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अंधी राजकुमारी देखे लगी
३७
'देवी, मैं जानता हूँ कि संसार के ये सारे रिश्ते नाते व्यर्थ हैं.... फिजूल हैं... मिथ्या हैं, कौन किसका बेटा और कौन किसका पिता ? कौन पति और कौन पत्नी? सपनों की मायाजाल है ये सब कुछ ! अनंत अनंत जन्मों में सभी जीवों के साथ सभी प्रकार के संबंध रचाये हैं... और भविष्य में रचाये जाने हैं! फिर भी देवी! मोह में अंध बना जीव अक्सर मोहमूढ़ होकर शंका-कुशंका किया करता है... विकल्पों के जाले बुना करता है!'
इस तरह राजा प्रसेनजित अपने मन को मनाते हैं!
देवनंदि सार्थवाह रोजाना राजसभा में आता है । एक दिन देवनंदि ने जानबूझकर राजा से पूछा :
'महाराजा, आपको सौ बेटे हैं... यह मैं जानता था... पर यहाँ तो निन्यानवे ही हैं... एक बेटा कहाँ चला गया?'
राजा ने दुःखी मन से कहा :
‘श्रेष्ठि, मेरा एक प्रिय और बुद्धिमान पुत्र रुठकर, नाराज होकर राज्य छोड़कर चला गया है कहीं! उसका नाम है श्रेणिक !'
‘महाराजा, कुछ बरस पहले जब मैं आपके राजदरबार में आया था तब मैंने उस बुद्धिमान, रूपवान श्रेणिककुमार को देखा था!'
‘उसके बगैर मेरी तो जिन्दगी सूनी-सूनी हो गई है, श्रेष्ठि !'
'महाराजा, मैंने आपके उस लाड़ले बेटे को देखा है । '
‘क्या?' राजा प्रसेनजित सिंहासन पर से खड़ा हो गया... और देवनंदि के दोनों कंधे पकड़कर उसे हिला दिया ।
‘बेनातट नगर में आपका पुत्र कुशल है । धन सेठ की हवेली में मैंने उसे देखा है। जब मैंने उससे कहा कि 'कुमार, मैंने तुम्हें राजगृह में देखा था ।' तब उसने मुझे चुप करते हुए ताना कसा था कि 'राजग्रह तो मेरे दुश्मन को भी नहीं हो !'
राजा ने देवनंदि की बातों में सत्यता का अंश परखने के लिए तुनककर देवनंदि से कहा :
'सेठ... तुम इतना बड़ा झूठ क्यों बोल रहे हो? मेरा वह पुत्र तो आलसी.... मूर्ख और अधम प्रकृति का था... वह यहाँ से किसी से कुछ कहे बगैर चुपचाप चला गया है! भटक-भटक कर बेमौत मरेगा! अरे सार्थवाह! जो आदमी दूसरों
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