा!'
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३१
अंधी राजकुमारी देखे लगी
'कुमार... मुझे भी ऐसा ही कुछ लगा! ठीक है, मैं अभी उसके पास जाकर के उसके मन की बात जानती हूँ और फिर तुम्हें बताती हूँ।'
सुनंदा की माँ सुनंदा के पास पहुंची। उसके निकट पलंग पर बैठकर उसने बड़े प्यार से पूछा : __'क्या हुआ है बेटी तुझे? तेरी आँखों में आँसू क्यों? तुझे किस बात का दुःख है? क्या कुमार ने तुझसे कुछ कहा है?'
'नहीं... नहीं माँ! वैसा कुछ भी नहीं है! उन्होंने तो कभी मेरा दिल भी नहीं दुःखाया है!' __'तब फिर तेरा शरीर दिन-प्रतिदिन यों कृश क्यों हुआ जा रहा है? तेरी काली कजरारी आँखों में खुशी के फूलों की जगह आँसू के साये क्यों? तेरे मन में जो भी हो, मुझे कह दे मेरी लाड़ली! मुझे नहीं कहेगी तो किससे बोलेगी अपने जिये की बात! बेटी अपने सुख-दुःख की बात अपनी माँ से ही तो कहती है! माँ से क्या कुछ छुपाए रखेगी?'
'माँ...मैं क्या कहूँ? मेरे मन की बात तुझे कहने का कोई अर्थ नहीं है! मेरे मन में जो इच्छा पैदा हुई है... वह कोई भी पूरी नहीं कर सकता! और यदि मेरी मनोकामना अधूरी रही तो शायद मेरे प्राण ही...।' _ 'नहीं बेटी! ऐसी बुरी बात नहीं निकालते मुँह से! क्यों इतनी निराश हो बैठी है? इस दुनिया में ऐसी भी भला कौन सी बात है जो अपने कुमार के लिए अशक्य हो... असाध्य हो! तूने देखा नहीं क्या? दो साल पहले अपनी क्या तो हालत थी और आज यह शान-शौकत सब किसके कारण है? इतनी समृद्धि और सिद्धि किसकी बदौलत है? इसलिए तू मन में तनिक भी शंकासंदेह रखे बगैर तेरे मन की बात मुझसे कह दे री!'
सुनंदा को माँ की बात में सच्चाई नजर आई। उसे भी लगा की मेरे पति के लिए कुछ भी अशक्य या असहज नहीं है! उसका मन आश्वस्त हो उठा। उसने जमीन कुरेदते हुए कहा : ___ 'माँ, न जाने कैसे... पर जब से कोई उत्तम आत्मा मेरे पेट में गर्भरूप में आई है... तब से तरह-तरह की कल्पनाएँ-कामनाएँ मन में उठती हैं... समुद्र में उठते ज्वार की भाँति! मेरे मन में होता है : 'मैं गजराज पर बै→ एक राजरानी की तरह! रोजाना राजमार्ग पर से दान देती हुई जिनेश्वर भगवान के मंदिर में जाऊँ! परंतु जब मैं घर से निकलूं... तब राजा भी उसके परिवार
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अंधी राजकुमारी देखे लगी
३२ के साथ मेरे आगे-आगे चले... मंदिर जाकर... सुंदर-खुशबूदार फूलों से मैं परमात्मा की पूजा करूँ... मधुर स्वर में स्तवना करूँ!
मैं चाहती हूँ कि मेरे आगे राज्य के वादित्र बजे... नृत्यकार नृत्य करें... मेरे सिर पर राजपुरुष छत्र को धारण करें... याचक वर्ग जो भी माँगे... मैं उन्हें वह दूँ । साधर्मिकों को भोजन करवाकर वस्त्र-अलंकार दूं...। शील धर्म का पालन करूँ...। चैत्यों के जिनदर्शन करूँ! वंदना करूँ! साधुपुरुषों को शुद्ध व श्रेष्ठ आहार का दान करूँ!' _ 'माँ, ये हैं मेरे मनोरथ! ये हैं मेरे मन की कल्पनाएँ! क्या ये पूरी हो सकती है? तू ही बता!'
माँ ने खुश होकर कहा : 'बेटी, तू तनिक भी चिंता न कर... अल्प समय में तेरे ये मनोरथ अवश्य पूरे होंगे! तू जरा भी निराश मत होना!'
सुनंदा का मन कुछ हर्षित हुआ। उसकी माँ पुलकित होती हुई कुमार श्रेणिक के पास गई और दोनों मंत्रणागृह में पहुँचे...। वहाँ उसने कुमार से सारी बातें कही। सुनंदा के मनोरथों की बात बतायी। धन सेठ को भी वहाँ बुला लिया गया।
श्रेणिक का मन भी प्रसन्न हो उठा | उसने सोचा : 'जिस गर्भवती स्त्री को ऐसे मनोरथ पैदा होते हैं... उसका कारण उसके उदर में कोई महान भाग्यशाली जीव आया होता है...। ज्ञानी पुरुषों से मैंने सुना है कि धर्मकार्य की इच्छा महान पुण्योदय से ही होती है,... और यदि वह इच्छा पूरी होती है तो सोने में सुहागा मिल जाता है!'
कुमार ने सास से कहा :
'माताजी, परमात्मा की अचिंत्य कृपा से तुम्हारी बेटी की इच्छा अवश्य पूरी होगी।'
'कुमार, मुझे तो तुम पर जमाने भर का भरोसा है।' सेठानी प्रसन्न एवं संतुष्ट होकर वहाँ से चल दी।
मंत्रणागृह में धन सेठ और कुमार दो ही थे। कुमार ने कुछ पल मन में सोचकर के सेठ से पूछा :
'सेठ, आपके राजा को एक बेटी थी... वह जन्म से ही अंधी थी...'
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अंधी राजकुमारी देखे लगी
'हाँ... कुमार... राजा को उसकी बड़ी चिंता बनी रहती है!'
'क्या अब भी वह जीवित है ?'
‘जीती है... और अब तो वह युवानी की दहलीज पर पहुँची है...। वह तो अक्सर कहती रहती है... ' यदि मुझे आँखें मिलती तो मैं संसार का त्याग कर के साध्वी हो जाती! परंतु क्या करूँ? मैं बदनसीब ! जन्म से ही अंधी...' और वह दिन-रात करुण रुदन करती है...। तपश्चर्या भी बहुत करती है।
३३
अरे ... कुमार! यदि तुम उसे देखो तो अंधी मान ही नहीं सकते ! इतनी सुंदर और खुली हुई उसकी आँखें हैं! राजमहल में तो सभी उसे सुलोचना ही कहते हैं !
राजा को वह कुँवरी इतनी तो प्रिय है कि गलती से भी किसी ने राजकुमारी को ‘अंधी' कह दिया तो राजा उसे फाँसी पर लटका देता है! परंतु कुमार, इस वक्त तुम उस कुँवरी के बारे में क्यों पूछ रहे हो ?
'आपकी बेटी के मनोरथ पूर्ण करने के लिए । '
'वह कैसे? इसका उसका क्या संबंध है?'
'राजकुमारी को यदि आँखों की रोशनी मिले... वह देखने लगे तो राजा हम पर प्रसन्न हो उठेगा न?'
'वह तो है... पर राजकुमारी की दृष्टि वापस लाना कैसे ?'
'यह मेरे पर छोड़ दो... उसका उपाय मैं बताता हूँ ।'
'ओह, तब तो अपना कार्य चुटकी बजाते हुआ समझो!'
'देखो... मैं तुम्हें यह रत्न देता हूँ। तुम इसे लेकर राजा के पास जाओ... । राजा से कहो कि राजकुमारी को मैं दृष्टि देता हूँ...। आप राजकुमारी को यहाँ लिवा लाईये। फिर इस रत्न को, सोने के प्याले में पानी भरकर उसमें डुबोने का। वह पानी राजकुमारी की आँखों पर छींटने का ! राजकुमारी अवश्य देखने लगेगी! फिर राजा खुश होकर तुमसे कहेगा.....
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'सेठ, तुमने मेरे ऊपर महान उपकार किया है... तुम जो वचन माँगो .... मैं देने के लिए तैयार हूँ!' तब तुम कह देना 'महाराजा, मेरी बेटी की इच्छा पूरी करने की कृपा करें ।' राजा जरूर इतनी बात मान लेगा ।'
धन सेठ तो खुशी से नाच उठे । श्रेणिक को उन्होंने गले लगा लिया । दूसरे दिन शुभ मुहूर्त में सेठ रत्न लेकर राजमहल में गये... राजा ने सेठ
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अंधी राजकुमारी देखे लगी
३४
का प्रेम से स्वागत किया और पूछा : 'कहिए, सेठ, आज क्या बात है ? सबेरेसबेरे आ गये हो ... कुछ जरूरी काम आ पड़ा है क्या ?'
'महाराजा, काम तो अत्यंत जरूरी है... आप राजकुमारी सुलोचना को यहाँ बुलवाइये। राजेश्वर, परमात्मा की असीम कृपा उस पर उतरनेवाली है! आज उसे दृष्टि मिलेगी!'
'क्या कहते हो, सेठ! सच बोल रहे हो कि मजाक कर रहे हो?'
'महाराजा, आप के साथ मजाक करने की मेरी हैसियत है क्या ? और वह भी राजकुमारी को लेकर ! कभी नहीं! आप ऐसा करें ... सोने के प्याले में पानी मंगवाइये।'
राजकुमारी आ गई। सोने के प्याले में पानी भी आ गया। धन सेठ ने श्रेणिक का दिया हुआ रत्न जेब में से निकाल कर ... पानी में डाला... और उस पानी को लेकर राजकुमारी की आँखों पर छींटे दिये ।
जैसे कि चमत्कार हुआ !
राजकुमारी कुछ पल अपनी आँखें मलती रही... मसलती रही और यकायक खुशी से पागल हो उठी...
‘पिताजी... मैं देख रही हूँ... मेरी आँखें देख रही हैं... मैं आपको देख रही हूँ... मैं धन सेठ को देख रही हूँ... । खिड़की के बाहर वे हरे-भरे पेड़ पौधे .... ऊपर नीला आकाश... बादलों का कारवाँ... सब कुछ मैं देख रही हूँ... सच बापू! मुझे सब कुछ दिखाई देता है!' राजकुमारी उठकर नाचने लगी ।
राजा की आँखें हर्षाश्रु से छलछला उठी । राजा ने खड़े होकर धन सेठ को अपने बाहुओं में भर लिया ।
भर्रायी आवाज में बोले... ' सेठ, तुमने मेरे ऊपर... मेरे परिवार पर.... अरे मेरे राज्य पर महान् उपकार किया है... इस उपकार का बदला मैं कभी नहीं चुका सकूँगा... फिर भी मैं तुम्हें मेरा आधा राज्य भेंट करता हूँ ।'
'नहीं... नहीं... महाराजा, मुझे राज्य क्या करना है? आपकी मेरे ऊपर कृपा है... वह बस है! आपकी मेहरबानी ही मेरे लिए सब कुछ है... फिर भी एक अर्ज है आपसे!'
'बोलो, क्या कहना चाहते हो ?'
'मेरी बेटी सुनंदा की एक इच्छा है... वह आप पूरी करें... वैसी मेरी प्रार्थना है ! '
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३५
अंधी राजकुमारी देखे लगी
'अरे सेठ! तुम्हारी बेटी मेरी भी बेटी है... बोलो, उसकी क्या इच्छा है...? मैं उसकी इच्छा को अवश्य पूरी करूँगा!'
सेठ ने राजा से सुनंदा के मनोरथ के बारे में बतलाया। राजा तो खुश हो उठा। उसने कहा :
'अरे! सुनंदा की इच्छा तो अत्युत्तम है! अवश्य मैं उसके साथ जिनमंदिर में जाऊँगा!'
राजपरिवार एकत्र हो गया। सुलोचना को नई दृष्टि मिली, इसका सबको हर्ष था। नगर में भी तूफानी हवा की भाँति बात फैल गई। लोगों के टोले मिलकर राजकुमारी को देखने... उसको अभिनंदन देने राजमहल में आने लगे।
नगर के मंदिरों में उत्सव रचाये गये। धन सेठ की वाहवाही से धरतीआकाश गूंज उठे। __ श्रेणिक की पत्नी सुनंदा और राजकुमारी सुलोचना को राजा के पट्टहस्ति पर बिठाया गया। राजा का विशेष वादित्रदल सबसे आगे संगीत के सूर छेड़ने लगा। राजा-मंत्री-सेनापति और हजारों स्त्री-पुरुष उस जुलूस में शामिल हुए। सुनंदा के पास बैठी हुई दासी चामर डुला रही है... एक दासी सिर पर छत्र धारण किये हुए है। सुनंदा और सुलोचना गरीबों को मुक्त हस्त से दान दे रही है।
इस तरह सुनंदा ने नगर के सभी जिनमंदिरों में जाकर दर्शन-पूजन किये... बाद में जुलूस धन सेठ की हवेली पर पहुँचा। वहाँ पर स्वागतअल्पाहार व भेंट सौगात देने के पश्चात् जुलूस का समापन हुआ। सुनंदा की मनोकामना पूर्ण होने से वह हर्षोन्मत्त हो झूम रही थी। उसने घर पर अनेक साधु-साध्वीजी को निमंत्रित करके सुपात्र दान दिया।
राजा ने अपने राज्य में पशु-पक्षी की हिंसा बंद करवायी। नगर में घर-घर पर राजा ने घी के डिब्बों की प्रभावना की। भेंट दी। सभी हाट-बाजार व चौराहों पर तोरण बाँधकर... उन्हें सजाया गया।
सुनंदा और सुलोचना के बीच उसी दिन से गहरी दोस्ती रच गयी। एक दिन श्रेणिककुमार ने सुनंदा से कहा : 'देवी! अपने पुत्र का नाम 'अभयकुमार' रखेंगे!'
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अंधी राजकुमारी देखे लगी 'क्यों? यह नाम ही पसंद क्यों किया आपने?' 'क्योंकि तेरे मन में सभी जीवों को अभयदान देने की इच्छा पैदा हुई है ना? यह इच्छा उस आनेवाले जीव के व्यक्तित्व का इशारा है... सूचक है!'
'बिल्कुल सही बात है आपकी। अपने पुत्र का नाम हम अभयकुमार ही रखेंगे।'
इस तरह हँसते-हँसाते... खिलखिलाते दिन गुजरते हैं। रातें ढलती हैं श्रेणिक और सुनन्दा की।
इधर वह व्यापारी देवनंदि सार्थवाह अपने काफिले के साथ घूमता हुआ राजगृही नगरी पहुँचा। देवनंदि ने बेशुमार धन-दौलत कमायी थी। वह राजा को नजराना देने के लिए राजसभा में गया। राजा की कुशल पृच्छा की और कीमती रत्न व जवाहरात राजा के चरणों में भेंट किया। देवनंदि ने जान लिया कि राजा के निन्यानवे बेटे आपस में लड़ाई-झगड़ा कर रहे हैं। राजा खुद चिंतातुर हैं... संतप्त हैं। वह उस समय तो मौन रहा। अपने स्थान पर लौट गया।
श्रेणिक के चले जाने के बाद राजा प्रसेनजित के मन में शांति नहीं थी। रानी कलावती के सामने राजा ने कई बार अपने दिल की दुःखती रग को खुला किया था :
'मैंने बार-बार श्रेणिक का अपमान किया इसलिए वह मेरा लाड़ला मुझे छोड़कर चला गया। वह न जाने कहाँ होगा? क्या कर रहा होगा? उसके बिना न तो मुझे खाना भाता है, न ही जी कहीं लगता है। रातों की नींद भी हराम हो गई है! बार-बार उसकी याद आती है... उसके गुण याद आते हैं और जी भर आता है... वह क्या गया... मेरा तो सब कुछ मुझ से रुठकर चला गया! क्या वह जिन्दा भी होगा या नहीं? उसके जाने के बाद उसके बारे में कोई समाचार मुझे नहीं मिले हैं! क्या उस राजकुमार को किसी के वहाँ नौकरी करनी पड़ती होगी? क्या उसे घर-घर पर भटकना पड़ता होगा?' बोलते-बोलते राजा प्रसेनजित रो देते। रानी कलावती उन्हें आश्वस्त करती ': 'महाराजा, आप नाहक दुःखी मत होइये। अपना श्रेणिक तो बुद्धिशाली है... पुण्यशाली है... वह जहाँ भी होगा वहाँ सुखी होगा... और एक न एक दिन उसके समाचार हमें प्राप्त होंगे ही... आप निश्चिंत रहिए। मन को कड़ा कीजिए। यों रो-रोकर बिलखने से क्या?'
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अंधी राजकुमारी देखे लगी
३७
'देवी, मैं जानता हूँ कि संसार के ये सारे रिश्ते नाते व्यर्थ हैं.... फिजूल हैं... मिथ्या हैं, कौन किसका बेटा और कौन किसका पिता ? कौन पति और कौन पत्नी? सपनों की मायाजाल है ये सब कुछ ! अनंत अनंत जन्मों में सभी जीवों के साथ सभी प्रकार के संबंध रचाये हैं... और भविष्य में रचाये जाने हैं! फिर भी देवी! मोह में अंध बना जीव अक्सर मोहमूढ़ होकर शंका-कुशंका किया करता है... विकल्पों के जाले बुना करता है!'
इस तरह राजा प्रसेनजित अपने मन को मनाते हैं!
देवनंदि सार्थवाह रोजाना राजसभा में आता है । एक दिन देवनंदि ने जानबूझकर राजा से पूछा :
'महाराजा, आपको सौ बेटे हैं... यह मैं जानता था... पर यहाँ तो निन्यानवे ही हैं... एक बेटा कहाँ चला गया?'
राजा ने दुःखी मन से कहा :
‘श्रेष्ठि, मेरा एक प्रिय और बुद्धिमान पुत्र रुठकर, नाराज होकर राज्य छोड़कर चला गया है कहीं! उसका नाम है श्रेणिक !'
‘महाराजा, कुछ बरस पहले जब मैं आपके राजदरबार में आया था तब मैंने उस बुद्धिमान, रूपवान श्रेणिककुमार को देखा था!'
‘उसके बगैर मेरी तो जिन्दगी सूनी-सूनी हो गई है, श्रेष्ठि !'
'महाराजा, मैंने आपके उस लाड़ले बेटे को देखा है । '
‘क्या?' राजा प्रसेनजित सिंहासन पर से खड़ा हो गया... और देवनंदि के दोनों कंधे पकड़कर उसे हिला दिया ।
‘बेनातट नगर में आपका पुत्र कुशल है । धन सेठ की हवेली में मैंने उसे देखा है। जब मैंने उससे कहा कि 'कुमार, मैंने तुम्हें राजगृह में देखा था ।' तब उसने मुझे चुप करते हुए ताना कसा था कि 'राजग्रह तो मेरे दुश्मन को भी नहीं हो !'
राजा ने देवनंदि की बातों में सत्यता का अंश परखने के लिए तुनककर देवनंदि से कहा :
'सेठ... तुम इतना बड़ा झूठ क्यों बोल रहे हो? मेरा वह पुत्र तो आलसी.... मूर्ख और अधम प्रकृति का था... वह यहाँ से किसी से कुछ कहे बगैर चुपचाप चला गया है! भटक-भटक कर बेमौत मरेगा! अरे सार्थवाह! जो आदमी दूसरों
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३८
पिता की चिट्ठी आई! की अमानत हड़प जाता है या दूसरों को ठगता है... वह ज्यों दुःखी होता है... वैसे ही झूठ बोलनेवाला भी दुःखी होता है... इसलिए तुम्हें असत्य नहीं बोलना चाहिए!
