________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४१
पिता की चिट्ठी आई!
दूसरी ओर, ज्ञानी पुरुषों का कहना भी सही है कि माता-पिता और गुरुजनों की सलाह-सूचन भाग्यशाली को ही मिलती है। जो लड़के अपने से बड़ों का कहना नहीं मानते... वे भटकते हैं... भूलते हैं! क्या करूँ? अभी तो जाने का मन नहीं है! ऐसा करता हूँ... पिताजी को एक पत्र लिख भेजता हूँ।'
श्रेणिक ने शांत मन से पत्र लिखा... बंद किया। ऊपर सील लगाई और सुमंगल से पत्र देकर कहा : 'यह पत्र तू स्वयं महाराजा को उन्हीं के हाथों में देना।' सुमंगल ने राजगृही का रास्ता लिया। राजगृही पहुँचकर महाराजा को पत्र सौंप दिया। कुमार ने लिखा था : 'पूज्य पिताजी, आपका उलाहनाभरा पत्र मिला | आपकी, माताजी की और भाइयों की स्मृति ताजा हो आई। परंतु वहाँ आने को दिल नहीं करता है! जिस समय पिता की ओर से प्रशंसा मिलनी चाहिए तब उलाहना मिलती हो... वैसे पिता के पास या राजा के पास कोई कैसे रह सकता है?
पिताजी, घरजामाता होकर रहने में मैं तनिक भी खुश नहीं हूँ। कोई भी स्वमानी पुरुष घरजामाता होकर रहना पसंद नहीं करता... परंतु जहाँ पिता स्वयं पुत्र का अकारण अपमान करते हों... तो वह पुत्र पिता के पास कैसे रहेगा? उसे तो दूर ही रहना चाहिए। मैं यहाँ पर प्रसन्न हूँ। आप मेरी चिंता न करें।'
आपका
श्रेणिक राजा प्रसेनजित की आँखें नमी से भर आई। 'श्रेणिक बेनातट में ही है यह बात तो अब स्पष्ट हो गई। अब तो किसी भी कीमत पर उसको मनाकर यहाँ पर ले आने का कार्य करना है।' यों सोचकर महाराजा ने वापस संदेशा देकर सुमंगल को रवाना किया।
सुमंगल बेनातट पहुँचा। श्रेणिक से मिलकर पत्र दिया। महाराजा ने लिखा था : 'प्यारे बेटे श्रेणिक,
तुझे मन में इतना दुःख नहीं लगाना चाहिए! मैंने तुझे राजसभा में बुलाकर मान दिया था या अपमान? तू अच्छी तरह याद करना । मुझे सौ पुत्रों में एक
For Private And Personal Use Only