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अभयकुमार की दीक्षा
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श्रेणिक के रथ को रुका हुआ देखकर अपना रथ रोक दिया । अभय श्रेणिक के रथ के पास पहुँचा। श्रेणिक ने एक ही सांस में पूछ डाला :
'अभय, तूने क्या कर दिया ?'
'मैंने तो आपकी आज्ञा का पालन ही किया है!'
'अरे... मूर्ख... कुछ सोचना तो था ... जा, मेरी नजर से दूर हो जा... तेरा मुँह मत दिखाना!'
मुझे
'ठीक है... पिताजी, आपकी आज्ञा को सिर पर चढ़ाता हूँ ।'
अभयकुमार ने अपने रथ को समवसरण की ओर गतिशील बनाया ।
समवसरण में आकर उसने भगवान महावीर स्वामी को तीन प्रदक्षिणा दी और दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके प्रभु से प्रार्थना की : 'प्रभो, मुझे दीक्षा देकर भवसागर से पार लगाइये ।'
'अभय, जब जीवन चंचल है... मौत अनिश्चित है... तब तो आत्महित में देरी नहीं करनी चाहिए ।'
प्रभु ने अभयकुमार को दीक्षा दी। अभयकुमार का रोम-रोम पुलक उठा था। उसने अपनी पैनी बुद्धि से श्रेणिक की बुद्धि को काट डाली थी ।
श्रेणिक का रथ अंतःपुर के पास आकर रुक गया । अंतःपुर - रानी चेल्लणा का महल तो सुरक्षित था । अन्तःपुर से कुछ दूरी पर पाँच-दस झोंपड़े आग की लपटों में सुलग रहे थे। लोग हा हूं करते हुए उस आग को बुझाने की कोशिश में लगे थे।
श्रेणिक सोचता है : 'तब फिर अभयकुमार मुझ से झूठ क्यों बोला? हालाँकि गलती मेरी ही है। पहले मुझे भगवान से पूछकर बाद में रानी के बारे में कुछ भी सोचना था ! अरे, भगवान से पहले मुझे खुद रानी चेल्लणा से ही पूछ लेना था... ठीक है, अब भी क्या बिगड़ा है... 'रानी से पूछ ही लूँ कि वह रात में किस की चिंता में बड़बड़ा रही थी!'
श्रेणिक गये अंतःपुर में । चेल्लणा वगैरह रानियों ने राजा का स्वागत किया । श्रेणिक सिंहासन पर बैठे । श्रेणिक ने रानी चेल्लणा के सामने देखकर पूछा :
'देवी, तुम रात को किसकी चिंता कर रही थी?'
'स्वामिन्, हम जब कल शाम को समवसरण से लौट रहे थे... तब नदी के
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