यह सुनकर देवनंदि पहले तो ठिठक गया। फिर उसने धीरे से राजा के कान में कहा : __ 'जरा आप पास के मंत्रणाखंड में पधारिये... मैं आपको आपके लाड़ले के हालचाल बताता हूँ।'
राजा को मंत्रणागृह में ले जाकर देवनंदि ने कहा : 'महाराजा, यदि मैं झूठ बोलता होऊँ तो मुझे अमानत हड़पने का, विश्वासघात का, कन्याविक्रय का, स्त्री हत्या, गौहत्या का पाप लगेगा! मैंने बेनातट नगर में धन सेठ की दुकान पर राजहंस से श्रेणिककुमार को देखा । वह धन सेठ, कुमार की एक-एक बात को देव की आज्ञा की भाँति सिर-माथे पर चढ़ाता है। उस कुमार के कहने पर ही मैं धन सेठ की हवेली में गया था और मैंने तेजमतूरी खरीदी थी।
अरे... उस धन सेठ की एकलौती रूपसी बेटी सुनंदा के साथ श्रेणिक की शादी भी हो गई है। यह मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह बिल्कुल सत्य है... हकीकत है! मानना... न मानना आपकी इच्छा पर है! पर मुझे झूठ बोलने का या असत्य बात करने का कोई प्रयोजन नहीं है! आप भरोसा कीजिए मेरी बातों पर!'
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पिता की चिट्ठी आई!
- ६. पिता की चिट्ठी आई!
राजा प्रसेनजित हर्षविभोर हो उठे । उनकी आँखों में खुशी के आँसुओं का समुंदर उफनने लगा। गद्गद होते हुए उन्होंने देवनंदि से कहा :
'देवनंदि, तूने यह समाचार देकर मेरे ऊपर महान उपकार किया है। भाई, एक बात की सावधानी रखना... मेरे निन्यानवें पुत्रों से इस बात की जरा भी चर्चा नहीं करना!'
'जी महाराजा! आप निश्चित रहें। यह बात मेरे आपके बीच ही सीमित रहेगी। किसी को कुछ मालूम नहीं होगा।'
देवनंदि को बिदा करके महाराजा प्रसेनजित सोचने लगे : 'मेरा प्रिय पुत्र सुख में है... राजवैभव सा वैभव उसे मिला है... राजकुमारी जैसी श्रेष्ठ कन्या के साथ उसकी शादी हुई है। बस... वह सुखी है तो मैं भी सुखी हूँ ! आज आराम से मुझे नींद आएगी। परंतु एक बार मैं किसी बुद्धिशाली-चतुर राजपुरुष को संदेश देकर बेनातट श्रेणिक के पास भेजूं तो सही! यदि वह देवनंदि के कहे मुताबिक वास्तव में श्रेणिक होगा तो जरूर मेरी समस्या का जवाब देगा।'
राजा प्रसेनजित ने अपने विश्वस्त गुप्तचर सुमंगल को बुलाकर कहा : 'तुझे बेनातट नगर जाने का है। वहाँ पर नगरसेठ धन श्रेष्ठि के वहाँ जाना | उनकी हवेली में गोपालकुमार नाम का एक युवक है... उसे मेरा यह पत्र देना । और वह जो जवाब लिख कर दे, वह साथ लेकर वापस तुरंत लौट आना। कार्य जितना जल्दी करना है उतना ही गुप्त रखना है। किसी को कानोंकान भनक भी नहीं लगनी चाहिए।'
राजा ने पत्र लिखकर सुमंगल को दिया। सुमंगल पत्र लेकर राजा को प्रणाम करके वहाँ से निकला | उसी दिन एक श्रेष्ठ वेगवान घोड़े पर बैठकर वह बेनातट की ओर चल दिया।
'सेठ, मुझे गोपालकुमार से मिलना है!' 'बैठो, अभी कुमार खुद ही यहाँ आएँगे।' धन सेठ ने सुमंगल को मीठे शब्दों में कहा। इतने में प्राभातिक कार्यों से निपटकर श्रेणिक (गोपालकुमार) आ पहुँचा पेढ़ी पर!
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____४०
पिता की चिट्ठी आई!
'लो... ये आ गये गोपालकुमार!' सेठ ने सुमंगल से कहा। 'कहाँ से आ रहे हो, भाई?' श्रेणिक ने पूछा। 'राजगृही से!' 'ओह! अच्छा... चलो... पहले स्नान-देवपूजा वगैरह कर लो... फिर बात करेंगे।'
सुमंगल को लेकर श्रेणिक हवेली पर लौटा। सुमंगल ने एकांत देखकर महाराजा का पत्र उसके हाथ में सरका दिया। श्रेणिक ने नौकर से कहा :
'मेहमान को अच्छी तरह सारी सुविधाएँ जुटा दो... वे निपट जाएं बाद में मेरे पास ले आना।'
सुमंगल नौकर के साथ चला गया । श्रेणिक अपने खंड में आया। दरवाजा बंद करके पत्र खोला और पढ़ने लगा : ___ 'मिठाई भरकर बाँधकर रखे हुए छाबड़े में से खाना खाया और भाइयों को खिलाया । मुँह बँधे हुए मटकों में से पानी पिया और भाइयों को पिलाया, कुत्तों की चाटी हुई खीर की थालियाँ कुत्तों के सामने सरका कर खुद ने शुद्ध खीर खाई... वैसे हे मेरे पुत्र... तू वहाँ बेनातट नगर में धन सेठ की लड़की से शादी करके घरजमाई होकर रहा है? माता-पिता और भाइयों का त्याग करके, जो माता-पिता तेरे बगैर न तो सुख से खाते हैं... न पीते हैं... न ही चैन से सोते हैं! तू दूर-दूर परदेश में जाकर क्यों रहा है?' 'कुकर कहेता कोपे चडिये घर घर जमाई थाय हैये हइयाली को कहे, कवण भलों बिहं मांय?' [कुत्ता जैसा कहने से गुस्सा किया और उधर गृहजामाता होकर रहा... यह बात दिल में भलीभाँति सोचकर कहना कि दोनों में से कौन सा कार्य अच्छा किया?] __ पत्र पढ़ते ही श्रेणिक का दिल भर आया। वह रो पड़ा | बरसाती नदी की भाँति उसकी आँखें बहने लगी। पिता और माता के भीतरी प्रेम को वह भलीभाँति जानता था... समझता था... फिर भी बारबार पिता के द्वारा कहे गये प्रताड़नाभरे वचनों को याद करके सोचता है : 'अशक्त और मुर्दा लड़के चाहे जो सह लें... परंतु मैं तो एकाध भी कटु या गलत वचन सहन नहीं कर सकता...। अरे उस घर में मैं एक पल भी रह नहीं सकता!
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४१
पिता की चिट्ठी आई!
दूसरी ओर, ज्ञानी पुरुषों का कहना भी सही है कि माता-पिता और गुरुजनों की सलाह-सूचन भाग्यशाली को ही मिलती है। जो लड़के अपने से बड़ों का कहना नहीं मानते... वे भटकते हैं... भूलते हैं! क्या करूँ? अभी तो जाने का मन नहीं है! ऐसा करता हूँ... पिताजी को एक पत्र लिख भेजता हूँ।'
श्रेणिक ने शांत मन से पत्र लिखा... बंद किया। ऊपर सील लगाई और सुमंगल से पत्र देकर कहा : 'यह पत्र तू स्वयं महाराजा को उन्हीं के हाथों में देना।' सुमंगल ने राजगृही का रास्ता लिया। राजगृही पहुँचकर महाराजा को पत्र सौंप दिया। कुमार ने लिखा था : 'पूज्य पिताजी, आपका उलाहनाभरा पत्र मिला | आपकी, माताजी की और भाइयों की स्मृति ताजा हो आई। परंतु वहाँ आने को दिल नहीं करता है! जिस समय पिता की ओर से प्रशंसा मिलनी चाहिए तब उलाहना मिलती हो... वैसे पिता के पास या राजा के पास कोई कैसे रह सकता है?
पिताजी, घरजामाता होकर रहने में मैं तनिक भी खुश नहीं हूँ। कोई भी स्वमानी पुरुष घरजामाता होकर रहना पसंद नहीं करता... परंतु जहाँ पिता स्वयं पुत्र का अकारण अपमान करते हों... तो वह पुत्र पिता के पास कैसे रहेगा? उसे तो दूर ही रहना चाहिए। मैं यहाँ पर प्रसन्न हूँ। आप मेरी चिंता न करें।'
आपका
श्रेणिक राजा प्रसेनजित की आँखें नमी से भर आई। 'श्रेणिक बेनातट में ही है यह बात तो अब स्पष्ट हो गई। अब तो किसी भी कीमत पर उसको मनाकर यहाँ पर ले आने का कार्य करना है।' यों सोचकर महाराजा ने वापस संदेशा देकर सुमंगल को रवाना किया।
सुमंगल बेनातट पहुँचा। श्रेणिक से मिलकर पत्र दिया। महाराजा ने लिखा था : 'प्यारे बेटे श्रेणिक,
तुझे मन में इतना दुःख नहीं लगाना चाहिए! मैंने तुझे राजसभा में बुलाकर मान दिया था या अपमान? तू अच्छी तरह याद करना । मुझे सौ पुत्रों में एक
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पिता की चिट्ठी आई! तेरे पर ही सब से ज्यादा प्रेम है, श्रद्धा है... ज्यादा क्या लिखू? तू सोच समझकर ही कोई कदम उठाना ।
और फिर पंख बगैर ज्यों मोर अच्छा नहीं लगता है... वैसे ही तेरे बगैर मेरी शोभा फीकी हो गई है। तेरे बिना राजगृह सूना-सूना हो गया है!'
___ - तेरा दुःखी पिता पिता का पत्र पढ़कर श्रेणिक आश्वस्त हुआ। उसे लगा कि 'पिताजी का मेरे ऊपर प्यार कायम है... वैसा ही है!' फिर भी उसका मन राजगृह जाने के लिए तत्पर नहीं हो रहा था, उसके मन में धारणा थी सुनंदा पुत्र को जन्म दे... उसके बाद ही राजगृही जाना।
उसने पिता को पत्र लिखा। 'मेरे पूज्य पिताजी!
आपका पत्र मिला। पढ़कर मन का समाधान हुआ है। परंतु ज्यों एक पंख कम होने से मोर की शोभा में कुछ फर्क नहीं आता... वैसे ही मेरे निन्यानवे भाई वहाँ पर हैं... एक मैं नहीं भी रहूँ तो क्या फर्क पड़ेगा? आपकी शोभा कम नहीं होगी! आपकी शोभा यथावत् है, आप अपने मन में तनिक भी अफसोस न करें | मैं यहाँ पर प्रसन्न हूँ।
आपका
श्रेणिक __ पत्र लेकर सुमंगल आनन-फानन राजगृही पहुँचा। पत्र महाराजा को दिया। महाराजा ने एकांत में पत्र खोलकर पढ़ा। उनका मन संतुष्ट हुआ । उन्होंने पत्रव्यवहार चालू रखने का सोचा । 'वह स्वमानी पुत्र है... उसका मन उल्लसित हो वैसा पत्र मुझे लिखना चाहिए!'
महाराजा ने एक मधुर पत्र लिखा। 'मेरे बेटे श्रेणिक!
तेरा पत्र पढ़कर मेरा दिल शांत हुआ, पर जब तू यहाँ पर नहीं आएगा.. दूर-दूर रहेगा... तब-तक दिल में आनंद तो नहीं उछलेगा! बेटा, मेरा और तेरे भाइयों का तू ही तो आधार है! जैसे जहाज के बगैर समुद्र को तैरना मुश्किल है... अशक्य है... वैसे ही तेरे बगैर हम जीवन सागर में तैर नहीं सकते...। इसलिए मेरे वत्स, तू यहाँ चला आ और तेरे दर्शन कर के मुझे तृप्त होने दे।'
- तेरा दुःखी पिता
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पिता की चिट्ठी आई!
सुमंगल ने पत्र श्रेणिक को पहुँचाया।
श्रेणिक ने पत्र पढ़कर कुछ सोचा और सुमंगल से कहा :
'भाई... तू कुछ दिन यहाँ ठहर जा। मुझे जो कुछ भेजना है... वह तू साथ में लेकर ही जा ।'
४३
सुमंगल बेनातट में रुक गया ।
श्रेणिक ने तुरंत ही अपनी माँ के लिए सुवर्ण के और रत्न जवाहरात जड़े हुए अलंकार बनवाये। बहनों भाईयों के लिए भी सुंदर आभूषण तैयार करवाये । पिताजी के लिए श्रेष्ठ जाति के एक सौ आठ घोड़े खरीदे... और यह सब सुमंगल के साथ राजगृही की ओर रवाना कर दिया ।
महाराजा प्रसेनजित बड़े प्रसन्न हुए। श्रेणिक के भेजे हुए घोड़े और अलंकार स्वीकार कर लिए, और उसी सुमंगल के साथ 'भंभा' नाम का वाजित्र भेजा और पत्र लिखकर दिया |
'प्रिय पुत्र श्रेणिक,
तुम्हारे भेजे हुए अश्व मिले। सुंदर अलंकार भी मिले । तेरे यहाँ पर आने के बाद ही वे अलंकार तेरी माँ को, बहनों को और भाइयों को देने के हैं।
बेटा, जिस जंगल में तूने भीलकन्या को स्वीकार नहीं किया था उस जंगल के भील लोग तेरे ऊपर लाल-पीले हुए हैं...। अच्छा किया... तूने उस भीलकन्या के साथ शादी नहीं की...। अपने कुल की गरिमा को बनाए रखा। परंतु यहाँ आते वक्त सावधान रहना । जंगल के भील तेरे ऊपर धावा बोलेंगे.... हालाँकि तेरे पराक्रम के आगे वे लोग आखिर झुक ही जाएँगे ।
- तेरा पिता
पत्र और साथ में ‘भंभा' वादित्र लेकर सुमंगल बेनातट नगर पहुँचा । पत्र पढ़कर श्रेणिक ने मन ही मन तुरंत राजगृह जाने का निर्णय किया । सुमंगल से उसने कहा :
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‘तू राजगृह जा, अब मैं बहुत जल्दी... कुछ ही दिनों में यहाँ से निकलूंगा और शक्य इतना जल्दी राजगृही पहुँचूँगा ।'
सुमंगल को सुंदर वस्त्र - अलंकार भेंट देकर उसे बिदा दी ।
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४४
अभयकुमार
श्रेणिक सुनंदा के शयनखंड में गया। उसने कहा : "देवी... मुझे राजगृह जाना होगा। मेरे पिताजी बुला रहे हैं। मैं उनके पास जाऊँगा। जाना जरूरी है।'
'स्वामिन, मैं भी आपके साथ आऊँगी... चूँकि आपके बगैर मैं एक पल भी नहीं रह सकती।' ___ 'पर... किसी भी हालत में तुझे अभी तो साथ में ले जाया नहीं जा सकता। तुझे यहीं पर रहना होगा और सुखपूर्वक पुत्र को जन्म देना होगा।'
सुनंदा मौन रही... 'जो इनकी इच्छा... वही मेरी इच्छा... ये कहेंगे वैसा ही मुझे करना है!'
सुनंदा ने कहा : 'पुत्र का नाम 'अभयकुमार' रखना है ना?' 'हाँ उसका पालन अच्छे ढंग से करना।'
"परंतु नाथ! जब वह दो-पाँच साल का होगा... कुछ समझदारी आएगी उसमें... फिर वह पूछेगा... मेरे पिता कहाँ हैं? उनका नाम क्या है? वे कहाँ रहते हैं? तब मैं उसे जवाब क्या दूंगी?'
'मैं अपने शयनगृह की दीवार पर कुछ लिखकर जाऊँगा। उसे वह पढ़वा देना।'
श्रेणिक ने सुनंदा को भी अपनी सही पहचान नहीं दी... दीवार पर केवल इतना लिख दिया : 'राजगृह गाम, गोपाल नाम, धवल टोड़े घर ।'
सुनंदा ने भी अपना दिया हुआ वचन निभाया : 'मैं कभी भी आपका नामगाँव या कुल की पृच्छा नहीं करूँगी।'
धन सेठ से भी श्रेणिक ने राजगृह जाने की बात कही। सेठ ने पहले तो इजाजत नहीं दी... बाद में समझाने पर भावभरी बिदाई दी । ढेर सारी बेशुमार संपत्ति दी। जवाहरात और अलंकार दिये ।
श्रेणिक ने एक हजार श्रेष्ठ घोड़े खरीद लिए। एक हजार सैनिकों को तनख्वाह से रख लिये। उच्चकोटि के शस्त्र साथ में लिये। सैनिकों को शस्त्रसज्ज कर दिये... एक हजार घुड़सवार सैनिकों के साथ श्रेणिक ने बेनातट नगर से प्रयाण किया।
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अभयकुमार
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४५
७. अभयकुमार
कुछ ही दिनों में श्रेणिक भीलराजा के इलाके में पहुँच गया। उसने अपने मन में सोचा :
'भीलराजा आक्रमण करे... उससे पहले तो मैं ही उन पर टूट पहूँ ! यही सही व्यूह होगा । दुश्मन को दिन दहाड़े ललकारना ही शौर्य की निशानी है ।'
कुमार ने भीलराज की राजधानी के दरवाजे खटखटाये ! उसने अपना 'भंभा' वादित्र जोर-जोर से बजाना चालू किया ।
भील राजा को पता चल गया कि 'वह छोकरा ... जो मेरी बेटी को शादी से इन्कार करके नौ-दो ग्यारह हो गया था, अब बड़ी सेना लेकर अपनी ताकत बताने आया लगता है... पर वह बुद्ध है... उसे पता कहाँ है ... मेरी और मेरे भील सैनिकों की ताकत का ? मच्छर की तरह मसल कर रख दूँगा मैं उसे!'
भीलराजा अपने सैनिकों के साथ किले के बाहर आया... हजारों भील तीर-कमान से सज्ज होकर एकत्रित थे...।
'मारो...काटो...दुश्मन जिन्दा न जाने पाये... । ' का हल्ला करके कुमार पर तीरों की बौछार सी कर दी !
