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सुनन्दा ही नहीं! मेरी तो अक्ल ही काम नहीं करती! और तो और, राजा अब मेरी दुकान... मेरा घर लेने का भी इरादा करता है! क्या करूँ? मुझे गाँव छोड़कर चले जाना होगा! जिस नगर में मैंने हवेली बनवाई... धंधा-धापा करके लाखों रुपये कमाये... नगरसेठ की पदवी प्राप्त की... उसी नगर में आज मुझे रुखासूखा खाकर ठंढ़ा पानी पीना पड़ता है... फटे हुए कपड़े सी-सी कर पहनने पड़ते हैं | मन ऐसा होता है कि आत्महत्या करके जिन्दगी को समाप्त कर दूँ!
कुमार, इस दुनिया में बगैर पैसे के आदमी शोभा नहीं देता! नीतिशास्त्र में कहा है कि 'वीरान जंगल में रहना बेहतर है, बजाए निर्धन स्थिति में स्वजनों के बीच रहने के! ___ बात करते-करते तो धनसेठ की आँखें आँसुओं से गीली हो उठी। यह देखकर श्रेणिककुमार का कोमल हृदय दुःखी-दुःखी हो उठा! उसके मन में धनसेठ के लिए सहानुभूति पैदा हुई। उसका मन बड़ा ही कोमल था।
ज्ञानी पुरुषों ने कहा है :
कोमल चित्त, मधुर वचन, प्रसन्न दृष्टि, क्षमायुक्त शक्ति, निष्पाप बुद्धि, परोपकार करनेवाली संपत्ति... शीलयुक्त रूप, अभिमान रहित विद्वत्ता और नम्रता पूर्ण बड़प्पन-ये नौ बातें अमृत के कुंड जैसी होती हैं।
कुमार ने धनसेठ से कहा : 'सेठ, तुम्हारे पास ढेर सारी संपत्ति होने पर भी तुम मौत क्यों माँग रहे हो? मेरी समझ में नहीं आता!'
'कुमार, तुम धन की बात परे रहने दो... मेरे घर में तो खाने के लिए अनाज भी पूरा नहीं है!
कुमार ने कहा : 'सेठ, मेरी एक बात मानो, इस जहाज में जो रेत है... वह वास्तव में धन ही है। तुम इसको सम्हाल कर रखो। तुमने ये दुकान के आगे जो रेत बिछा रखी है... वह भी कीमती है... रात में उसे एकत्र करके दुकान के कोने में बोरा भर कर रख देना। आगे जाकर यह रेत धन होनेवाली है!
और.. यह लो, मैं तुम्हें रत्न देता हूँ...। तुम इससे धंधा करना-व्यापार करना । तनिक भी चिंता मत करना। राजा खुद खुश होकर तुम्हारे घर पर आएगा! और तुम्हारे स्नेही-स्वजन भी दौड़े-दौड़े आएंगे। ___ मैं दूसरे गाँव-नगर में घूमकर वापस आऊँ... तब तक ये रत्न तुम्हारे पास ही रखना।'
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