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अंधी राजकुमारी देखे लगी
३२ के साथ मेरे आगे-आगे चले... मंदिर जाकर... सुंदर-खुशबूदार फूलों से मैं परमात्मा की पूजा करूँ... मधुर स्वर में स्तवना करूँ!
मैं चाहती हूँ कि मेरे आगे राज्य के वादित्र बजे... नृत्यकार नृत्य करें... मेरे सिर पर राजपुरुष छत्र को धारण करें... याचक वर्ग जो भी माँगे... मैं उन्हें वह दूँ । साधर्मिकों को भोजन करवाकर वस्त्र-अलंकार दूं...। शील धर्म का पालन करूँ...। चैत्यों के जिनदर्शन करूँ! वंदना करूँ! साधुपुरुषों को शुद्ध व श्रेष्ठ आहार का दान करूँ!' _ 'माँ, ये हैं मेरे मनोरथ! ये हैं मेरे मन की कल्पनाएँ! क्या ये पूरी हो सकती है? तू ही बता!'
माँ ने खुश होकर कहा : 'बेटी, तू तनिक भी चिंता न कर... अल्प समय में तेरे ये मनोरथ अवश्य पूरे होंगे! तू जरा भी निराश मत होना!'
सुनंदा का मन कुछ हर्षित हुआ। उसकी माँ पुलकित होती हुई कुमार श्रेणिक के पास गई और दोनों मंत्रणागृह में पहुँचे...। वहाँ उसने कुमार से सारी बातें कही। सुनंदा के मनोरथों की बात बतायी। धन सेठ को भी वहाँ बुला लिया गया।
श्रेणिक का मन भी प्रसन्न हो उठा | उसने सोचा : 'जिस गर्भवती स्त्री को ऐसे मनोरथ पैदा होते हैं... उसका कारण उसके उदर में कोई महान भाग्यशाली जीव आया होता है...। ज्ञानी पुरुषों से मैंने सुना है कि धर्मकार्य की इच्छा महान पुण्योदय से ही होती है,... और यदि वह इच्छा पूरी होती है तो सोने में सुहागा मिल जाता है!'
कुमार ने सास से कहा :
'माताजी, परमात्मा की अचिंत्य कृपा से तुम्हारी बेटी की इच्छा अवश्य पूरी होगी।'
'कुमार, मुझे तो तुम पर जमाने भर का भरोसा है।' सेठानी प्रसन्न एवं संतुष्ट होकर वहाँ से चल दी।
मंत्रणागृह में धन सेठ और कुमार दो ही थे। कुमार ने कुछ पल मन में सोचकर के सेठ से पूछा :
'सेठ, आपके राजा को एक बेटी थी... वह जन्म से ही अंधी थी...'
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