पर श्रेणिक चालाक था । उसने पहले ही 'अंगरक्षक' रत्न का स्मरण करके अपने चारों ओर एक बख्तर - कवच सा निर्माण कर दिया था । शत्रु का एक भी शस्त्र उसे छूता ही नहीं था ! भील लोगों को तो लेने के देने पड़ गये! वे आँखें चौड़ी कर-कर के कुमार को देखने लगे ! धीरे-धीरे उन्होंने कुमार पर तीर चलाना बंद कर दिया... और वे कुमार के पास आकर झुककर प्रणाम करने लगे।
भील सेना का सेनापति कुमार से डर कर वहाँ से रफूचक्कर होने का मौका तलाश रहा था कि कुमार ने उसे पकड़ लिया। मोटे रस्से से उसे बाँधकर रख दिया। कुमार की सेना ने कुमार के जयजयकार से गगन को गूँजारित कर दिया।
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धरती तो शूरवीर पुरुषों के कदमों तले रहती है। जंगल में कौन सिंह का राज्याभिषेक करता है? वह तो अपने पराक्रम और अपनी ताकत के बल पर ही राज चलाता है ।
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अभयकुमार
श्रेणिक ने भील-सेनापति से कड़क शब्दों में कहा :
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४६
‘ओ भीलराज! अब तुम्हें हमारे आगे-आगे चलना होगा... हमें राजगृही का रस्ता बताना होगा। रास्ते में जो घाट आता है... उसमें से हमें सही सलामत बाहर निकालना होगा । यदि मेरा कहा नहीं माना... और कुछ भी चालाकी करने की कोशिश की तो यह तलवार तेरी शरम नहीं रखेगी । बोटी-बोटी काटकर कुत्तों को खिला दूँगा !'
भीलराज के साथ-साथ सवा लाख भील सैनिक भी चुपचाप चलते रहे । भीलराज ने राजगृही का रास्ता दिखलाया । कुमार का घोड़ा ठीक भीलराज के पीछे ही चल रहा था ।
कुछ दिनों की थकानेवाली यात्रा के पश्चात् सभी राजगृही के समीप पहुँच गये । राजगृही के किले के बाहर विशाल मैदान में भील सैनिकों की रावटियाँ डलवा दी । बाद में कुमार ने राजगृही में प्रवेश किया । कुमार ने अपने आने की पूर्व - सूचना राजा प्रसेनजित को भेजी ही नहीं थी ।
हजारों घुड़सवार और भीलराज के साथ श्रेणिककुमार ने राजगृही में प्रवेश किया । नगरवासी लोग कुमार को देखकर खुशी के मारे नाचने लगे । ‘श्रेणिककुमार आ गये... राजकुमार आ गये...' के नारों से सारा नगर गूँज
उठा ।
राजमहल के द्वार पर पहुँचकर सैनिकों को महल के बाहर मैदान में खड़े रखकर भीलराज के साथ श्रेणिक ने राजमहल में प्रवेश किया और तीर की तरह सीधे सम्राट प्रसेनजित के खंड में पहुँचा । पिता के चरणों में प्रणाम किया... पास में बैठी अपनी माँ को भी प्रणाम किया ।
राजा-रानी राजकुमार को देखकर गद्गद हो उठे। दोनों की आँखें हर्षाश्रु से छलकने लगी। राजा प्रसेनजित ने राजकुमार को अपने सीने से लगाते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा और बोले :
'बेटा, तू आ गया... अच्छा हुआ ! मुझे और तेरी माँ को बड़ी ही राहत मिलेगी। शाँति मिलेगी। हम अब पूरी तरह निश्चिंत हो जाएंगे ।'
'पिताजी, मैं इस भीलराज को भी साथ ले आया हूँ! इसके सवा लाख भील सैनिक नगर के बाहर खड़े हैं!'
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राजा प्रसेनजित ने भीलराज के सामने देखा । भीलराज की आँखें जमीन पर टिकी हुई थी।
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अभयकुमार
৪০ भीलराज... आज मेरा लाड़ला राजकुमार यहाँ आया है... मैं इस खुशी के मौके पर तुम्हें मुक्त करता हूँ... इतना ही नहीं, तुम्हारा राज्य भी तुम्हें वापस लौटा दिया जाएगा।'
'महाराजा, अब मुझे राज्य नहीं चाहिए! न ही मैं अपने नगर में वापस लौटूंगा!' 'तब फिर क्या करोगे तुम?' 'मैं संसार का त्याग करके तापस बन जाऊँगा!' 'तापस बनकर?' 'अनशन करूँगा... अब मेरी जीने की कोई तमन्ना बाकी नहीं बची है!'
श्रेणिक ने खड़े होकर भीलराज के बंधन खोल दिये। महाराजा प्रसेनजित ने भीलराज को बड़े प्रेम के साथ भोजन करवाया... और उचित आदर सत्कार करके उसे बिदाई दी।
भीलराज ने नगर के बाहर आकर अपने सवा लाख भील सैनिकों को अपनेअपने घर चले जाने की आज्ञा दी एवं स्वयं जंगल के रास्ते पर आगे बढ़ गया। एक पर्वत की गुफा में जाकर उसने अनशन व्रत अंगीकार कर लिया।
श्रेणिक ने भीलराज के पुत्र को बुलाकर, उसका राज्य उसे वापस सौंप दिया। मंत्रियों को भेजकर उसका राज्याभिषेक करवा दिया। नये भील राजा ने राजगृही का आज्ञांकित राजा होना स्वीकार किया। श्रेणिक ने नये भीलराज को अपना मित्र बनाया। ___ कुमार श्रेणिक के निन्यानवे भाइयों को जब मालूम हुआ कि 'श्रेणिक बड़ी सेना लेकर आया है।' वे सभी श्रेणिक से मिलने के लिए आये। सभी ने श्रेणिक की कुशलता पूछी। श्रेणिक के पास बैठे । महाराजा प्रसेनजित भी वहीं पर बैठे हुए थे। उन्होंने सभी पुत्रों को संबोधित करते हुए कहा : ___ 'मेरे प्यारे बच्चों! अब मुझे वृद्धावस्था ने पूरी तरह घेर लिया है! मैं इस पूरे साम्राज्य का भार श्रेणिक को सौंपना चाहता हूँ! और बची हुई जिंदगी निवृत्ति में गुजारना चाहता हूँ!
९९ पुत्रों ने कहा : 'पिताजी, हम भी चाहते हैं कि राज्य श्रेणिक को ही दिया जाए। वह हर तरह से योग्य है, सक्षम है!'
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४८
अभयकुमार
‘परंतु... तुम सब हिलमिलकर रहो... सभी श्रेणिक की आज्ञा मानो... यह बहुत ही जरूरी है... बोलो, तुम्हें यह कबूल है ? ' ९९ पुत्र एक साथ बोल उठे :
'हाँ, हमें कबूल है... हम श्रेणिक की आज्ञा का पालन करेंगे और पिताजी, हम सब साथ में मेलजोल से रहेंगे । आप निश्चिंत होकर आपकी आत्मकल्याण की प्रवृत्ति में लीन बनें । '
महाराजा प्रसेनजित को आनंद हुआ । पुत्रों की प्रेमभरी बात सुनकर उन्हें संतोष हुआ। उन्होंने मंत्रीमंडल को बुलाया और अच्छे मुहूर्त में श्रेणिक का राज्याभिषेक करने की आज्ञा दी ।
सारी राजगृही में यह बात फैल गई । प्रजा ने भी खुशी और आनंद का अनुभव किया। शुभ और पवित्र मुहूर्त में बड़ी धूमधाम और उत्सव के साथ श्रेणिक का राज्याभिषेक कर दिया गया ।
महाराजा और महारानी दोनों ने निवृत्ति ली। अब वे तमाम प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो चुके थे ।
९९ भाई अपने बड़े भाई राजा श्रेणिक के प्रति पूरी तरह वफादार थे। श्रेणिक की हर आज्ञा... प्रत्येक बात को वे मानने लगे थे।
श्रेणिक ने राजा बनते ही प्रथम कार्य शिथिल हुई और गड़बड़ाई हुई राज्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का किया ।
उसने मंत्रीमंडल का निरीक्षण किया ... तो महसूस किया कि अधिकांश मंत्री लोग मनस्वी बन गये थे... मनमानी कर रहे थे। राजा या प्रजा की कोई बात सुनते ही नहीं थे... खुद को जो जंचे, वही करने पर उतारू थे।
राज्य का अधिकारी वर्ग भी घूसखोर हो गया था। अपनी जिम्मेदारी कोई समझता ही नहीं था... । बस, कैसे पैसे बनाना ... यही सबका एकमेव लक्ष्य था । प्रजा के साथ बेरहमी से वे पेश आते थे।
इस तरह की परिस्थिति का लाभ इधर-उधर के राजा लोग उठा रहे थे.... वे न तो महाराजा के दरबार में महाराजा को प्रणाम करने आते थे... न राज्य MODI कर चुकाते थे।
राज्य की सेना भी आलसी और जड़ हो गई थी । सेनापति लोगों को सैन्य की परवाह ही नहीं थी । शस्त्रागारों में से शस्त्रों की चोरी हो जाना आम बात थी। राज्य में चोर लुटेरों का उपद्रव बढ़ता जा रहा था ।
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४९
अभयकुमार
श्रेणिक ने कुछ ही दिनों में इस परिस्थिति का बारीकी से निरीक्षण किया। उसने सोचा : ___ 'यह वक्त... मेरे लिए राजा बनकर केवल सिंहासन पर बैठे रहने का नहीं है... जो हालात है... उनको नजर अंदाज नहीं किया जा सकता! ऐसे मंत्री लोग और सेनापति तो राज्य को कौड़ी के मोल बेच डालेंगे! राजनीति में ज्ञानी पुरुषों ने कहा है कि मंत्री विनीत... धर्मनिष्ठ और विशुद्ध बुद्धिवाला होना चाहिए! कुलीन, शीलवान्, सत्यवादी... रूपवान और सदैव प्रसन्न मुखमुद्रावाला मंत्री ही राज्य की उन्नति कर सकता है!
राज्य का कोषाध्यक्ष प्रामाणिक, धैर्यवान्, रत्न परीक्षा में निष्णात एवं सदाचारी होना जरूरी है।
प्रधानमंत्री तो ऐसा चाहिए... जो औरों की चेष्टाएँ और आकृति देखकर उसके मन के भावों को भांप ले! वह तत्त्वज्ञानी होना चाहिए, प्रियभाषी होना चाहिए... एक बार में ही पूरी बात को समझ-परख ले वैसी पैनी नजरवाला प्रधानमंत्री ही राज्य को समृद्ध और अपराजित रख सकता है!
परंतु... यदि मैं अभी इन पुराने मंत्रियों को निकाल बाहर कर दूंगा तो ये लोग राज्य में असंतोष-अशांति फैलाएंगे; उपद्रव करेंगे...| प्रजा उनके साथ हो जाए तो विद्रोह हो जाने की भी संभावना है! मुझे उन्हें... चालाकी से... तरकीब लड़ाकर... निकालना होगा। उन्हें निकालने के बाद अच्छे-अनुभवी मंत्रियों को नियुक्त करूँगा। वहाँ तक तो इन उल्लू के पठ्ठों के बीच रहकर ही मुझे यथा शक्य सफाई करनी होगी!' ___यों करते हुए सात-आठ साल बीत गये! समय गुजरते हुए कहाँ देर लगती है? श्रेणिक राजा को ४९९ मंत्री तो मिल गये, परंतु जैसा चाहिए था वैसा महामंत्री नहीं मिल सका।
बेनातट नगर में धन सेठ की पुत्री और श्रेणिक की पत्नी सुनंदा ने योग्य समय पर पुत्र को जन्म दिया । धन सेठ ने भव्य उत्सव मनाया। जिनमंदिरों में महोत्सव मनाये | गरीबों को दिल खोलकर दान दिये गये। गीत-गान और नृत्य के कार्यक्रमों से धन सेठ की हवेली गूंज उठी।
सुनंदा ने अपने लाडले बेटे का नाम 'अभयकुमार' रखा । धन सेठ ने नाम रखने के दिन अभय को सुवर्ण के अलंकारों से सजाया... कीमती वस्त्रों से सजाया। अपने रिश्तेदार संबंधीजनों के लिए सुंदर भोजन समारोह का आयोजन किया।
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५०
अभयकुमार
धन सेठ ने सुनंदा के पास से अभय को लेते हुए कहा : 'बेटी... तेरा यह लाड़ला तो सचमुच ही गोपालकुमार की प्रतिकृति ही है! उसकी आँखें... नाक... कान... चेहरा... सब कुछ गोपालकुमार के अनुरूप ही है।' ___ 'सच बात है आपकी बापू!' सुनंदा की आँखें भर आई... उसका स्वर भीग उठा था।
धन सेठ यह देखकर चिंतित हो उठे। उन्होंने कहा : 'क्यों बेटी... क्या हुआ? आँखों में आँसू क्यों? क्या गोपालकुमार की याद आ गई?'
सुनंदा रो पड़ी। रोते-रोते बोली : 'आज वे यहाँ होते तो?' धन सेठ ने अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा : 'बेटी...गोपालकुमार यहाँ होते तो? तब तो पूरे नगर को फूलों से सजा देता मैं! उल्लास और उमंग के रंग उछलते होते! पर, अब उस बात को याद करके जी को छोटा मत कर! प्रियजनों का संयोग-वियोग तो संसार में चलता ही रहता है! तु तो अब इस अभय का खयाल कर... इसको लाड़-प्यार के साथ बड़ा कर | इसको संस्कारों से सजा। इसके सहारे ही जीना है... और तो किसी बात की कमी नहीं है इस घर में! सब कुछ है... और फिर यह सब तेरा ही तो है!'
धन सेठ ने सुनंदा को आश्वस्त किया।
सुनंदा ने बड़ी सावधानी और जतन से अभयकुमार का लालन-पालन किया। धीरे-धीरे अभयकुमार बड़ा होने लगा! चलने लगा... दौड़ने लगा... मस्ती करने लगा... शरारतें करने लगा!
धन सेठ की हवेली आनंद से छलकने लगी।
अभय पाँच साल का हुआ। उसे पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया । उस दिन पाठशाला के शिक्षक को धन सेठ ने कीमती वस्त्र भेंट किये | शाला के सभी विद्यार्थियों को मिठाई बाँटी । गरीब बच्चों को वस्त्र वगैरह दिये गये।
अभय रोजाना शाला में जाने लगा। पढ़ाई में कोई उसकी बराबरी का था ही नहीं!
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अभयकुमार
खेलने में भी अभयकुमार पहले नंबर पर !
सभी को वह प्यारा लगता....
सभी उसके दोस्त बन जाते !
जो भी उसे देखता... उसे वह प्यारा लगता !
यों करते हुए तीन साल बीत गये... अब तो अभयकुमार आठ साल का हो
गया था।
५१
एक दिन जब अभय शाला से आया तब वह उदास था। रोजाना हँसता खिला अभय आता और माँ की गोद में बैठकर... माँ के गले में हाथ डालकर माँ से लिपट जाता! आज तो अभय उदास उदास था और आकर सीधा पलंग पर जाकर लेट गया, रोने लगा। इसकी सिसकियाँ बढ़ती ही गई !
सुनंदा दौड़ती हुई आई! पलंग पर बैठकर उसने अभय को अपनी गोद में लिया... और उसका सिर सहलाने लगी...
'क्या हुआ मेरे लाल को ?' पूछती है सुनंदा... पर अभय तो बस ... रोये ही जा रहा है! सुनंदा अभय के शरीर को सहलाती है... थपथपाती है.....
'क्या हुआ, बेटा? कुछ बोल तो सही! मुझ से नहीं बोलेगा?' सुनंदा भी रो पड़ी। अभय को उसने अपने सीने से लगा लिया... उसके माथे को चूमने लगी।
माँ को रोती हुई देखकर अभय ने अपनी आँखें पोंछ ली । रोना बंद हो गया। उसने सुनंदा की आँखें भी अपनी मुलायम हथेलियों से पोंछ डाली। माँबेटा दोनों मौन हो गये । अभय ने सुनंदा का चेहरा अपनी हथेलियों में लेकर
कहा :
‘माँ, तू मुझे सच बताएगी ना?'
'हाँ बेटा!'
'माँ ... मेरे पिताजी कहाँ है?'
'आज क्यों पूछ रहा है... ?'
'माँ... आज हम खेल रहे थे... मैं आसानी से जीत गया तो मुझसे जलनेवाला एक लड़का मुझ से कहने लगा....
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'जीतने पर इतना इतराता क्या है... तू है तो बिन बाप का ! बाप का तो पता नहीं है और रुआब तो राजकुमार जैसा जताता है!'
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मिलना पिता से पुत्र का!
५२ __'बेटा... लड़के लोग तो बोलते रहते हैं...। तेरे पिताजी हैं... एक दिन वे अपने वहाँ आये थे। राजकुमार सा उनका रूप और वे थे भी महान भाग्यशाली। मेरी उनके साथ शादी हुई। दो साल वे यहाँ रहे। तू मेरे पेट में था... और उन्हें अचानक यहाँ से एक दिन जाना पड़ा। वे गये सो गये... वापस न तो वे आये... न कोई समाचार आया उनका! ____ हाँ, जाने से पहले मैंने उन्हें पूछा था... 'अपने बेटे का नाम क्या रखेंगे?' तो उन्होंने कहा था 'अभयकुमार!'
मैंने उनसे पूछा था... जब अपना बेटा समझदार होगा और पूछेगा कि मेरे पिता कहाँ गये हैं... तब मैं उसे क्या जवाब दूंगी...? तब उन्होंने कहा :
'मैं चित्रशाला की दीवार पर लिखकर जाता हूँ... वह तू उसे पढ़वा देना।' 'माँ, मेरे पिताजी जो लिख गये हैं... वह तू मुझे बता तो सही!'
सुनंदा अभय को लेकर चित्रशाला में गई। दीवार पर का लिखा हुआ अभय ने पढ़ा। अभय ने अपनी बुद्धि से सोचा। उसकी समझ में सारी बात आ गई। उसने सुनंदा के सामने चुटकी बजाते हुए कहा : ___ 'माँ... मुझे मालूम हो गया... पिताजी कहाँ हैं? पर मैं अब उनके पास जाऊँगा!'
'बेटा... तू जाएगा तो मैं भी तेरे साथ जाऊँगी!' ‘पर माँ! नाना-नानी अपने को इजाजत देंगे?' 'देंगे... जरूर देंगे... | चल, हम उनके पास चलें!'
धनसेठ और सेठानी सुनंदा व अभय की बातें सुनकर रो पड़े, चूंकि सुनंदा और अभय से उन्हें बहुत ही लगाव था। फिर भी वे चाहते थे कि अभय उसके पिता से मिले और सुनंदा का भी अपने पति से मिलना हो।
उन दोनों ने सुनंदा-अभय को आशीर्वाद दिये। रथ दिया। नौकर-चाकर के साथ जरूरी सामान देकर प्रेम से उन्हें राजगृही की ओर बिदाई दी।
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मिलना पिता से पुत्र का!
८. मिलना पिता से पुत्र का!
अभय अपनी माँ सुनंदा के साथ राजगृही के बाहरी उद्यान में आकर ठहरा। रथ को उन्होंने वापस बेनातट भेज दिया।
अभयकुमार ने सुनंदा से कहा : ___ 'माँ, तू इस बगीचे में शांति से विश्राम कर... मैं नगर में जाकर एक चक्कर लगा आता हूँ।' __ सुनंदा ने कहा : 'बेटा, यह राजगृही तो बहुत बड़ा नगर है... तू अनजान है... छोटा है... इसलिए सम्हलना... और समय पर वापस लौट आना... वरना... मेरे मन में चिंता बनी रहेगी... मेरा जी उचटता रहेगा।' 'माँ, तू जरा भी फिक्र मत कर! तेरे बेटे को कोई तकलीफ होनेवाली नहीं!'
