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अंधी राजकुमारी देखे लगी
'हाँ... कुमार... राजा को उसकी बड़ी चिंता बनी रहती है!'
'क्या अब भी वह जीवित है ?'
‘जीती है... और अब तो वह युवानी की दहलीज पर पहुँची है...। वह तो अक्सर कहती रहती है... ' यदि मुझे आँखें मिलती तो मैं संसार का त्याग कर के साध्वी हो जाती! परंतु क्या करूँ? मैं बदनसीब ! जन्म से ही अंधी...' और वह दिन-रात करुण रुदन करती है...। तपश्चर्या भी बहुत करती है।
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अरे ... कुमार! यदि तुम उसे देखो तो अंधी मान ही नहीं सकते ! इतनी सुंदर और खुली हुई उसकी आँखें हैं! राजमहल में तो सभी उसे सुलोचना ही कहते हैं !
राजा को वह कुँवरी इतनी तो प्रिय है कि गलती से भी किसी ने राजकुमारी को ‘अंधी' कह दिया तो राजा उसे फाँसी पर लटका देता है! परंतु कुमार, इस वक्त तुम उस कुँवरी के बारे में क्यों पूछ रहे हो ?
'आपकी बेटी के मनोरथ पूर्ण करने के लिए । '
'वह कैसे? इसका उसका क्या संबंध है?'
'राजकुमारी को यदि आँखों की रोशनी मिले... वह देखने लगे तो राजा हम पर प्रसन्न हो उठेगा न?'
'वह तो है... पर राजकुमारी की दृष्टि वापस लाना कैसे ?'
'यह मेरे पर छोड़ दो... उसका उपाय मैं बताता हूँ ।'
'ओह, तब तो अपना कार्य चुटकी बजाते हुआ समझो!'
'देखो... मैं तुम्हें यह रत्न देता हूँ। तुम इसे लेकर राजा के पास जाओ... । राजा से कहो कि राजकुमारी को मैं दृष्टि देता हूँ...। आप राजकुमारी को यहाँ लिवा लाईये। फिर इस रत्न को, सोने के प्याले में पानी भरकर उसमें डुबोने का। वह पानी राजकुमारी की आँखों पर छींटने का ! राजकुमारी अवश्य देखने लगेगी! फिर राजा खुश होकर तुमसे कहेगा.....
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'सेठ, तुमने मेरे ऊपर महान उपकार किया है... तुम जो वचन माँगो .... मैं देने के लिए तैयार हूँ!' तब तुम कह देना 'महाराजा, मेरी बेटी की इच्छा पूरी करने की कृपा करें ।' राजा जरूर इतनी बात मान लेगा ।'
धन सेठ तो खुशी से नाच उठे । श्रेणिक को उन्होंने गले लगा लिया । दूसरे दिन शुभ मुहूर्त में सेठ रत्न लेकर राजमहल में गये... राजा ने सेठ