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अभयकुमार का अपहरण अभयकुमार का स्वागत किया और पानी में 'चंद्रहास' नाम की शराब मिलाकर तैयार किया हुआ पानी का प्याला अभयकुमार को दिया। अभयकुमार को प्यास लगी थी... उन्होने एक ही चूंट में पानी पी डाला। पर पानी पीते ही धीरे-धीरे उसका असर होने लगा | उनकी पलकें भारी होने लगी... और कुछ ही मिनटों में बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े।
उज्जयिनी के पाँच सैनिक गुप्तभेष में कुटिया के बाहर मौजूद ही थे। गणिका ने ताली बजाकर उन्हें भीतर बुलाया । अभयकुमार को बाँध दिया और रथ में डालकर तीनों औरतें पाँच सैनिकों के साथ आननफानन में उज्जयिनी की ओर रवाना हो गई। __'अभयकुमार, तूने बुद्धि लड़ाकर मुझे राजगृही से भागने को मजबूर किया... आज मैंने तुझे धोखें में डालकर यहाँ मेरे समक्ष बाँध कर मँगवा लिया! बदले की आग में तपते मेरे दिल को आज शकुन मिला।'
चंडप्रद्योत ने अपनी मूछों पर ताव देते हुए कहा।
अभयकुमार के चेहरे पर प्रसन्नता थी। वे खामोश रहे। सारी बात का अंदाजा उन्हें लग गया। उनके मन में अफसोस यही था कि धार्मिकता की आड़ में उन्हें धोखा दिया गया। पर अभी तो चुप रहने में ही गनीमत थी। राजा चंडप्रद्योत ने अभयकुमार को लकड़ी के एक बड़े पिंजरे में कैद कर रखा था। हालाँकि पिंजरे में सभी आवश्यक सुविधा रखी हुई थी। अभयकुमार को किसी भी तरह की तकलीफ न हो, इसका ख्याल खुद राजा चंडप्रद्योत रखता था।
राजा चंडप्रद्योत को एक दिन अजीब संकट ने घेर लिया।
राजा को अत्यंत प्रिय एक दूत था। जिसका नाम था 'लौहजंघ' | जब भी कोई कार्य होता तो राजा लौहजंघ को भृगुकच्छ [वर्तमान का भरुच] भेजता था। भृगुकच्छ पर उस समय चंडप्रद्योत का शासन था।
लौहजंघ बड़ा ही क्रूर और कठोर स्वभाव का था। लोगों के साथ उसका बरताव अच्छा नहीं था । भृगुकच्छ की प्रजा लौहजंघ के अत्याचार से त्रस्त थी, पर शिकायत करे तो किस से करे? राजा को करने का कुछ मतलब नहीं था! क्योंकि लौहजंघ के बारे में राजा किसी से कुछ सुनना पसंद नहीं करता था। बल्कि शिकायत करनेवाले को ही राजा फटकार देता था!
भृगुकच्छ से उज्जयिनी सौ कोस यानी दो सौ मील या ३०० किलोमीटर]
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