माँ-बेटे ने साथ बैठकर नाश्ता किया। बगीचे के कुएँ में से पानी निकाल कर पी लिया। और अभयकुमार माँ की आशीष लेकर नगर की ओर रवाना हुआ।
नगर के दरवाजे में प्रवेश करते ही उसे बढ़िया शुकुन हुए... पर अभयकुमार को शुकनशास्त्र का इतना ज्ञान नहीं था! वह तो चलता ही रहा। इधर-उधर नजर दौड़ाता हुआ। वह नगर के मध्यभाग में पहुँचा । जहाँ चार रास्ते मिलते थे... वहाँ चौराहे के पास उसने लोगों का एक टोला देखा।
अभय ने वहाँ जाकर एक अच्छे से दिखनेवाले आदमी से पूछा : 'क्या बात है? ये इतने सारे लोग यहाँ पर इकट्ठे क्यों हुए हैं?' ___ उस आदमी ने कहा : 'अरे लड़के... तू परदेशी लगता है! यहाँ एक कुआँ है! खाली कुआँ है... उसमें यहाँ के हमारे महाराजा श्रेणिक ने एक अंगूठी डाली हुई है। उन्होंने नगर में घोषणा की है कि कोई भी आदमी यदि कुएँ के किनारे पर खड़ा होकर कुएँ में पड़ी हुई अंगूठी निकालकर पहनेगा, उसे महाराजा अपना आधा राज्य देंगे और उस आदमी को महामंत्री बनायेंगे।'
अभयकुमार उस कुएँ के पास गया। उसने कुएँ में पड़ी हुई हीरे की अंगूठी को देखा। फिर उसने लोगों की ओर देखा | मन ही मन कुछ सोचा... निर्णय किया और खड़े हुए लोगों की ओर मुड़कर कहा :
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मिलना पिता से पुत्र का!
५४ __ 'भाइयों, सुनो मेरी बात! तुम में से यदि कोई इस अंगूठी को पहनना चाहते हो तो खुशी से पहन लो । वरना मैं इस अंगूठी को पहनना चाहता हूँ! बाद में कोई शेखी बघारना मत कि 'ओह, इसमें क्या? यह तो हम भी कर सकते थे! इसमें कहाँ अक्लमंदी है?' ___ अभय की मीठी आवाज में चुनौती सुनकर सभी लोग विस्मित हो उठे। उन्होंने अभय से कहा :
'अरे, लड़के! हमारी तो अक्ल पर बक्कल लग गया है। हमें तो समझ में ही नहीं आता कि बिना कुएँ में उतरे हुए अंगूठी को बाहर निकालना कैसे? यह कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि 'चल री अंगूठी, ऊपर आ...' बोलें और अंगूठी ऊपर आकर अपनी उंगली में समा जाए।'
'ठीक है, तो मैं मेरी बुद्धि आजमाता हूँ।' 'अच्छा है भाई... तू कोई बुद्धि के बादशाह का बच्चा लगता है, जो अंगूठी को पहनने की इतनी जल्दबाजी कर रहा है। ठीक है... कर तू तेरी कोशिश! हम भी जरा देखें तो सही... तू क्या तीर मारता है!' ___ अभयकुमार टोले से अलग हुआ। पास की गली में गया । वहाँ पर गायभैंसे बंधी हुई थी चौपाल में! गाय का गोबर अपने हाथ में वह उठा लाया। उसने बराबर अंगूठी का निशान ताक कर वह गोबर उस पर फेंका | गोबर बराबर अंगूठी पर गिरा | अंगूठी उसमें चिपक गयी। फिर अभयकुमार वापस उसी गली में गया । एक अच्छे से घर में जाकर मालकिन से उसने कुछ अग्नि के अंगारे माँगे। मालकिन बुढ़िया थी... पर भली थी। उसने अभयकुमार को मिट्टी के कुंडे में भरकर अंगारे ला दिये | अभय वह कुंडा लेकर आया कुएँ के पास, और बराबर निशाना लगा कर अंगारे... उस कुएँ में पड़े गोबर पर डालने लगा! अंगारों की गर्मी से गोबर सूखने लगा।
एक-डेढ़ घंटे में तो गोबर सूखकर कंडा हो गया! फिर उसने उस खाली कुएँ में पानी भरने की योजना बनाई।
वह आस-पास-इधर-उधर घूमा तो पास में ही एक दूसरा कुआँ था... वह पानी से भरा हुआ था। उसने सोचा : 'इस कुएँ का पानी यदि उस अंगूठीवाले कुएँ में डाला जाए तो मेरा काम बन जाये।'
कुएँ पर रहट चल रहा था। कुएँ के पास छोटा हौज था... उसमें पानी भरा जा रहा था। अभय ने रहट चलानेवाले को प्यार भरी जबान में कहा :
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मिलना पिता से पुत्र का!
५५ ___ 'चाचा... मेरा एक काम कर दोगे? इस हौज का पानी मैं उस कुएँ में ले जाना चाहता हूँ... इसके लिए मैं छोटी सी नाली बना डालता हूँ... तुम रहट से पानी निकाल कर हौज में भरते रहो... हौज का पानी नाली के जरिये कुएँ में भरेगा, तो अपने आप वह गोबर का कंडा तैर कर ऊपर आ जाएगा... और उस कंडे में से अंगूठी निकाल कर मैं आराम से पहन लूँगा। राजा का मंत्री बनने पर... सचमुच, चाचा! मैं तुम्हें मालामाल बना दूंगा!'
रहट चलानेवाले आदमी को लड़का इतना पसंद आ गया था कि उसकी बात उसने तुरंत मान ली। उसने अपने घर से लाकर कुल्हाड़ी दी अभय को। अभय ने देखते ही देखते नाली खोद डाली। नाली के जरिये हौज का पानी कुएँ में गिरने लगा! दो घंटे में तो कुआँ भर गया... वह सूखा हुआ गोबर का कंडा पानी में तैरता हुआ ऊपर आ गया। अभय ने लकड़ी से उस कंडे को अपनी ओर खींचा। उसमें चिपकी हुई अंगूठी को निकालकर अपनी उंगली में पहन ली! ___ भीड़ में खड़े लोग तो लड़के की बूढ़ों को शरमा दे वैसी अक्लमंदी देखकर दाँतों तले उंगली दबा गये। भीड़ में राजा के आदमी भी खड़े थे। उन्होंने अविलंब सारी बात महाराजा श्रेणिक को पहुँचा दी। राजा तुरंत घोड़े पर सवार होकर वहाँ आया। राजा ने अभय को देखा । अभय से नजरें मिलते ही श्रेणिक के दिल में अनायास स्नेह का सागर हिलोरे लेने लगा। अभय की सुंदर मुखाकृति देखकर राजा खुश हो उठा। उसने अभय को अपने पास बुलाया और उसके कंधे पर हाथ थपथपाते हुए कहा :
'वत्स, तू कहाँ से आ रहा है? कहाँ का रहनेवाला है?' अभय ने कहा : 'मैं बेनातट नगर का रहनेवाला हूँ... और वही से चला आ रहा हूँ!'
राजा ने चौंकते हुए पूछा : 'बेनातट नगर से?' 'जी हाँ!' राजा ने पूछा : 'तू किसका लड़का है?' अभय ने कहा : 'मैं प्रजापाल राजा का लड़का हूँ।' राजा ने पूछा : 'तू उस नगर में धन सेठ को पहचानता है?' अभय ने कहा : 'हाँ... जरूर! पहचानता हूँ।'
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मिलना पिता से पुत्र का!
५६ राजा ने पूछा : 'उस सेठ की बेटी सुनंदा को जानता है।'
अभय ने कहा : 'हाँ, जानता हूँ! उसने एक पुत्र को जन्म दिया है और उस पुत्र का नाम है अभयकुमार!'
राजा ने पूछा : 'वह अभी कितने साल का होगा?' अभय ने कहा : 'यह समझ लो कि मेरे जितनी ही उसकी उम्र होगी... और फिर हमारा रूप-रंग और चेहरा भी काफी मिलता-जुलता है... एक सा
राजा ने पूछा : 'अभय के साथ तेरी पहचान कैसे हुई?'
अभय ने कहा : 'अरे, हम दोनों तो जिगरी दोस्त हैं! एक-दूसरे के बिना एकाध पल भी नहीं रह सकते!'
राजा ने पूछा : तब फिर तू उसे छोड़कर यहाँ क्यों आया?' अभय ने कहा : 'मैं उसे साथ लेकर ही यहाँ आया हूँ!' राजा ने पूछा : 'कहाँ है वह?'
अभय ने कहा : 'वह और उसकी माँ सुनंदा नगर के बाहरी उपवन में रुके हुए हैं!
राजा ने पूछा : 'क्या कहता है? सुनंदा- उसकी माँ भी साथ आई है और बगीचे में?'
अभय ने कहा : 'जी हाँ, महाराजा!'
राजा ने कहा : 'चल, तू मुझे वहाँ पर ले चल । बगीचे में जाकर तेरे दोस्त और उसकी माँ से मैं मिलना चाहता हूँ।' अभय ने कहा : 'चलिये मेरे साथ!'
आगे-आगे अभयकुमार... और पीछे राजा | बगीचे की ओर चले! लोग तो अभयकुमार की चतुराई और चालाकी पर आफरीन हो उठे! ___ 'वाह, क्या लड़का है! राजा जैसे राजा को चलते हुए ले गया अपने साथ! अब तो आधे राज्य का मालिक होगा! और फिर ऊपर से महामंत्री का रुतबा मिलेगा! राजसभा में जब यह छोटी उम्र का महामंत्री बैठेगा तब कैसा लगेगा? जितना खूबसूरत है... उतना ही किस्मतवाला और अक्लमंद है! बुद्धि का तो मानों बादशाह ही देख लो!'
राजा और कुमार दोनों बगीचे में पहुँचे। राजा ने वहाँ सुनंदा को देखा।
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५७
मिलना पिता से पुत्र का! बरसों बाद सुनंदा को देखते ही राजा खुशी से विभोर हो उठा। सुनंदा भी श्रेणिक को महाराजा के रूप में देखकर प्रसन्न हो उठी।
श्रेणिक ने सुनंदा से कहा : 'देवी, अपना पुत्र कहाँ है?' 'यह तो रहा!' कहकर सुनंदा ने अभय को राजा के सामने किया। 'अरे, यही अभय है क्या?' राजा तो अभय के सामने देखता ही रहगया। उसने कहा : 'बेटा, तब फिर तू अभी तक सच क्यों नहीं बोला?' । 'सच ही तो बोला, पिताजी! मैं माँ के दिल में, उसके पास ही रहता हूँ!' 'अरे वाह!' राजा की खुशी समुंदर की तरह उछलने लगी। पत्नी मिली... पुत्र मिला! बेटा ही महामंत्री बनेगा। इस बात का राजा श्रेणिक को गर्व होने लगा।
राजा ने वहाँ पर खड़े अपने राजपुरुषों को आज्ञा की : 'जाओ, नगर में जाकर मेरा पट्टहस्ती ले आओ... अच्छी तरह सजाकर लाना!'
राजपुरुष दौड़े हुये गये हस्तिशाला की ओर! श्रेणिक राजा ने सुनंदा से पूछा : 'देवी, तुम दोनों यहाँ पर आये किस तरह?' 'आप चित्रशाला की दीवार पर जो लिखकर गये थे... वह अपने पुत्र ने पढ़ा और मुझे वह यहाँ साथ ले आया।'
श्रेणिक ने अभयकुमार के सामने देखा। 'पिताजी, मैं तो अब यहीं रहनेवाला हूँ! परंतु आप मेरी माँ को वापस बेनातट मत भेज देना!'
'नहीं, वत्स... तेरी यह माँ यहीं पर रहेगी।' 'पिताजी, आपने जो घोषणा की थी... उस मुताबिक मुझे आधा राज्य और महामंत्री का पद मिलेगा ना?'
'वह तो दूंगा ही! तू चाहता हो तो आज ही तेरा राज्याभिषेक कर दूं... और मैं और तेरी माँ दोनों दीक्षा ले लें!'
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मिलना पिता से पुत्र का!
५८ ___ 'मुझे राजा नहीं होना... आधा राज्य भी मुझे नहीं चाहिए! कुछ भी नहीं चाहिए मुझे! आप मिल गये... यानी सब कुछ मिल गया!'
अभयकुमार के विवेकपूर्ण वचन सुनकर राजा श्रेणिक प्रसन्न हो उठा! 'परंतु पिताजी, हम सब मेरे नाना-नानी की खबर लेने के लिए, कभी-कभी बेनातट को जाएंगे ना? मेरे बगैर उन्हें जरा भी अच्छा नहीं लगता होगा! माँ के बिना उनकी सेवा भी कौन करता होगा?'
अभय की आँखों में आँसू भर आये। सुनंदा ने अभय को अपनी ओर खींच लिया।
इतने में सजाया हुआ पट्टहस्ती लेकर राजपुरुष आ पहुँचे। वादित्र और नगरवासी लोग भी आ पहुँचे थे। श्रेणिक अपनी पत्नी और पुत्र के साथ हाथी पर सवार हुए। धूमधड़ाके के साथ राजगृही में प्रवेश किया।
प्रजा को मालूम हो गया था कि 'कुएँ में से चतुराई पूर्वक अंगूठी निकालनेवाला लड़का और कोई नहीं...
स्वयं महाराजा का ही पुत्र था! महारानी और राजकुमार-दोनों महाराजा के साथ हाथी पर सवार हैं! राजकुमार तो बुद्धि का सागर है, तो महारानी भी खूबसूरती के खजाने जैसी है!' सभी राजमहल में आ पहुँचे। श्रेणिक ने उस दिन पूरे नगर में उत्सव मनाया।
श्रेणिक की राजसभा में ४९९ मंत्री थे। श्रेणिक ने सभी के ऊपर अभयकुमार को महामंत्री बनाया। ४९९ मंत्रियों से राजा ने कहा : ___'मंत्रीगण, मैं अभयकुमार को महामंत्री बना रहा हूँ। परंतु तुम्हें तो उसे दूसरा राजा ही समझना है। उसकी छोटी उम्र देखकर उसका अनादर या उपेक्षा मत करना। आदमी उम्र से बूढ़ा हो सकता है... महान नहीं! महान तो ज्ञान और बुद्धि के संगम से होता है!'
४९९ मंत्रियों ने महाराजा की आज्ञा को सिर पर चढ़ाया। राजा ने अभयकुमार के लिए बड़े-बड़े पंडितों को नियुक्त किया । शस्त्रकला और शास्त्रकला में अभयकुमार होशियार होने लगा। वह ४९९ मंत्रियों को निठल्ले बैठने नहीं देता है। उसने प्रजा की सुख-सुविधा बढ़ाने की योजना बनाई। राज्य की व्यवस्था को ज्यादा चुस्त और दुरूस्त किया। दुश्मन राजाओं को युद्ध किये बगैर बस में किया।
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मिलना पिता से पुत्र का!
सारे मगध देश में अभयकुमार की प्रशंसा होने लगी। 'महाराजा ने अभयकुमार को महामंत्री बनाकर अच्छा किया!' प्रजा की जबान पर राजा और महामंत्री-सम्राट श्रेणिक और महामंत्री अभयकुमार की तारीफ होने लगी। धीरे-धीरे अभयकुमार ने जवानी की दहलीज पर पाँव रखे।
उस समय मगधदेश श्रमण भगवान महावीर स्वामी की विहारयात्रा से पावन हो रहा था। जगह-जगह पर भगवान का पधारना होता | वहाँ देवलोक से आकर देव समवसरण की रचना करते | भगवान के १४ हजार शिष्य और ३६ हजार साध्वी-शिष्याएँ थीं। भगवान पर श्रद्धा रखनेवाले लोगों की संख्या करोड़ों में थी। व्रत एवं प्रतिज्ञा अंगीकार करनेवाले श्रावक-श्राविकाएँ थी।
धर्म की तो बसंत-बहार ऋतु खिली हुई थी! भगवान का उपदेश सुनकर कई लोग संसार त्याग कर साधु-साध्वी हो जाते! कई लोग बारह व्रत लेकर श्रावक-श्राविका बनते!
कई लोग अणुव्रत (छोटे-छोटे नियम) लेकर जीवन को संयमित-अनुशासित बनाते। कई लोग ‘सम्यग्दर्शन'-सच्ची समझ व सच्चा ज्ञान प्राप्त करके भगवान के प्रति श्रद्धावान् बन जाते । भगवान महावीर स्वामी इस तरह धर्म का मार्ग बताकर करोड़ों स्त्री-पुरुषों को मोक्ष की राह बताते थे। प्राणीमात्र को सुख के लिए सच्ची राह दिखाते!
विचरण करते हुए भगवान महावीर राजगृही में पधारे। देवों ने नगर के बाहर 'समवसरण' की सुंदर रचना की। धर्म का उपदेश सुनने के लिए समवसरण में देव आये... देवियाँ आई... साधु आये... साध्वीजी आई... राजा आये... प्रजा आई! पशु और पक्षी भी आये!
सिंहासन पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी बिराजमान हुए। धर्म का उपदेश दिया। शक्कर और शहद से भी ज्यादा मधुर वह उपदेश था।। __अभयकुमार ने पहली बार ही भगवान के दर्शन किये थे। वह तो भगवान को देखकर, उनका उपदेश सुनकर... गद्गद हो उठा। उसने मन ही मन संकल्प किया :
यही मेरे गुरु! यही मेरे भगवान! अभयकुमार ने समवसरण में कई साधुपुरुषों के दर्शन किये। उसकी
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मिलना पिता से पुत्र का! निगाहें एक प्रशांत और भव्य आकृतिवाले मुनिराज पर जम सी गई। उनका शरीर हालाँकि, सूखकर काँटा हुआ जा रहा था... पर उनकी आकृति से लगता था कि वे श्रेष्ठ संयमी महापुरुष थे!
अभयकुमार ने खड़े होकर भगवान महावीर स्वामी के पास जाकर वंदना करके विनयपूर्वक पूछा : __'भगवान, वे ऊँचे... दुबले... पर तेजस्वी मुनिराज कौन हैं?' उन मुनि की ओर उंगली बताकर पूछा :
'महानुभाव, वह राजर्षि हैं... उनकी तो लंबी कहानी है! मैं तुझे सुनाता हूँ... सुन!
यहाँ से पूर्व दिशा में 'वीतभय' नामक नगर है... जैसे कि स्वर्ग की अलकानगरी हो... वैसा सुंदर और भव्य है वह नगर! विचरते हुए एक बार हम उस वीतभय नगर में पहुँचे। समवसरण रचा गया । देशना सुनने के लिए वहाँ का राजा उदायन भी आया हुआ था। हमने धर्म का उपदेश देते हुए कहा :
'समझदार और बुद्धिशाली आदमी को हमेशा धर्म का आचरण करना चाहइए | धर्म की कृपा और धर्म के अतुल प्रभाव से मनुष्य हर तरह का सुख प्राप्त करता है... परंतु मोहांध मनुष्य धर्म को सुनता नहीं है... समझता नहीं है... और अपनाता नहीं है। यदि मोह का अंधापन दूर हो जाए और मनुष्य धर्म करे, करवाये... और उसकी अनुमोदना-प्रशंसा करे तो वह खुद तो तैरता है... साथ ही अपनी सात पीढ़ी को पार लगा देता है!
धर्म ही सच्चा अंतरंग मित्र है। धर्म ही सच्चा भाई है... धर्म मनुष्य को उसकी इच्छित सिद्धियाँ प्राप्त करवाता है।
यह संसार तो दुःखमय है ही। मनुष्य को गर्भावस्था में दुःख... बचपन में दुःख... तारुण्य अवस्था में दुःख... जवानी में दुःख और बुढ़ापे में भी अंत बिना का दुःख! कहाँ है सुख इस संसार में? ___ संध्या के रंगों जैसा, पानी के बुलबुले सा, और ओस की बूँद सा यह क्षणिक जीवन है | बरसाती नदी के उफनते प्रवाह जैसा यह यौवन है... फिर भी ओ राजन्! तू बुद्ध क्यों नहीं हो रहा है? जाग्रत क्यों नहीं हो रहा है?'
राजा उदायन वैसे भी पहले से वैरागी ही थे। उसमें हमारा उपदेश सुनने से उनका वैराग्य सुदृढ़ हो गया।
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मिलना पिता से पुत्र का!
६१ वह घर पर गये। रानी प्रभावती से बात की। रानी ने राजा को दीक्षा लेने के लिए खुशी के साथ इजाजत दी। राजकुमार केशव का राज्याभिषेक किया। राजा मेरे पास आये और उसने विनती की : 'प्रभो, मुझे दीक्षा देकर, इस दुःखमय संसार से मेरा उद्धार कीजिए।' मैंने राजा को दीक्षा दी। उदायन राजा, राजर्षि उदायन बन गये।
तूने जिन्हें देखा, वे ही हैं उदायन राजर्षि! और अभयकुमार! ये राजर्षि इसी जीवन में तमाम कर्मों का नाश करके मोक्ष में जानेवाले हैं!'
अभयकुमार ने पूछा : 'प्रभो, और कौन राजर्षि मोक्ष में जाएंगे?'
भगवान ने कहा : 'यह राजर्षि उदायन ही अंतिम मुक्तिगामी होंगे। उनके बाद और कोई राजा दीक्षा लेकर मोक्ष में नहीं जाएगा।'
अभयकुमार ने भगवान को वंदना की।
वह राजमहल में आया... उसका मन किसी गंभीर चिंता में डूब गया था। मन में विचारों का ज्वार उठ रहा था।
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अभयकुमार का अपहरण
६२
९. अभयकुमार का अपहरण
'पिताजी, मुझे दीक्षा लेने की अनुमति दीजिए... श्रमण भगवान महावीर स्वामी का उपदेश सुनकर मुझे इस संसार के प्रति वैराग्य हो गया है।' ___ 'बेटा, दीक्षा लेना अच्छी बात है! सचमुच तो दीक्षा अब मुझे लेनी चाहिए... तुझे तो अभी बरसों तक राज्य करना है... राज्य को सम्हालना है! राज्य की समस्याओं को तेरी चमत्कारिक बुद्धि से सुलझाना है... प्रजा को सुख-समृद्धि से भर देना है! पूरे भारतवर्ष में मगध साम्राज्य को अद्वितीय, अविजित और अनूठा बनाकर दिखाना है! और फिर, यह सब तेरे द्वारा ही हो सकता है... ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है!
कुमार... मैं मानता हूँ... संसार में अब मेरा रहना जरूरी भी नहीं... फिर भी मुझे दीक्षा लेकर संसार त्याग करने का विचार नहीं आता... जबकि दीक्षा को मैं अच्छी मानता हूँ।'
'पिताजी, श्रमण भगवान महावीर स्वामी जैसे सर्वज्ञ वीतराग परमगुरु के मिलने के पश्चात् भी, और आप जैसे पिता मिलने पर भी यदि मैं संसार त्यागी बनकर दीक्षा न लूँ तो मुझ सा अभागा और कौन होगा? इसलिए, आप मुझ पर कृपा करें... और मुझे दीक्षा के लिए इजाजत दें!'
राजा श्रेणिक सोच में डूब गये। उन्होंने अभयकुमार के सामने देखा... कुछ सोचा और कहा :
'कुमार, जब मैं गुस्से में आगबबूला होकर तुझे कह दूँ... कि 'चला जा यहाँ से, मुझे तेरा मुँह भी मत दिखाना!' बस तब तू दीक्षा ले लेना। इससे पहले दीक्षा लेने की बात मत करना।' __ अभयकुमार ने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वह अपने आवास पर गया। उसने सोचा :
जैसे वज्र को बींधने के लिए... वज्र ही काम आता है... वैसे मुझे मेरी बुद्धि से राजा की बुद्धि को काटना होगा यानी कि बुद्धि-बल से ही पिताजी को पराजित करना होगा... तब ही मैं दीक्षा ग्रहण करके साधु बन सकूँगा और धर्म का महान पुरुषार्थ कर सकूँगा।
अभयकुमार ने बरसों तक श्रेणिकराजा के महामंत्री पद को अलंकृत
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अभयकुमार का अपहरण किया। राज्य के जटिल सवालों को अपने बुद्धिबल से वह पलक झपकते हल कर देता था। इसलिए उसका नाम 'बुद्धिधन अभयकुमार' प्रसिद्ध हो गया था।
जिस समय मगध पर राजा श्रेणिक का शासन था, उस समय उज्जयिनीअवंती में राजा चंडप्रद्योत राज्य करता था | चंडप्रद्योत काफी ताकतवान और पराक्रमी राजा था। उसकी आँखें मगध साम्राज्य पर टिकी हुई थी। वह ऐसे मौके की खोज में था कि 'राजगृही पर विजय प्राप्त करके अपना प्रभुत्व जमा सके!' चंडप्रद्योत की यह महत्वाकांक्षा थी।
उसने एक दिन अधीनस्थ चौदह राजाओं के साथ गुप्त मंत्रणा की। राजगृही पर अचानक आक्रमण करने की योजना बनाई। मगध देश की विपुल संपत्ति पर वैसे भी सभी की ललचायी निगाहें जमी थी। एक लाख सैनिकों के साथ चौदह राजाओं को लेकर चंडप्रद्योत ने राजगृही की ओर प्रयाण किया। __ इधर राजगृही के गुप्तचरों ने चंडप्रद्योत की आक्रमण योजना के बारे में जानकारी प्राप्त की। उन्होंने अविलंब सम्राट श्रेणिक को समाचार पहुँचाये। श्रेणिक ने तुरंत महामंत्री अभयकुमार को बुलाया।
'अभय, उज्जयिनी का राजा चंडप्रद्योत, चौदह राजाओं के साथ एक लाख सैनिकों को लेकर राजगृही पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है। अभी-अभी मुझे अपने विश्वस्त गुप्तचरों ने समाचार दिये हैं।'
'पिताजी, आप क्या चाहते हैं? युद्ध या युद्ध विराम?' 'बेटा, युद्ध में तो हजारों-लाखों बेगुनाह जीव मारे जाएंगे। हिंसा का तांडव नृत्य होगा। अच्छा होगा... कोई भी सम्मानपूर्ण रास्ता निकले और युद्ध टल जाए! हाँ, राजगृही को चंडप्रद्योत के आगे झुकना भी नहीं है!' ___ 'ठीक है, आने दीजिए, उस चंडप्रद्योत के भूत को! दिन दहाड़े उसे दूम दबाकर नहीं भगाया तो मेरा नाम अभय नहीं!'
'बेटा, तू बुद्धिशाली है... तू अवश्य उससे बुद्धि के बल पर निपट सकता है! और बिनजरूरी हिंसा-लड़ाई से सब को बचा सकता है!'
अभयकुमार राजा श्रेणिक को प्रणाम करके अपने स्थान पर गये। चंडप्रद्योत से कैसे निपटना... यह सोचते अचानक उनके दिमाग में एक विचार बिजली की भाँति कौंध उठा। उन्होंने चुटकी बजायी और चौदह लाख सोनामुहरों की थैलियाँ मंगवाकर अपने पास रखी। और तुरंत अपने विश्वसनीय राजपुरुषों को बुलाकर कहा :
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अभयकुमार का अपहरण
६४ 'एक समस्या पैदा हुई है। उज्जयिनी का राजा चंडप्रद्योत बड़ी भारी सेना के साथ राजगृही की ओर आगे बढ़ रहा है... शायद कल तक राजगृही शत्रु के सैनिकों से घिर भी जाए।
तुम राजगृही के चारों दिशा के दरवाजे बंद करवा दो। किले के बुर्ज पर मगध सैनिकों के चुस्त दस्ते जमा कर दो...। ताकि वे चौकन्ने रहकर दुश्मनों की गतिविधियों पर सतर्क नजर रख सकें। और... तुम अपने अत्यंत विश्वसनीय सैनिकों को साथ लेकर उस जगह का निरीक्षण करो, जहाँ कि दुश्मनों की सेना अपना पड़ाव डालनेवाली है...। वहाँ पर उस जमीन में इधर-उधर चौतरफ ये चौदह लाख सोनामुहरें इस तरह गाड़ दो कि किसी को पता तक ना लगे। आज रात में यह कार्य पूरा हो जाना चाहिए।' ___ अभयकुमार ने चौदह लाख सोनामुहरों की थैलियाँ राजपुरूषों को सुपुर्द कर दी। राजपुरुषों को अभयकुमार की बुद्धि पर पूरा भरोसा था। उन्होंने अभयकुमार से पूछा भी नहीं कि 'सोनामुहरें जमीन में क्यों गाड़ना' वे सोनामुहरों की थैलियाँ लेकर चले गये। किले के सभी दरवाजे बंद करवा दिये। किले पर दस हजार शस्त्रसज्ज चुनंदे सैनिकों को नियुक्त कर दिये।
रात्रि का प्रारंभ होते ही, अभयकुमार के वे निजी राजपुरुष नगर के बाहर निकले । नगर के चौतरफ छोटे-छोटे गड्ढे खोद कर उसमें चौदह लाख सोनामुहरें गाड़ दी। राजा चंडप्रद्योत या उसके साथ के राजाओं को हवा तक न लगे इस ढंग से काम निपटाकर, वे नगर में लौट आये। अभयकुमार को समाचार दे दिये।
अगले दिन सबेरे राजा चंडप्रद्योत की विशाल सेना राजगृही के परिसर में आ पहुँची। चंडप्रद्योत की आज्ञा के मुताबिक सेना ने चारों ओर से राजगृही को घेर लिया। अभयकुमार का जो अंदाज था वह सही निकला। जिस जगह पर सोनामुहरें गाड़ी गई थी... करीब-करीब वहीं पर चंडप्रद्योत और चौदह राजाओं की रावटियाँ लग गई।
अभयकुमार ने राजा चंडप्रद्योत को संबोधित करके एक पत्र लिखा : 'मालवपति महाराजा चंडप्रद्योत,
सबसे पहले मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मागध महारानी चेल्लना और मालव महारानी शिवादेवी-इन दोनों में मैं कोई भी भेद नहीं रखता। मेरे लिए दोनों पूजनीय हैं। उस संबंध के नाते आप भी मेरे लिए
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अभयकुमार का अपहरण
६५ पूजनीय हो। इस दृष्टि से केवल आपके हित की खातिर, निःस्वार्थ भावना से मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आपके साथ आये हुए चौदह राजाओं को मेरे पिता और मगध सम्राट श्रेणिक ने, एक-एक लाख सोनामुहरें भेजकर अपने पक्ष में ले लिए हैं। वे राजा लोग आपको बंधनग्रस्त करके मगध सम्राट को सौंप देनेवाले हैं। मेरी बात पर पूरा भरोसा नहीं आता हो तो सभी राजाओं पड़ाव के इर्दगिर्द जमीन खुदवा कर खुद अपनी आँखों से सोनामुहरें देख लेना।
आपका
अभयकुमार अभयकुमार ने अपने अत्यंत निजी राजपुरुष के हाथों यह पत्र राजा चंडप्रद्योत को रुबरु भिजवा दिया। मागध राजपुरुष पत्र देकर किले में वापस लौट आया।
इधर पत्र पढ़ते ही राजा चंडप्रद्योत के पैरों तले की जमीन खिसकने लगी। वह चौंक उठा | चंडप्रद्योत ने तुरंत किसी को संदेह न हो इस ढंग से, एक के बाद एक राजा के पड़ाव के आसपास खुदवाया तो वाकई में लाख-लाख सोनामुहरें मिली!
चंडप्रद्योत मन ही मन अभयकुमार का उपकार मानने लगा। वह घबरा उठा। उसने सोचा : 'ये दगाबाज राजा लोग मुझ पर हमला करके बाँध लें, उससे पहले ही मैं यहाँ से खिसक जाऊँ! एक बार सही सलामत उज्जयिनी पहुँच जाऊँ... बाद में इन दगाबाज राजाओं की अक्ल ठिकाने लगा दूँगा...। पर अभी तो यहाँ से शीघ्र ही नौ दो ग्यारह होने में अक्लमंदी है।
चंडप्रद्योत ने चौदह राजाओं को अपने पास बुलाया और कहा : 'आज हमें युद्ध नहीं करना है...। युद्ध का प्रारंभ कल से करेंगे। आज सेना को आराम करके तैयार होने दो।'
राजा लोग निश्चिंत हो गये। अपने-अपने पड़ाव में लौट गये।
राजा चंडप्रद्योत ने अपने अत्यंत विश्वस्त सेनापति को बुलाकर कहा : 'देखो... यह युद्ध हमें नहीं करना है । मैं आज रात्रि में गुप्त रूप से उज्जयिनी के लिए रवाना हो रहा हूँ...। तुम कल सबेरे अपनी सेना के साथ उज्जयिनी की ओर प्रयाण कर देना...।' ‘पर ये चौदह राजा लोग...?'
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अभयकुमार का अपहरण
६६ 'तुम इन दगाबाजों की फिक्र मत करो...। ये जहन्नम में जाएं इनकी बला से! इनसे तो मैं बाद में निपट लूँगा।' सेनापति को बड़ा आश्चर्य हुआ, पर उसने चंडप्रद्योत की आज्ञा मान ली। कोई दलील या प्रतिवाद नहीं किया। चूंकि वह जानता था कि उसका राजा अत्यंत गुस्सैल स्वभाव का है...। यदि उसके सामने बहसबाजी करता तो राजा का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचता! ___ चंडप्रद्योत रात्रि के समय अपने निजी पाँच घुड़सवार सैनिकों को लेकर उज्जयिनी की ओर रवाना हो गया। सबेरे-सबेरे सेनापति भी चुपचाप अपनी पूरी सेना के साथ राजगृही से मुँह मोड़कर उज्जयिनी की ओर चल दिया! चौदह राजा तो ठगे-ठगे से रह गये...| उनकी समझ में यह सब आ नहीं रहा था। वे भी आखिर हार कर अपनी-अपनी सेना के साथ अपने-अपने राज्यों को लौट आये।
अभयकुमार के गुप्तचरों ने अभयकुमार से कहा : 'महाराजकुमार, दुश्मन सभी दूम दबाकर भाग चुके हैं...। अब किले के दरवाजे खोल दें क्या?' _ 'खोल दो द्वार और नागरिकों से कह दो कि खुशी के इस मौके को जी भरकर मनाएँ।'
इस तरह अभयकुमार ने भयंकर युद्ध का खतरा टाल दिया।
राजा चंडप्रद्योत ने उज्जयिनी पहुँचने के कुछ दिनों पश्चात् चौदह राजा को उज्जयिनी आने का निमंत्रण भेजा। राजा लोग उज्जयिनी पहुँचे। खुले दिल से सारी बातें हुई। चंडप्रद्योत को तब अहसास हुआ कि 'किसी तरह अभयकुमार ने उसे मूर्ख बनाया है! मेरे ये बरसों के आज्ञांकित राजा, भला लाख सोनामुहरों की लालच में फँस जाएंगे क्या? यह मुमकिन नहीं! फिर भी अभयकुमार ने झूठी जालसाजी के सहारे मुझे धोखा दिया! मैं इसका बदला लूँगा!'
राजाओं को ससम्मान बिदाई दे दी।
रोजाना चंडप्रद्योत के दिल को यह घटना तीर की भाँति चुभती है... और वह बुलबुला उठता है : 'उसने झूठा भय दिखाकर मुझे भगाया...। मैं भी उसे धोखे में रखकर उसका अपहरण करवाकर यहाँ पकड़ मंगवाऊँगा!'
राजा ने एक दिन राजसभा में सवाल रखा :
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अभयकुमार का अपहरण
६७ ___ 'है कोई ऐसा बुद्धिशाली और कलाबाज आदमी मेरी इस राजसभा में, जो मगध के महामंत्री अभयकुमार को बाँधकर मेरे समक्ष हाजिर कर दे? मैं उसे मालामाल कर दूंगा!'
राजा की बात सुनकर सभी एक-दूसरे का मुँह देखने लगे...। किसी की हिम्मत नहीं हुई... राजा की चुनौती को झेलने की!
लेकिन उस राजसभा में बैठी एक नृत्यांगना, जो कि अपने नाच-गान के द्वारा सभी का मनोरंजन करती थी... उसने खड़े होकर राजा से कहा : 'महाराजा, आप यदि इजाजत दें तो यह कार्य मैं करूँगी।' राजा ने खुश होकर कहा : 'बहुत बढ़िया! यह कार्य तू अवश्य कर | तुझे जितने रुपये वगैरह चाहिए... राज्य की ओर से दिये जाएंगे। तू निश्चित होकर यह कार्य कर।'
नृत्यांगना ने सोचा : 'अभयकुमार को रुपये-पैसे से ललचाया जा सके यह संभव नहीं है और रूप-सौन्दर्य का जादू भी उस पर तनिक भी असर करनेवाला नहीं! हाँ, एक रास्ता है, धर्म का सहारा लेकर अभयकुमार को फँसाया जा सकता है...| चूंकि धार्मिकता एवं धर्मीजन उसके लिए परम आदरणीय हैं। धार्मिक स्त्रीपुरुष की, साधर्मिकों की वह बहुत इज्जत करता है। मुझे श्राविका का स्वांग रचाना होगा। पर अकेले यह कार्य नहीं होगा ...। अभय अकेली श्राविक के सामने आँख उठाकर देखेगा तक नहीं! और दो-तीन चतुर औरतों को मेरे साथ मुझे ले जाना होगा।
उसने राजा से चाहिए जितने सोने के सिक्के ले लिये। दो चतुर स्त्रियों को सारी योजना समझाकर साथ लिया। और राजगृही की ओर प्रयाण कर दिया। योजना के मुताबिक राजा चंडप्रद्योत के पाँच चुनंदे योद्धा भी भेष बदलकर राजगृही में पहले से ही पहुँच चुके थे।
दो औरतों के साथ नृत्यांगना राजगृही में पहुँची | उसने नगर के बाहर एक उद्यान में छोटी पर सुन्दर कुटिर में रहने का निर्णय किया। माली और मालिन को कुछ सोने के सिक्के देकर खुश कर डाले। ___ मालिन के द्वारा उसने जानकारी प्राप्त कर ली... कि अभयकुमार रोजाना किस मंदिरजी में दर्शन व पूजन करने के लिए जाते हैं! मालिन तो पूरे राजगृही का हिसाब-किताब रखनेवाली थी!
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अभयकुमार का अपहरण
६८ दूसरे दिन तीनों औरतों ने स्नान वगैरह करके पूजा के सुंदर वस्त्र पहने । चाँदी की थाली में पूजा के लिए जरूरी सामग्री ली और वे नगर में पहुंची। मालिन ने जो मंदिर बताया था... वहाँ जा पहुँची। तीनों स्त्रियों ने भावपूर्वक पूजा की। चैत्यवंदन प्रारंभ किया। 'मालकौंस' राग के मधुर सुरों में परमात्मा की स्तवना करने लगी।
इतने में अभयकुमार ने मंदिरजी में प्रवेश किया। परमात्मा के दर्शन किये और बाहर खड़े रहे।
'ये महिलाएँ परदेशी मालूम होती हैं। परमात्मा की भक्त लगती हैं। साधर्मिक बहनें हैं। मैं इन्हें भोजन के लिए निमंत्रण दूं।'
वे तीनों स्त्रियाँ मंदिर के बाहर आई तो अभयकुमार ने उनको प्रणाम करते हुए उनका अभिवादन किया। 'मैं अभयकुमार, आपको नमस्कार करता हूँ। आपका परिचय?'
नृत्यांगना ने कहा : 'मैं उज्जयिनी नगरी के एक धनाढ्य सेठ की विधवा हूँ। ये दोनों स्त्रियाँ मेरी पुत्रवधूएँ हैं। हम तीर्थयात्रा के लिए निकली हैं।'
अभयकुमार ने कहा : 'मेरे घर पर भोजन के लिए पधारिये!' नृत्यांगना सलीके से बोली : 'महामंत्रीजी, आपकी मेहरबानी है...। आपकी साधर्मिक भक्ति तो प्रसिद्ध है। पर आज हमको उपवास है, आज तो आपके मेहमान हो नहीं सकते! हमें क्षमा करें।' ___ 'ठीक है, तो कल सबेरे उपवास का पारणा मेरे घर पर करने की कृपा करें। आपको लेने के लिए मेरा आदमी आयेगा, आप ठहरे कहाँ पर हैं?' अभयकुमार ने प्रसन्न होकर कहा। 'हम तो नगर के बाहर बगीचे में ठहरे हैं।' अभयकुमार ने कहा : 'अच्छा तो, कल आप तीनों मेरी मेहमान बनेंगी। पधारियेगा।' अभयकुमार चले गये। नृत्यांगना ने अपने साथ की स्त्रियों से कहा :
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६९
अभयकुमार का अपहरण
'अपना पहला दाव तो सफल रहा है...। अब लगता है... अपना कार्य मुश्किल नहीं होगा।'
तीनों औरतें खुश होती हुई अपने स्थान पर पहुंची। तीनों ने सचमुच का उपवास किया था। क्योंकि तीनों को आशंका थी कि अभयकुमार जरूर गुप्त रूप से तलाश करवायेंगे कि 'उज्जयिनी की तीनों स्त्रियों को सचमुच उपवास है या नहीं?' और यदि पता लगे कि हमने झूठ बोला है... तो वे हमारी ओर संदेहभरी निगाह से देखने लगेंगे... और अपना मनसूबा शायद मिट्टी में मिल जाएगा।'
और सचमुच अभयकुमार ने जाँच करवायी भी!
उज्जयिनी की उन तीनों श्राविकाओं को बुला लाने के लिए आदमी भेजा। वे तीनों अभयकुमार के घर पर आई। अभयकुमार ने उनका स्वागत करके उन्हें पारणा करवा कर कहा :
'यदि मेरे योग्य कुछ कार्य-सेवा हो तो अवश्य कहिए... यहाँ राजगृही में आपको कोई तकलीफ तो नहीं है?'
नृत्यांगना ने भोलेपन से कहा : 'नहीं... नहीं... यहाँ राजगृही में तकलीफ किस बात की? जहाँ सम्राट श्रेणिक जैसे महाराजा का शासन हो और आप जैसे महामंत्री हो, वहाँ तकलीफ भला कैसे हो सकती? हम सुखरूप हैं।'
अभयकुमार ने कहा : 'कभी-कभी मेरे घर पर पधारियेगा... हम तत्त्वचर्चा करेंगे। धर्म की बातें करेंगे।'
नृत्यांगना ने कहा : 'आपका आग्रह है तो हम अवश्य आयेंगे। पर कभी उद्यान में हमारी कुटिया में आप भी पधारने की कृपा करना!'
अभयकुमार ने हामी भरी। नृत्यांगना प्रसन्न हो उठी।
इसके बाद तो कई बार एक दूसरे के वहाँ आना-जाना हुआ। आपस में साधर्मिक भाई-बहन का संबंध हो गया। अभयकुमार निष्कपट थे... सरल थे। नृत्यांगना कपटी थी... धूर्त थी। एक दिन की बात है... अभयकुमार बगीचे में नृत्यांगना की कुटिर पर गये हुए थे। नृत्यांगना ने
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अभयकुमार का अपहरण अभयकुमार का स्वागत किया और पानी में 'चंद्रहास' नाम की शराब मिलाकर तैयार किया हुआ पानी का प्याला अभयकुमार को दिया। अभयकुमार को प्यास लगी थी... उन्होने एक ही चूंट में पानी पी डाला। पर पानी पीते ही धीरे-धीरे उसका असर होने लगा | उनकी पलकें भारी होने लगी... और कुछ ही मिनटों में बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े।
उज्जयिनी के पाँच सैनिक गुप्तभेष में कुटिया के बाहर मौजूद ही थे। गणिका ने ताली बजाकर उन्हें भीतर बुलाया । अभयकुमार को बाँध दिया और रथ में डालकर तीनों औरतें पाँच सैनिकों के साथ आननफानन में उज्जयिनी की ओर रवाना हो गई। __'अभयकुमार, तूने बुद्धि लड़ाकर मुझे राजगृही से भागने को मजबूर किया... आज मैंने तुझे धोखें में डालकर यहाँ मेरे समक्ष बाँध कर मँगवा लिया! बदले की आग में तपते मेरे दिल को आज शकुन मिला।'
चंडप्रद्योत ने अपनी मूछों पर ताव देते हुए कहा।
अभयकुमार के चेहरे पर प्रसन्नता थी। वे खामोश रहे। सारी बात का अंदाजा उन्हें लग गया। उनके मन में अफसोस यही था कि धार्मिकता की आड़ में उन्हें धोखा दिया गया। पर अभी तो चुप रहने में ही गनीमत थी। राजा चंडप्रद्योत ने अभयकुमार को लकड़ी के एक बड़े पिंजरे में कैद कर रखा था। हालाँकि पिंजरे में सभी आवश्यक सुविधा रखी हुई थी। अभयकुमार को किसी भी तरह की तकलीफ न हो, इसका ख्याल खुद राजा चंडप्रद्योत रखता था।
राजा चंडप्रद्योत को एक दिन अजीब संकट ने घेर लिया।
राजा को अत्यंत प्रिय एक दूत था। जिसका नाम था 'लौहजंघ' | जब भी कोई कार्य होता तो राजा लौहजंघ को भृगुकच्छ [वर्तमान का भरुच] भेजता था। भृगुकच्छ पर उस समय चंडप्रद्योत का शासन था।
लौहजंघ बड़ा ही क्रूर और कठोर स्वभाव का था। लोगों के साथ उसका बरताव अच्छा नहीं था । भृगुकच्छ की प्रजा लौहजंघ के अत्याचार से त्रस्त थी, पर शिकायत करे तो किस से करे? राजा को करने का कुछ मतलब नहीं था! क्योंकि लौहजंघ के बारे में राजा किसी से कुछ सुनना पसंद नहीं करता था। बल्कि शिकायत करनेवाले को ही राजा फटकार देता था!
भृगुकच्छ से उज्जयिनी सौ कोस यानी दो सौ मील या ३०० किलोमीटर]
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अभयकुमार का अपहरण
७१ दूर थी। लौहजंघ उज्जयिनी से भृगुकच्छ पैदल चलकर आता था और जाता था। तीन दिन में वह भृगुकच्छ पहुँच जाता और तीन दिन में वापस उज्जयिनी लौट आता था। उज्जयिनी से जब निकलता तब राजमहल में से रास्ते के लिए नाश्ते का डिब्बा [भाथा] ले लेता था। और भृगुकच्छ से रवाना होते समय वहाँ के नगरसेठ के घर से नाश्ता ले लेता था। __ लौहजंघ से असंतुष्ट प्रजा के प्रतिनिधि नगरसेठ के घर पर एकत्र हुए
और लौहजंघ के अत्याचार में से छूटने का उपाय खोजने लगे। काफी सोचविचार के बाद उस गुप्त मंत्रणा में तय किया गया कि किसी भी कीमत पर लौहजंघ को मार डालना! और उपाय भी मिल गया। लौहजंघ को जो नाश्ता दिया जाय उसमें जहर मिला देना। परंतु एक विचक्षण वैद्य ने कहा :
'शायद उस दुष्ट को जहर का असर न भी हो... वह महाकाय भीम जैसा है...| जहर को भी पचा डालेगा...। तो अपनी मेहनत पर पानी फिर जाएगा! मैं तुम्हें दो प्रकार के ऐसे द्रव्य देता हूँ... उन्हें लड्डु के साथ नाश्ते के डिब्बे में रख देना । उसके मिलने से डिब्बे में दृष्टिविष सर्प पैदा हो जाएगा। जैसे ही वह भीम का बच्चा डिब्बा खोलेगा... तो दृष्टिविष सर्प की आँखें उस पर गिरते ही वह जल कर राख हो जाएगा।'
सभी को यह उपाय अँच गया। दूसरे ही दिन लौहजंघ भृगुकच्छ आया। तीन दिन रहकर वापस उज्जयिनी लौटने को तैयार हुआ।
नगरसेठ के घर से उसने नाश्ते का डिब्बा लिया और चल दिया अपनी राह पर! दोपहर का समय बीतने लगा था। तीसरे प्रहर में एक नदी के किनारे पर वह खाने के लिए रुका, पर उसे वहाँ बुरे शकुन हुए...। लौहजंघ शकुन-अपशकुन में बड़ी आस्था रखता था। उसने नाश्ते का डिब्बा खोला ही नहीं...। खड़ा होकर डिब्बा रखा सिर पर और आगे को चल दिया | चार मील चलने के बाद वापस एक घटादार पेड़ के तले खाने के लिए बैठा तो वहाँ पर भी अपशकुन हुए...। उसने डिब्बा नहीं खोला...। डिब्बा उठाया और आगे बढ़ गया।
इसी तरह तीसरी बार भी उसे अपशकुन हुए... उसने खाया ही नहीं...। भूखा ही उज्जयिनी पहुँचा। उसने सीधे ही जाकर राजा चंडप्रद्योत से बात की :
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अभयकुमार का अपहरण
७२ 'रास्ते में जब-जब भी खाने के लिए बैठा तो बुरे ही शकुन हुए... इसलिए मैं तो बिना कुछ खाये ही यहाँ आया हूँ।'
राजा चंडप्रद्योत भी सोच में डूब गया। लौहजंघ बेचारा भूखा ही भृगुकच्छ से चलता हुआ आया..., उसका राजा को बड़ा दुःख हुआ।
'अपशकुन क्यों हए? कभी ऐसा होता नहीं! और इस बार यह क्यों हुआ?' राजा को इस रहस्य का कुछ अतापता लगा नहीं! उसे उसी समय अभयकुमार याद आया! तुरंत उसने द्वारपाल से कहा : । 'जाओ, अभी-इसी वक्त अभयकुमार को यहाँ उपस्थित किया जाए।' अभयकुमार का पिंजरा राजा के पास लाया गया। राजा ने अभयकुमार को लौहजंघ के साथ हुई सारी घटना कह बतायी और अपशकुन होने का कारण पूछा।
अभयकुमार ने कहा : 'वह भोजन का डिब्बा यहाँ मेरे पास लाइये।'
लौहजंघ ने नाश्ते का डिब्बा अभयकुमार के हाथ में दिया । अभयकुमार ने अपनी पैनी बुद्धि से सोचा । अभयकुमार ने भृगुकच्छ के बारे में, वहाँ के लोगों के बारे में, और वह नाश्ते का डिब्बा कहाँ से लेता है... इस बारे में सवाल किये। लौहजंघ ने सभी बातों के जवाब दिये। अभयकुमार ने डिब्बा हाथ में लिया। डिब्बे में कुछ फुसफुसाहट सी आवाज सुनाई दी...| कुछ सरकता हुआ महसूस हुआ। उसने कहा : ___ 'डिब्बे में दृष्टिविष सर्प है...। यदि लौहजंघ ने रास्ते में इस डिब्बे को खोला होता तो वह वहीं जलकर राख हो जाता! यदि मेरी बात का सबूत चाहिए तो जंगल में इस डिब्बे को ले जाओ। वहाँ इसे खोलना... पर सावधानी से!'
डिब्बे को जंगल में एक पेड के तले जाकर खोला गया। जैसे ही डिब्बा खुला... एक सर्प बाहर निकला... उसकी दृष्टि सीधी पेड़ पर गिरी... और पेड़, जलकर राख हो गया!
मंत्रियों ने आकर यह बात राजा चंडप्रद्योत से कही। चंडप्रद्योत अभयकुमार की पैनी बुद्धि पर खुश हो उठा।
उसने अभयकुमार को लाख-लाख धन्यवाद दिये। कुछ दिन बीते।
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७३
अभयकुमार का अपहरण
उज्जयिनी नगरी में 'महामारी' का रोग फैल गया।
लोग मक्खी की भाँति मरने लगे। राजा को चिंता होने लगी। नगर के जाने-माने वैद्य-हकीम और मांत्रिकों ने भी हाथ झटक दिये। यह उनके बस का रोग नहीं था। ___ 'क्या करना?' राजा को कुछ सूझ नहीं रहा है... इतने में राजा को अभयकुमार याद आया। राजा खुद अभयकुमार के पास गया।
'कुमार, नगर में 'महामारी' नामक जानलेवा रोग ने आंतक मचा रखा है। पेड़ से गिरते पत्तों की तरह लोग मौत के शिकार हो रहे हैं। इस रोग से बचने का, इसे दूर करने का कोई उपाय तुझे सूझ रहा है?' __'राजेश्वर! आपकी सभी रानियों में, ऐसी कौन रानी है कि जो आँख के एक ही कटाक्ष में आपको जीत सकती है? 'शिवादेवी!' 'महारानी शिवादेवी से कहिए कि अक्षत की बलि चढ़ाकर भूत की पूजा करें!
राजा ने तुरंत शिवादेवी को बुलाकर अभयकुमार के बतलाए ढंग से भूत की पूजा करने के लिए कहा। शिवादेवी ने उसी ढंग से भूत-पूजा की। 'महामारी' का रोग कुछ ही दिनों में दूर हो गया। नगर में शांति हो गयी। ____ चंडप्रद्योत ने अभयकुमार का बहुत आभार माना। उसे बंधन में से मुक्त करके अपने गले से लगाया । आदर-सत्कार किया और राजगृही जाने के लिए उसे भावभरी बिदाई दी।
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अभयकुमार ने बदला लिया !
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१०. अभयकुमार ने बदला लिया !
७४
उज्जयिनी से निकलते हुए अभयकुमार ने अपने मन में संकल्प किया था कि चंडप्रद्योत ने तो धोखे का सहारा लेकर मेरा राजगृही से अपहरण करवाया.... जबकि मैं दिन-दहाड़े उज्जयिनी के बीच बाजार से राजा चंडप्रद्योत को बाँध कर उठा ले जाऊँगा। वह भी राजा चिल्लाता रहेगा 'मुझे छुड़ाओ ... बचाओ..... मैं चंडप्रद्योत हूँ।' ऐसी दयनीय स्थिति बनाकर उसका अपहरण करूँगा ।'
अभयकुमार राजगृही आये ।
राजगृही में किसी को हवा तक नहीं लग पाई थी कि अभयकुमार का अपहरण हो गया है...। सभी इसी खयाल में थे कि कुछ कार्यवश अभयकुमार बाहर - उज्जयिनी की ओर गये हुए हैं।
कुछ दिन बीत गये। अभयकुमार ने राजगृही की एक नृत्यांगना की दो जवान और सुंदर लड़कियों को बुलाया और कहा :
'तुम्हें मेरे साथ दूसरे गाँव चलना है। बोलो, चलोगी?'
'तुम दोनों को एक-एक हजार सोनामुहरें दूँगा । एक बात का खयाल करना... तुम्हें मेरी पहचान तुम्हारे एक भाई के रूप में देने की और मैं भी तुम्हारा परिचय मेरी बहन के रूप में दूँगा !'
दोनों युवतियों ने कहा :
'महामंत्रीजी, आप यह क्या कह रहे हैं? हमें सोनामुहरें क्या करनी है ? हमें तो आप जैसे महापुरुष 'भाई' के रूप में मिल गये, यही काफी है । हम तो वापस यहाँ लौटने के बाद भी आपको भाई ही मानेंगे। पर हमें आपके साथ आकर करना क्या है?'
'वह मैं तुम्हें रास्ते में बतलाऊँगा...। तुम दोनों जैसी हो वैसे ही रहोगी । मैं अपना भेष बदलूँगा। मैं व्यापारी का भेष धारण करूँगा। मेरे रूप-रंग बदल जाएंगे। मुझे कोई अभयकुमार के रूप में जान नहीं पाये, वैसा रूप मैं रचाऊँगा!'
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'तब तो कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण एवं गुप्त लगता है!'
‘हाँ... वैसा ही है। थोड़ा खतरा भी है। फिर भी तुम्हें तनिक भी डर नहीं रखना है।'
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७५
अभयकुमार ने बदला लिया! 'हमारे साथ खुद मगध साम्राज्य के महामात्य हों, फिर डर किस बात का?' 'हम कल सबेरे तड़के ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे। तुम तैयार रहना। मैं तुम्हें तुम्हारे घर से अपने साथ रथ में ले लूँगा।' ___ उज्जयिनी के राजमार्ग पर स्थित श्वेत हवेली अभयकुमार ने किराये पर ले ली। अभयकुमार ने अपना नाम धैर्यकुमार रखा था। दोनों बहनों के नाम सोना-रूपा रखे थे।
अभयकुमार ने एक ऐसा आदमी खोज लिया... जो कि पागल आदमी का अभिनय सुंदर ढंग से कर सके। उसे एक हजार सोना-मुहरें देकर अपने पास रख लिया। उसका नाम रखा प्रद्योतकुमार |
प्रद्योतकुमार रोजाना चिल्ला-चिल्लाकर हवेली को सर पर उठा लेता है! रास्ते पर खड़ा होकर पागल सा हँसता है... चीखता है... अपने कपड़े चीर देता है.. सीना तानकर 'मैं राजा प्रद्योत हूँ।' इस तरह शोर मचाता है। रास्ते पर घूमता है... लोग देख-सुनकर हँसते हैं... 'ओह... यह तो उस श्वेत हवेलीवाले परदेशी धैर्यकुमार सेठ का भाई है... बेचारा पागल हो गया है...!!'
रोजाना धैर्यकुमार (अभयकुमार) उसे बाँधकर-पकड़कर वैद्य के घर दवाई के लिए ले जाता है...। रास्ते भर प्रद्योत चिल्लाता है... 'मैं राजा प्रद्योत हूँ... मुझे पकड़कर यह ले जा रहा है...। मुझे छुड़वाओ, ओ लोगों... मुझे बचाओ!' __लोग रोजाना यह नजारा देखते हैं... और सुनते हैं, कोई नहीं आता प्रद्योत को छुड़ाने के लिए। सभी को भरोसा हो गया था कि 'यह बेचारा धैर्यकुमार का पागल भाई है, धैर्यकुमार अपने भाई की कितनी सेवा करते हैं! __ इधर हमेशा की भाँति सोना और रूपा शाम के समय सज-सँवर कर हवेली के झरोखे में बैठी-बैठी गप-शप कर रही थी। राजमार्ग पर हो रही चहल-पहल देख रही थी! इतने में राजा चंडप्रद्योत रथ में बैठकर उस रास्ते से गुजरा। राजा की निगाहें श्वेत हवेली के झरोखे पर गिरी। सोना-रूपा को उसने देखा | सोना-रूपा ने भी नजरों से इशारों के तीर चलाते हुए राजा को देखा| चंडप्रद्योत वैसे भी सुंदरता के पीछे पागल था। उसमें सोना-रूपा की छैल छबीली अदाओं ने राजा को बेताब बना डाला...। वह आसक्त हो गया दोनों बहनों की खूबसूरती में!
दूसरे ही दिन राजा ने अपनी विश्वस्त और चतुर परिचारिका को सारी बात समझाकर सोना-रूपा के पास भेजा।
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अभयकुमार ने बदला लिया!
७६ राजा ने सूचना दी थी... 'जब सेठ अपने पागल भाई को लेकर वैद्य के पास जाए, उस समय तू पहुँच जाना।'
परिचारिका ने बराबर समय का खयाल किया और पहुँच गई हवेली । जैसे ही हवेली में प्रविष्ट हुई कि सोना ने पूछा :
'अरी ओ... तू कौन है? यहाँ पर क्यों आई है?' ___ 'मुझे तुम दोनों के साथ एक गुप्त बात करनी है!... इसलिए गुप्त कक्ष में चलो...।' परिचारिका ने कहा।
'हमारे लिए कुछ भी गुप्त नहीं है, हमें कुछ बात नहीं करनी है। तू यहाँ से चली जा!'
'अरे, पर तुम्हें यह पता है-मुझे किसने भेजा है, जानती हो?' दासी आँखें नचाती हुई बोली।
'किसी ने भी भेजा हो..., हमारा भाई घर में नहीं हैं..., हम बात नहीं करेंगे...।'
'अरे, पर मुझे महाराजा ने तुम्हारे पास विशेष बात करने के लिए भेजा है...। तुम्हारे भाई नहीं हैं घर पर इसीलिए तो मैं इस वक्त आई हूँ!'
'ठीक है, महाराजा ने क्यों भेजा है तुझे यहाँ पर?' 'महाराजा तुम दोनों पर मुग्ध हो उठे हैं, वे तुम्हें चाहते हैं!' 'क्यों? महाराजा के रानिवास में रानियाँ नहीं है?'
'हैं, पर तुम सी खूबसूरत तो नहीं हैं ना!' परिचारिका ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा। _ 'अरी... चल हट! जा यहाँ से, हम तेरे महाराजा को नहीं चाहती हैं...। भाग यहाँ से, वरना...।' दोनों ने मिलकर परिचारिका को दरवाजे के बाहर धकेलकर, दरवाजा बंद कर दिया।
परिचारिका अपना ढीला सा मुँह लेकर राजमहल में पहुंची। सोना-रूपा दरवाजा बंद करके खिलखिलाकर हँस पड़ी।
जब अभयकुमार वैद्य के वहाँ से लौटे, तब सोना-रूपा ने सारी बात कही। धैर्यकुमार ने कहा :
'अरे, अभी तो वह वापस कल आएगी। कल भी उसका तिरस्कार करके उसे धकेल देना...| बस, लगता है अब कुछ ही दिनों में अपना कार्य हो जाएगा!'
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अभयकुमार ने बदला लिया !
७७
अभयकुमार ने राजगृही से पाँच चुने हुए घुड़सवार सैनिकों को गुप्त भेष बुलवा लिए थे। वे उज्जयिनी आ पहुँचे थे।
में
अगले दिन जब अभयकुमार अपने उस पागल भाई प्रद्योत को बाँधकर वैद्य के घर पर ले गये, तब वापस उस परिचारिका ने श्वेत हवेली में प्रवेश किया। परिचारिका को देखते ही रूपा आँखें तरेरकर चिल्लायी, 'क्यों री .... तू आ पहुँची ? क्यों आई वापस ?'
वापस
परिचारिका ने कहा :
'अरे... पर तुम समझती क्यों नहीं ? राजा खुद तुम्हारे कदमों पर ढेर होने को तैयार है, और तुम मना करती हो? अरे..., लक्ष्मी जब तिलक करने को आई हो तब भला कौन चेहरा धोने को बैठेगा?' बस, अब तुम मुझे इतना बता दो कि महाराजा को यहाँ पर कब लिवा लाऊँ ?'
सोना ने दहाड़ते हुए कहा :
'ओ बंदरिया ! इसी वक्त यहाँ से अपना काला मुँह लेकर भाग जा..., वरना धक्के खाकर निकलना होगा समझी ना?'
परिचारिका ने ऊँची आवाज में कहा : 'धक्के मारने की आवश्यकता नहीं है..., मैं तो खुद उल्टे पैरों चली जाऊँगी... पर याद रखना, सत्ता के आगे तुम्हारी क्या चल सकेगी! राजा चाहेगा तब तुम्हें उठा ले जाएगा। फिर मुझे याद करके रोना. !!'
परिचारिका वहाँ से निकलकर राजमहल पर पहुँची। राजा से जाकर सारी बात कही। राजा ने उसे हिम्मत देकर कहा : 'तू चिंता मत कर । रूपसी लड़कियाँ पहले ज्यादा ही मगरूरी लेकर घूमती हैं... पर धीरे-धीरे मान जाएगी! कल तुझे वापस उनके पास जाना होगा, मैंने जब से उन्हें देखा है..... मेरा खाना-पीना-सोना बेकार हो गया है। कुछ सूझता नहीं है । यदि कल वे नहीं मानेगी... तब फिर मैं किसी भी हालत में उन्हें यहाँ उठा लाऊँगा !'
परिचारिका ने कहा :
'ठीक है, आप कहते हैं तो कल वापस जाऊँगी, उनकी हवेली पर... लेकिन वे माननेवाली नहीं हैं!'
अभयकुमार ने सोना-रूपा से कहा : 'कल वह परिचारिका वापस आएगी। थोड़ी मान मनौवल के बाद तुम उससे कहना : 'हमारा भाई आज रात को
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अभयकुमार ने बदला लिया !
७८
बाहर गाँव जानेवाला है, सात दिन बाद लौटेगा । इसलिए कल सबेरे एकदम अंधरे-अंधेरे ही महाराजा यहाँ आ जाएं तो हम उनकी हर इच्छा पूरी करेंगे । ' सोना-रूपा ने कहा : 'ठीक है बड़े भैया, आप कहते हैं वैसा ही हम कहेंगे । ' दूसरे दिन अभयकुमार अपने भाई प्रद्योत को लेकर वैद्य के घर पर गये, तब परिचारिका श्वेत हवेली में आ पहुँची ।
तो
सोना दिखावटी गुस्से में नाक-भौं फुलाती हुई बरस पड़ी... 'अरी... तू बिल्कुल बेशरम है... वापस आ गई!'
'क्या करूँ ? महाराजा तुम्हारे बिना पानी के बिना तड़पती मछली की भाँति बेचैन हैं! तुम्हें कुछ तो सोचना ही होगा ।'
सोना ने रूपा के सामने देखकर पूछा : 'रूपा क्या करेंगे?'
रूपा ने कहा : ‘यदि महाराजा को इतना प्रेम है अपने पर, तब उन्हें कल सबेरे अंधेरे ही अंधेरे में यहाँ बुला लें तो ?'
'हाँ... यह ठीक है... बड़े भैया भी आज रात्रि में बाहर जानेवाले हैं। सात दिन बाद आयेंगे।' सोना बोली और परिचारिका से कहा :
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'तू महाराजा से कहना कि कल सबेरे अंधेरे ही वे यहाँ पधार जाएं... । अकेले ही आएं...। और वह भी सादे कपड़े में, ताकि हवेली में किसी को संदेह न हो !'
परिचारिका तो खुशी से नाच उठी! सोना- रूपा के गले में हीरे के दो हार डालकर वह हवेली से निकल गई। जल्दी-जल्दी चलती हुई वह सीधी राजमहल में पहुँची और राजा के पास जाकर भरी-भरी सांस में बोली : 'महाराजा... काम हो गया !'
सोना-
'अरे... पहले जरा आराम से बैठ तो सही... सांस ले जरा, फिर बात कर !' परिचारिका जमीन पर बैठ गई और शांति से उसने सारी बात कही। राजा प्रसन्न हो उठा। उसने अपने गले का कीमती हार निकाल कर दासी को भेंट कर दिया |
- रूपा ने अभयकुमार से सारी बात कही ।
अभयकुमार ने कहा :
'अब अपना काम चुटकी में हुआ समझो ! आज सारी तैयारियाँ कर लो। कल सबेरे ही हम राजगृही की ओर चल निकलेंगे।'
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७९
अभयकुमार ने बदला लिया!
सोना-रूपा भी खुश हो उठी।
रात्रि के समय अभयकुमार ने अपने पाँचों सैनिकों को हवेली के भीतर बुलवा लिये | घोड़े हवेली के पिछवाड़े बाँध दिये | सोना-रूपा से कहा : 'जब सबेरे चंडप्रद्योत यहाँ आये तब तुम उसका स्वागत करना। शस्त्र और मुकुट दूर रखवा देना... इसके बाद मैं उसे बराबर बाँध दूंगा। तुम सब रथ में बैठकर, नगर के बाहर पहुँच जाना। वहाँ हमारा इन्तजार करना । पाँचों सैनिक तुम्हारे साथ रहेंगे। मैं राजा को लेकर आ जाऊँगा। राजा को रथ में डालकर हम राजगृही की ओर प्रयाण कर जाएंगे। रास्ते में कुछ-कुछ दूरी पर हमें मगध के सौ-सौ सैनिक मिलते रहेंगे। शायद पीछे से उज्जयिनी के सैनिक आ चढ़ें तो अपने सैनिक उन्हें रास्ते में ही रोके रखेंगे और हम पूर्ण सुरक्षित राजगृही पहुँच जाएँगे।
'बड़े भैया, आपकी यह योजना तो बड़ी खतरनाक है...। आप राजा को बाँधकर बीच बाजार से उठा ले जाओगे?'
'हाँ... मैंने बीच बाजार से उसका अपहरण करने की प्रतिज्ञा की है। हाँ, उसे राजगृही ले जाकर पूरे सम्मान के साथ रखूगा और इज्जत के साथ बिदाई दूँगा! मुझे तो केवल उसके गर्व का खंडन करना है। उसके अभिमान के परदे को चीरना है।' 'कल सबेरे ही बेचारे का पूरा अभिमान मिट्टी में मिल जाएगा।' सोना-रूपा ने अभयकुमार को प्रणाम किये और वे सोने के लिए चली गई।
अभयकुमार भी हवेली के पिछवाड़े के कमरे में जाकर सो गये। इससे पहले उन्होंने उस दिखावे के पागल प्रद्योत को एक हजार सोनामुहरें देकर बिदाई दे दी थी। उसकी जगह पर अब सच्चे और अच्छे प्रद्योत को बाँधकर ले जाने की कल्पना में खोये-खोये अभयकुमार सो गये। । दूसरे दिन सबेरे अंधेरे ही अंधेरे में भेष बदलकर राजा चंडप्रद्योत श्वेत हवेली में प्रविष्ट हुआ । अभी सूर्योदय होने में काफी समय था। सोना-रूपा ने नजरों के तीर चलाते हुए राजा का स्वागत किया। चंडप्रद्योत तो खुशी से मचल उठा।
'आज मेरी मनोकामना सफल हुई!' 'हम भी धन्य हो उठी मालवपति को पाकर!' सोना ने आँखों की प्याली से ढेर सारा प्यार उड़ेलते हुए कहा।
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अभयकुमार ने बदला लिया !
'पर तुम बड़ी जिद्दी हो !'
'अब तो नहीं हैं ना ? अब समय व्यर्थ नहीं गँवाना है... आपके पास यदि कुछ शस्त्र वगैरह हैं तो वह दूर रख दीजिए... हमें शस्त्रों का बड़ा डर लगता है।'
८०
चंडप्रद्योत ने अपनी कमर में छुपाई कटारी निकालकर रूपा को दे दी... I दोनों बहनों ने कहा :
‘आप पलंग पर लेटिये, हम अभी कपड़े बदलकर आती हैं । '
दोनों बहन पास के खंड में चली गई। चंडप्रद्योत पलंग पर लेटा ही था कि इधर से अभयकुमार ने हाथ में लोहे की जंजीर लेकर खंड में प्रवेश किया। पाँचों सैनिक नंगी तलवार लिये पलंग को घेर कर खड़े हो गये ।
चंडप्रद्योत चौंक उठा... वह चिल्ला उठा...
'धोखा... धोखा...!'
अभयकुमार ने कहा :
‘चिल्लाइये मत राजन्! आपकी चीख-पुकार सुननेवाला यहाँ कोई नहीं है...। सीधे रहिए। मैं आपको इस लोहे की जंजीर से बाँधूंगा... और बीच बाजार से उठाकर आपको राजगृही ले जाऊँगा !'
'कौन तू अभयकुमार है!'
'हाँ, महाराजा!'
अभयकुमार ने जंजीर से चंडप्रद्योत को जकड़ लिया। चंडप्रद्योत सामान्य नागरिक के भेष में था...। नहीं था सिर पर मुकुट, या नहीं था बाजूबंद । या नहीं थी तलवार...!
सुबह हो गई थी... बाजार में दुकानें भी खुलने लगी थी... रास्ते पर लोगों की आवाजाही भी चालू हो गई थी ।
अभयकुमार ने चंडप्रद्योत को हवेली के बाहर निकाला और उसे पकड़कर बीच बाजार से चलने लगे।
चंडप्रद्योत चिल्लाता है ... ' मैं प्रद्योत हूँ... मैं राजा प्रद्योत हूँ... यह मुझे बाँधकर ले जा रहा है... मुझे छुड़वाओ... मुझे बचाओ...।'
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लोग तो कई दिनों से यह तमाशा देख रहे थे। सभी उसके सामने देखते हैं और हँसते हैं...! लोग बातें करते हैं :
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८१
अभयकुमार ने बदला लिया!
'धैर्यकुमार का भाई बेचारा कितना पागल है... फिर भी धैर्यकुमार उसकी कितनी सेवा करते हैं!'
चंडप्रद्योत को लेकर अभयकुमार नगर के बाहर आ गये। वहाँ पर रथ तैयार खड़ा था। चंडप्रद्योत को रथ में डाला और रथ को राजगृही के रास्ते पर दौड़ा दिया। पाँचों शस्त्रसज्ज सैनिकों के घोड़े रथ के पीछे चौकसी रखते हुए दौड़ रहे थे। 'महाराजा, आपकी सेवा में मालवपति को उपस्थित करता हूँ।' अभयकुमार ने राजगृही आकर महाराजा श्रेणिक को निवेदन किया। चंडप्रद्योत को श्रेणिक के समक्ष लाकर खड़ा रखा गया कि तुरंत श्रेणिक खुद खुली तलवार लेकर चंडप्रद्योत की ओर लपके।
उसी वक्त अभयकुमार ने श्रेणिक का हाथ पकड़ लिया और कहा :
'पिताजी, मालवपति को दुश्मन नहीं मानना है! उन्हें हमारे मित्र बनाकर विदाई देनी है। मगध और मालवा-दो मित्र राज्य बनेंगे। इससे प्रजा की सुखशांति और समृद्धि बढ़ेगी।
अभयकुमार ने चंडप्रद्योत के बंधन खोल दिये। हाथ जोड़कर चंडप्रद्योत से माफी माँगी।
अपने महल पर ले जाकर चंडप्रद्योत के लिए योग्य सुंदर वस्त्र एवं शस्त्र भेंट किये।
महाराजा श्रेणिक के साथ बैठकर चंडप्रद्योत ने भोजन किया। दोनों के बीच दोस्ती का रिश्ता बन गया ।
चंडप्रद्योत ने कहा : 'महाराजा, सचमुच तुम्हें पुत्र और मंत्री महान बुद्धिशाली मिला है...। यदि मुझे आपसे कुछ माँगना हो तो मैं आपके इस बुद्धिनिधान बेटे को ही माँग लूँ!'
श्रेणिक ने कहा : 'राजेश्वर, यह मेरा बेटा तो कभी का भगवान महावीर के पास जाने के लिए तरस रहा है! यह न तो मेरे पास रहेगा... न आपके पास आएगा!'
चंडप्रद्योत को राजगृही से भव्य बिदाई दी गई।
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अभयकुमार की दीक्षा
८२
११. अभयकुमार की दीक्षा
बरसों गुजर गये थे। श्रेणिक राजा के शरीर पर बुढ़ापे की झुर्रियां घिर आई थी। अभयकुमार भी प्रौढ़ हो चुके थे। एक दिन की बात है :
श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरण करते हुए राजगृही में पधारे। नगर के बाहर गुणशील चैत्य में ठहरे थे।
सर्दियों का मौसम था। कड़ाके की सर्दी की गिरफ्त में पूरा वातावरण काँप रहा था।
गणशील चैत्य के इलाके में समवसरण की रचना हुई थी। भगवान का उपदेश सुनने के लिए हजारों स्त्री-पुरुष एकत्र हुए थे। महाराजा श्रेणिक और रानी चेल्लणा (श्रेणिक राजा के अनेक रानियाँ थी, उसमें पट्टरानी चेल्लणा थी, जो कि वैशाली के राजा चेटक की राजकुमारी थी... और परमात्मा महावीरस्वामी की परम उपासिका थी।) भी वहाँ उपस्थित थे। ___ उपदेश सुनते हुए शाम हो गई थी। सूर्य अस्त होने में एकाध घंटे की देर थी। ठंढ़ बढ़ती जा रही थी।
श्रेणिक और चेल्लणा रथ में बैठकर नगर में जाने के लिए निकले। रथ शीघ्र गति से दौड़ रहा था । नदी के किनारे पर चेल्लणा रानी ने एक मुनि को कायोत्सर्ग ध्यान में लीन होकर खड़े देखा । एक घटादार वृक्ष के नीचे केवल एक वस्त्र पहनकर कुछ भी ओढ़े बगैर मुनि किसी चट्टान की भाँति स्थिर खड़े थे।
चेल्लणा रानी काँप उठी। वह सोचने लगी। 'ओह... इतनी कड़ाके की सर्दी में भी बदन खुला रखकर ये महामुनि ध्यान में डूबे हुए हैं!
धन्य है इनकी तपश्चर्या को।' उसने श्रेणिक से कहा : 'स्वामिन्, उधर देखिये! नदी किनारे कोई महामुनि ध्यान में खड़े हैं। बड़े
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अभयकुमार की दीक्षा
८३ तपस्वी लगते हैं... हम उन्हें वंदना करें और उनके दर्शन करके... उनकी स्तवना करके जीवन को धन्य बनायें!'
राजा-रानी रथ में से नीचे उतरे... | मुनिराज के समीप जाकर उन्हें वंदना की। भावपूर्ण हृदय से उनकी स्तवना की और वापस लौटकर रथ में बैठे। राजमहल जा पहुंचे।
रात हुई।
शयनखंड में राजा-रानी भगवान महावीर के धर्मोपदेश की चर्चा कर रहे थे। राजा को नींद आ गई थी। चेल्लणा जग रही थी... उसके मानस पट पर नदी किनारे ध्यान करनेवाले मुनि की आकृति बराबर उभर रही थी। उसका मन चिंतित हो रहा था। यों सोच ही सोच में वह भी नींद की गोद में समा गई।
रात आधी गुजर चुकी थी। ठंढ़ी के झोंके ने चेल्लणा की नींद उड़ा दी। महल के बाहर चमड़ी को चीर देनेवाली सर्द हवाएँ सनसना रही थी। चेल्लणा को वे मुनि याद आ गये। उसके मुँह से निकल गया... 'ओह... इस जानलेवा सर्दी में उनका क्या हो रहा होगा?'
इधर श्रेणिक की नींद भी उचट गई थी... पर वह आँखें मूंदे ही लेटा रहा। उसे चेल्लणा के शब्द सुनने थे। इतने में रानी फिर बड़बड़ा उठी... 'ओफ्फोह... इस कातिल ठंढ़ के थपेड़ों में उनका क्या होगा?' श्रेणिक ने चेल्लणा के शब्द सुने | उसने सोचा : 'अजीब बात है... इतनी रात गये... रानी किसकी चिंता में जार-जार हुए जा रही है? क्या यह उसके किसी प्रेमी की चिंता में यह सब बड़बड़ा रही होगी... मन में घुल रही बात अक्सर नींद में होठों पर चली आती है! यदि यह सही है तो मेरी रानी मेरे प्रति वफादार नहीं है... वह किसी और को चाहती है... मुझसे भी ज्यादा इसे किसी और की चिंता है... क्या करना ऐसी बेवफा रानी को? मैं उसे जिन्दा छोड़नेवाला नहीं!'
राजा की नींद हराम हो गई। मरने-मारने के विचारों में पूरी रात राजा ने बितायी।
सबेरे-सबेरे राजा आनन-फानन अपने मंत्रणागृह में गया और वहाँ उसने अभयकुमार को बुलाकर कहा :
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अभयकुमार की दीक्षा
८४ 'कुमार... रानी चेल्लणा बेवफा निकली... ऐसी रानी मुझे नहीं चाहिए... जला डाल उसके महल को! एक पल का भी विलंब किये बगैर मेरी आज्ञा का पालन कर!'
गुस्से में दनदनाकर राजा ने हुक्म कर दिया।
अभयकुमार को बड़ा आश्चर्य हुआ । इतने बरसों में कभी उसने राजा और रानी चेल्लणा के बीच किसी प्रकार की अनबन या दूरी देखी-सुनी नहीं थी। महारानी चेल्लणा की पवित्रता और निर्दोषता पर अभयकुमार को अडिग विश्वास था। तब फिर राजा ने चेल्लणा के महल को जलाने का फतवा क्यों दिया? कुछ समझ में नहीं आ रहा है! जल्दबाजी में मुझे कुछ भी नहीं करना है। सोच-विचार कर कुछ उपाय ढूँढ़ना होगा।' उसने मन ही मन कुछ सोचकर उस वक्त तो राजा से कह दिया : 'पिताजी, आपकी आज्ञा का अविलंब पालन हो जाएगा।'
अभयकुमार अपने महल पर गया। प्राभातिक कार्यों से निपटकर... वह अपना कार्य करने के लिए निकला। उसने रानी चेल्लणा के महल के आसपास देखा... वहाँ पर पाँच-दस झोंपड़े जैसे मकान खाली करवा दिये... और अपने खास आदमियों के द्वारा उनमें आग लगवा दी।
इधर महाराजा श्रेणिक प्रातःकालीन कार्यों से निपटकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के दर्शनार्थ गये थे। वहाँ पर भगवंत को वंदना करके उसने प्रश्न किया :
'प्रभो, मेरी सभी रानियाँ सती-पवित्र हैं... या असती हैं?' 'श्रेणिक, चेल्लणा वगैरह तेरी सभी रानियाँ सती हैं... पतिव्रता हैं!'
सर्वज्ञ वीतराग भगवान पर श्रेणिक को अटूट विश्वास था। भगवान का प्रत्युत्तर सुनकर श्रेणिक का दिल दो टूक हो उठा!
'अरे... मैंने अभय को जो आज्ञा दी है... यदि उसने सोचे बगैर उसका पालन कर दिया तो बड़ा ही अनर्थ हो जाएगा! मैं जल्दी पहुँचूँ नगर में... और अभय को रोकूँ...!!
श्रेणिक तीर की तरह समवसरण में से निकल कर रथ में बैठे | वेग से रथ को नगर की ओर दौड़ाया। अभयकुमार इधर से समवसरण की ओर चले आ रहे थे। उसके रथ को देखकर श्रेणिक ने अपना रथ रोका | अभयकुमार ने भी
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अभयकुमार की दीक्षा
८५
श्रेणिक के रथ को रुका हुआ देखकर अपना रथ रोक दिया । अभय श्रेणिक के रथ के पास पहुँचा। श्रेणिक ने एक ही सांस में पूछ डाला :
'अभय, तूने क्या कर दिया ?'
'मैंने तो आपकी आज्ञा का पालन ही किया है!'
'अरे... मूर्ख... कुछ सोचना तो था ... जा, मेरी नजर से दूर हो जा... तेरा मुँह मत दिखाना!'
मुझे
'ठीक है... पिताजी, आपकी आज्ञा को सिर पर चढ़ाता हूँ ।'
अभयकुमार ने अपने रथ को समवसरण की ओर गतिशील बनाया ।
समवसरण में आकर उसने भगवान महावीर स्वामी को तीन प्रदक्षिणा दी और दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके प्रभु से प्रार्थना की : 'प्रभो, मुझे दीक्षा देकर भवसागर से पार लगाइये ।'
'अभय, जब जीवन चंचल है... मौत अनिश्चित है... तब तो आत्महित में देरी नहीं करनी चाहिए ।'
प्रभु ने अभयकुमार को दीक्षा दी। अभयकुमार का रोम-रोम पुलक उठा था। उसने अपनी पैनी बुद्धि से श्रेणिक की बुद्धि को काट डाली थी ।
श्रेणिक का रथ अंतःपुर के पास आकर रुक गया । अंतःपुर - रानी चेल्लणा का महल तो सुरक्षित था । अन्तःपुर से कुछ दूरी पर पाँच-दस झोंपड़े आग की लपटों में सुलग रहे थे। लोग हा हूं करते हुए उस आग को बुझाने की कोशिश में लगे थे।
श्रेणिक सोचता है : 'तब फिर अभयकुमार मुझ से झूठ क्यों बोला? हालाँकि गलती मेरी ही है। पहले मुझे भगवान से पूछकर बाद में रानी के बारे में कुछ भी सोचना था ! अरे, भगवान से पहले मुझे खुद रानी चेल्लणा से ही पूछ लेना था... ठीक है, अब भी क्या बिगड़ा है... 'रानी से पूछ ही लूँ कि वह रात में किस की चिंता में बड़बड़ा रही थी!'
श्रेणिक गये अंतःपुर में । चेल्लणा वगैरह रानियों ने राजा का स्वागत किया । श्रेणिक सिंहासन पर बैठे । श्रेणिक ने रानी चेल्लणा के सामने देखकर पूछा :
'देवी, तुम रात को किसकी चिंता कर रही थी?'
'स्वामिन्, हम जब कल शाम को समवसरण से लौट रहे थे... तब नदी के
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अभयकुमार की दीक्षा
८६
किनारे जिन तपस्वी मुनि के दर्शन किये थे... मुझे उन मुनि की चिंता सता रही थी। चूँकि रात में खून को बर्फ कर दे वैसी कड़ाके की ठंढ़ थी... और उन मुनि ने तो केवल एक वस्त्र ही कमर पर लपेटा था... हम तो ऊनी - गरम कंबल... और मुलायम रजाईयाँ ओढ़कर सोते हैं... फिर भी सर्दी से काँप जाते हैं... तब फिर उन मुनि का क्या हुआ होगा... बस यही चिंता मुझे जारजार किये जा रही थी!'
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श्रेणिक की आँखें विस्फारित हो गई... उसे अपनी गलती का अहसास हो गया... साथ ही उसे एक बात की याद आ गई... और वह खड़े हो गये... 'मैं समवसरण में जाता हूँ...' कहकर वे अंतःपुर के बाहर निकल गये । रथ में बैठकर शीघ्र ही समवसरण की ओर दौड़े।
उन्हें अपने शब्द याद आ गये... 'जब अभयकुमार ने दीक्षा लेने की बात... बरसों पहले की थी तब मैंने उसे कहा था कि जब मैं तुझे गुस्से में दनदनाकर कह दूँ... 'चल जा, मुझे तेरा मुँह भी मत बताना!' तब तू दीक्षा ले लेना ।
और आज वे शब्द अनजाने में मेरे मुँह से निकल गये ! क्या समवसरण में जाकर अभय ने दीक्षा तो नहीं ले ली होगी प्रभु के पास में?'
श्रेणिक के दिल में तहलका मच गया। उसे अपनी दुनिया वीरान होती नजर आने लगी। ‘मैंने आज बहुत बड़ी गलती कर दी....!'
रथ समवसरण के प्रथम गढ़ में पहुँचकर खड़ा हो गया ।
श्रेणिक रथ में से उतरे और वेग से चढ़ते हुए तीसरे गढ़ में पहुँचे । प्रभु को वंदना की... पास में नजर की तो अभयकुमार को साधु के भेष में देखा !
श्रेणिक की आँखें बरस पड़ी। वे फफक-फफक कर रो दिये। मुनिवर अभय के चरणों में गिरकर वंदना की और कहा :
'आपने मुझे ठगा है!'
श्रेणिक राजमहल को वापस लौटे।
अन्तःपुर में जब रानियों को समाचार मिले कि 'अभयकुमार ने दीक्षा ले ली है।' तो करुण वातावरण छा गया। सभी रानियाँ तत्काल रथ में बैठकर समवसरण में पहुँची। भगवान को भावपूर्वक वंदना करके मुनिराज अभय को वंदना की। हर एक रानी फूट-फूट कर रोये जा रही थी।
राजगृही में अभयकुमार को दीक्षा के समाचार बाढ़ के पानी की तरह फैल
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अभयकुमार की दीक्षा चुके थे... लोगों का अविरत प्रवाह समवसरण की ओर जाने लगा। अपने लाड़ले राजकुमार और बुद्धिनिधान महामंत्री को साधु के भेष में देखकर बच्चेबूढ़े सभी रो पड़े।
सभी नगर में वापस लौटे।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने राजगृही से विहार कर दिया। राजगृही सूनी-सूनी हो गई थी। अभयकुमार की स्मृति में प्रजा पागल हो रही थी। राजमहल की रौनक मर चुकी थी। चारों ओर सन्नाटा बर्फ बनकर छा गया था। ____ मुनिवर अभयकुमार भगवान के चरणों में रहकर ज्ञान-ध्यान के साथ-साथ घोर तपश्चर्या करने लगे। कई बरसों तक उनकी उग्र आराधना चलती रही।
उनका आयुष्य पूरा हुआ।
समता-समाधि में डूबे हुए अनशन व्रत स्वीकार करके उन्होंने प्राणों का त्याग किया। __ वे 'अनुत्तर देवलोक' में 'सर्वार्थसिद्ध' नामक विमान में देव हुए। अभी वर्तमान में वे वहाँ पर हैं। वीतराग जैसी उनकी अवस्था है। श्रेष्ठतम सुख वैभव में भी वे अनासक्त योगी की तरह जी रहे हैं! अभी और असंख्य बरस वे वहीं पर गुजारेंगे। __ वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके... उनकी आत्मा मध्यलोक में आये हुए 'महाविदेह' क्षेत्र में [अपना क्षेत्र भरतक्षेत्र कहलाता है] जन्म लेंगे। उत्तम कुल में उनका जन्म होगा। __ वहाँ उन्हें साक्षात् तीर्थंकर भगवंत का समागम प्राप्त होगा। वे उनके श्री चरणों में दीक्षा लेंगे। उग्र तपश्चर्या करके आत्मा पर लगे हुए आठों कर्म के आवरण को नष्ट करेंगे। और इस तरह मुक्ति को प्राप्त होंगे।
परम सुख... चरम शांति और आत्मानंद की अनुभूति में लीन हो जाएंगे।
समाप्त.
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राजकुमार श्रेणिक
आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरि (प्रियदर्शन) रचित व सर्जित साहित्य और विश्वकल्याण प्रकाशन, महेसाणा द्वारा प्रकाशित उपलब्ध पुस्तकें (अब श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ से उपलब्ध व प्रकाश्यमान)
हिन्दी पुस्तकें प्रवचन १. पर्व प्रवचनमाला
२५.०० २-४. श्रावकजीवन (भाग २, ३, ४)
१५०.०० शांतसुधारस (भाग १)
५०.०० कथा-कहानियाँ शोध-प्रतिशोध (समरादित्य : भव-१)
३०.०० २. द्वेष-अद्वेष (समरादित्य : भव-२)
३०.०० विश्वासघात (समरादित्य : भव-३)
३०.०० वैर विकार (समरादित्य : भव-४)
५०.०० स्नेह संदेह (समरादित्य : भव-६)
५०.०० संसार सागर है
३०.०० *प्रीत किये दुःख होय
५०.०० व्रतकथा
१५.०० कथादीप
१०.०० फूलपत्ती छोटी सी बात
८.०० *कलिकाल सर्वज्ञ
२५.०० हिसाब किताब
१५.०० १४. नैन बहे दिन रैन
३०.०० १५. सबसे ऊँची प्रेम सगाई
३०.०० १६. *राग-विराग
डी.६८/ज.३० *राजकुमार श्रेणीक
डी.६८/ज.३० तत्त्वज्ञान ज्ञानसार (संपूर्ण)
५०.०० *समाधान
५०.०० *मारग साचा कौन बतावे
३०.०० पीओ अनुभव रस प्याला
२०.०० शान्त सुधारस (अर्थ सहित)
१२.०० मोती की खेती
५.०० प्रशमरति (भाग - २)
२५.००
८.००
سه
» تم
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निबंध : मौलिक चिंतन स्वाध्याय
રૂ૦.૦૦ चिंतन की चाँदनी
રૂ૦.૦૦ जिनदर्शन
૧૦.૦૦ शुभरात्रि
૬.૦૦ ૬. સુપ્રભાતમ્
૬.૦૦ વળ્યોં કે (ચિત્ર) ૧-રૂ. વિજ્ઞાન સેટ (રૂ પુસ્તw)
૨૦.૦૦ ગુજરાતી પુસ્તકો પ્રવચનો ૧-૪. ધમ્મ સરણે પવજ્જામિ ભાગ ૧ થી ૪
૨૦૦.૦૦ ૫-૭. શ્રાવક જીવન ભાગ ૨, ૩, ૪
૧૫૦.૦૦ ૮-૧૦. શાંત સુધારસ ભાગ ૧ થી ૩
૧૫૦.૦૦ ૧૧. પર્વ પ્રવચનમાળા
૫0.00 ૧૨. મનને બચાવો
૧૫.૦૦ કથા-વાર્તા સાહિત્ય ૧૩-૧૫.*સમરાદિત્ય મહાકથા ભાગ ૧ થી ૩
૪૦૦.૦૦ ૧૬. #પાંપણે બાંધ્યું પાણિયારું
૪૦.00 ૧૭. *પ્રીત કિયે દુ:ખ હોય
ડી.-૧૬પ-૦૦/જ.-૧૦. ૧૮. *એક રાત અનેક વાત
૩૦.૦૦ ૧૯. નીલ ગગનનાં પંખેરુ
૩૦.૦૦ ૨૦. મને તારી યાદ સતાવે
૩0.00 ૨૧. દોસ્તી
૨૫.00 ૨૨. સર્વજ્ઞ જેવા સૂરિદેવ
૩૦.૦૦ અંજના
૨0.00 ફૂલ પાંદડી
૮.૦૦ ૨૫. વ્રત ધરે ભવ તરે
૧૫.00 ૨૭. શ્રદ્ધાની સરગમ
૩૦.૦૦ ૨૭. શોધ પ્રતિશોધ
૩૦.૦૦ નિરાંતની વેળા
૨૦.૦૦ ૨૯. વાર્તાની વાટે
૨૦.૦૦ ૩૦. વાર્તાના ઘાટે
૨૦.00 ૩૧. હિસાબ કિતાબ
૨૦.૦૦ ૩૨. રીસાયેલો રાજકુમાર
૨૦.૦૦
૨૩.
૨૮. નિયંતી ?
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૧૦.00
૮.૦૦
૩૩. સુલતા
૫૦.૦૦ ૩૪-૩૬.*જૈન રામાયણ ભાગ-૧ થી ૩ ડી-૪૬પ-૦૦/જ.-૧૯૫.૦૦ તત્ત્વજ્ઞાન-વિવેચન ૩૭. મારગ સાચા કૌન બતાવે
૩૦.૦૦ ૩૮. સમાધાન
૪૦.૦૦ ૩૯. *પીઓ અનુભવ રસ પ્યાલા
૨૦.૦૦ ૪૦. *જ્ઞાનસાર
ડી.-૨૨૦-૦૦જિ.-૧૧૫.૦૦ ૪૧. *પ્રશમરતિ
- ડી.-૩૦૧-00/જ.-૧૧૫.00 મૌલિક ચિંતન / નિબંધ ૪૨. હું તો પલ પલમાં મુંઝાઉં
૩૦.૦૦ ૪૩. તારા દુ:ખને ખંખેરી નાંખ
૪૦.૦૦ ૪૪. ન પ્રિયતે
૧૦.૦૦ ૪૫. ભવના ફેરા
૧૫.00 ૪૬. જિનદર્શન (દર્શન વિધિ) ૪૭. માંગલિક (નિત્ય સ્વાધ્યાય).
૮.00 ૪૮. સ્વાધ્યાય
૩૦.૦૦ ૪૯. તીર્થયાત્રા ૫૦. ત્રિલોકદર્શન
૨૫.00 ૫૧. *લય-વિલય-પ્રલય
૫૦.૦૦ ૫૨. સંવાદ
૪૦.૦૦ ૫૩. હું મને શોધી રહ્યો છું
૪0.00 ૫૪. હું તને શોધી રહ્યો છું
૪૦.૦૦ બાળકો માટે રંગીન સચિત્ર પપ. વિજ્ઞાન સેટ (૩ પુસ્તકો)
૨૦.૦૦ વિવિધ ૫૬. ગીતગંગા (ગીતો)
૨૦.૦૦ ૫૭. સમતા સમાધિ
૫.૦૦ English Books The Way Of Life [Part 1 to 4]
160.00 Jain Ramayana [Part 1 to 3]
130.00 3. Bury Your Worry
30.00 4. Children's 3 Books Set
20.00 A Code of Conduct
6.00 The Treasure of mind
*5.00 7. *The Guide Lines Of Jainism
60.00 * श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा द्वारा पुनः प्रकाशित
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